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कोरोनिल: इस तरह का विरोध और उपहास उचित नहीं

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अवधेश कुमार

पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा कोरोना संक्रमण को ठीक करने के दावे के साथ कोरेानिल नाम की औषधि सामने लाने के साथ देश में जिस तरह तूफान खड़ा किया गया है वह दुर्भाग्यपूर्ण है।

कोई नहीं कहता कि उस दवा के बारे में स्वामी रामदेव या अन्य लोग जो दावा कर रहे हैं उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लीजिए, लेकिन इस तरह का उपहास उड़ाना, उसे एक धोखाधड़ी बताना तथा अभियान चलाकर बदनाम करने की कोशिश किसी दृष्टि से तार्किक, मानवीय और उचित नहीं माना जा सकता। स्वामी रामदेव के पूर्व तीन कंपनियों ने एलोपैथी औषधियां बाजार में उतारी तो कोई हंगामा नहीं हुआ। हालांकि उन औषधियों से कोराना का संक्रमण दूर हो जाएगा इसकी गारंटी न कंपनी दे रही और न उसका उपयोग करने वाले डॉक्टर।

प्रश्न है कि अगर पंतजलि आयुर्वेद यह दावा कर रहा है उसने इसका क्लिनिकल ट्रायल किया है, जिसमें उसे सफलता मिली है तो उसका परीक्षण करने में हर्ज क्या है? उनका दावा है कि कोरोना संक्रमित मरीजों पर परीक्षण के दौरान आरंभिक 3-4 दिनों में 69 प्रतिशत और सात दिनों में 100 प्रतिशत मरीजों को स्वस्थ करने में सफलता मिली है। बिना इसकी जांच परख किए एगाबरगी झूठ करार दे देने का औचित्य क्या है? उत्तराखंड सरकार ने उस दवा को बेचने की स्वीकृति भी प्रदान की है।

आयुष मंत्रालय ने तत्काल उस दवा के प्रचार और बिक्री को रोक दिया है। यह उसके अधिकार क्षेत्र में आता है और उसे अपने मानकों पर संतुष्ट होना ही चाहिए। उसने कहा है कि दवा से जुड़े वैज्ञानिक दावे के अध्ययन और विवरण के बारे में मंत्रालय को कुछ जानकारी नहीं है। पतंजलि को अनुसंधान, कोरोनिल में डाले गए जड़ी-बुटियों सहित नमूने के आकार, स्थान आदि सारी जानकारियों के साथ उन अस्पतालों का ब्योरा देने को कहा गया है, जहां अनुसंधान अध्ययन किया गया। संस्थागत नैतिकता समिति की मंजूरी भी दिखाने को कहा गया है।

मंत्रालय उत्तराखंड सरकार के सम्बंधित लाइसेंसिंग प्राधिकरण से इस दवा को स्वीकृति देने संबंधी आदेश की कॉपी मांगी गई है। यह बिल्कुल उचित कदम है। मंत्रालय के बयान के एक अंश पर नजर डालिए,

संबद्ध आयुर्वेदिक औषधि विनिर्माता कंपनी को सूचित किया गया है कि आयुर्वेदिक औषधि सहित दवाइयों का इस तरह का विज्ञापन औषधि एवं चमत्कारिक उपाय (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 तथा उसके तहत आने वाले नियमों और कोविड-19 के प्रसार के मद्देनजर केंद्र सरकार की ओर से जारी निर्देशों से विनियमित होता है

पतंजलि की ओर से भी आयुष मंत्रालय को पूरी जानकारी दे दी गई है। इसके अनुसार यह दवा पतंजलि रिसर्च इंस्टीट्यूट और नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, जयपुर ने मिलकर बनाई है। उनका दावा है कि क्लिनिकल कंट्रोल ट्रायल के लिए उन्होंने सारी स्वीकृतिंया लीं तथा रैंडमाइज्ड प्लेसबो कंट्रोल्ड क्लीनिकल ट्रायल के जितने भी मानक परिमितियां हैं, उन सभी को शत-प्रतिशत पूरा किया गया है। पहले एथिकल स्वीकृति ली गई, फिर भारत की क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री से ट्रायल की अनुमति मिली और इसके बाद दवा का ट्रायल शुरू हुआ।

इसके अनुसार इंदौर और जयपुर में 280 मरीजों पर इसका ट्रायल किया गया। हम इन सारी बातों को बिना जांच किए झूठ कैसे कह सकते हैं? आयुष मंत्रालय का बयान बिल्कुल स्पष्ट है। उससे साफ होता है कि मंत्रालय नियमों को लेकर कितना सतर्क और सख्त है। इससे कोरोना जैसी नई बीमारी के प्रति उसकी संवेदनशीलता और जिम्मेवारी भी झलकती है। जाहिर है, फैसला आयुष मंत्रालय को करने देना चाहिए। मंत्रालय जब तक सारे मापदंडों पर परख नहीं लेगा कोरोना दवा के रुप में इसकी स्वीकृति नहीं दे सकता। जैसा हम जानते हैं भारत में आयुर्वेदिक दवाओं को मंजूरी देने का जिम्मा आयुष मंत्रालय के पास है।

केन्द्रीय आयुर्वेद विज्ञान अनुसंधान परिषद या सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंसेज पूरी प्रक्रिया पर नजर रखती है। एलोपैथिक दवाओं को स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशालय डायरेक्टरेट जनरल ऑफ हेल्थ सर्विसिज के तहत आने वाले केन्द्रीय औषधिक मानक नियंत्रण संगठन या सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन स्वीकृति प्रदान करती है। इसी ने तीन कंपनियों की तीन एलापैथी दवाओं की स्वीकृति दी है। किंतु यहां कुछ बातें समझने की आवश्यकता है।

आयुर्वेद एवं एलौपैथ प्रणाली में अनुसंधान, दवाओं के निर्माण, रोगों के निर्धारण, उनका उपचार आदि में मौलिक अंतर है। आयुर्वेद हमारे यहां लंबी और गहन साधाना, प्रयोगों, अनुभावों से आगे बढ़ीं और सशक्त हुईं। इसके लिए किसी डिग्री आदि की अवश्यकता नहीं थी। आयुर्वेद के जितने प्राचीन मानक ग्रंथ हैं वे सब ऋषि-मुनियों द्वारा रचित हैं। हमने आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अनुरुप आयुर्वेद के शिक्षालय अवश्य स्थापित किए, जो आवश्यक थे। अध्ययन, अनुसंधान और उपचार के लिए कुछ बड़े संस्थान भी खड़े किए गए हैं और किए जा रहे हैं। लेकिन आज भी हजारों ऐसे लोग हैं जो स्वयं जड़ी-बुटियों-वनस्पतियों से लेकर हमारे सामने उपलब्ध खाने-पीने की वस्तुओं से उपचार करते हैं और अनेक बार उसके चमत्कारिक परिणाम सामने आते हैं।

काफी संख्या में ऐसे लोग हैं जो बताते हैं कि वे सारा इलाज करके हार गए थे, लेकिन फलां जगह के एक वैद्य ने या किसी गांव के बिना डिग्रीधारी व्यक्ति ने जड़ी-बुटियों, भस्मों से हमें ठीक कर दिया। कहने का तात्पर्य यह कि आयुर्वेद की किसी प्रक्रिया को समझने और जांचने का मानक वह नहीं हो सकता जो एलोपैथ का है। दोनों अलग-अलग स्वरुप की विधाएं हैं। इसका इस विधा के अनुरुप ही परीक्षण और अध्ययन करना होगा। आखिर जब एलोपैथ या दूसरी पैथियों की परख आयुर्वेद की कसौटियों के अनुसार नहीं हो सकती तो आयुर्वेद की दूसरी पैथियों के अनुसार क्यों होना चाहिए?

कोरोनिल कारगर दवा है या नहीं यह प्रश्न तो एक कंपनी से जुड़ा हुआ है और अब आयुष मंत्रालय को फैसला करना है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में यह दुखद तथ्य फिर सामने आया है कि हम अपने यहां गहन साधना से विकसित विधाओं को लेकर आत्महीनता के शिकार हैं। उपार की हर पैथी की अपनी विशेषता है और उसे स्वीकार करना चाहिए। किंतु आयुर्वेद एलोपैथ की तरह कोई नया आविष्कार नहीं कर सकता ऐसी सोच हमारी आत्महीनता को दर्शाती है। दूसरे, एलोपैथी दवाओं का ऐसा ताकतवर समूह है जो दूसरी पैथी को आसानी से मैदान में उतरने नहीं देता।

वे अपनी दृष्टि से तरह-तरह के प्रश्न उठाते हैं तथा सरकारी तंत्र एवं बुद्धिजीवी उन्हीं मानकों पर आयुर्वेद को खरा उतरते देखना चाहते हैं। हम यह क्यों मान लेते हैं कि आयुर्वेद में ऐसी बीमारी की दवा विकसित नहीं हो सकती जिसमें एलोपैथ विफल हो रहा हो? कोरोना काल में ही हम देख रहे हैं कि करोड़ों लोग आयुर्वेदिक पद्धति के काढ़े का इस्तेमाल करके स्वयं को बचाए हुए हैं। हमने कोराना संक्रमित ऐसे मरीजों के बयान देखे हैं जो बता रहे हैं कि जब उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा तो उन्होंने वैद्यों की सलाह के अनुसार फलां-फलां जड़ी-बुटियों-वनस्पतियों का सेवन आरंभ किया और धीरे-धीरे बीमारी से मुक्त होते गए।

जब कोई उसका आधुनिक विज्ञान की पद्धति से परीक्षण करेगा तो शायद परिणाम भी उसी तरह आएंगे जैसा ठीक होने वाले संक्रमित लोग बता रहे हैं। किंतु हम यह मानकर कि आयुर्वेद से कोरोना संक्रमण ठीक हो ही नहीं सकता इन सारे लोगों को झूठा करार दें यह तो किसी तरह तार्किक और नैतिक व्यवहार नहीं हुआ। हालांकि सरकार ने भी अब यही नीति बनाई है कि जिस भाषा में दुनिया समझती है उसी भाषा में उसे आयुर्वेद को समझाया जाए। पिछले दिनों केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि हम अपनी प्राचीन विद्या को बिल्कुल वैज्ञानिक तरीके से साबित करके दुनिया के सामने रखेंगे।

दुनिया को जवाब देने के लिए यह नीति सही है और पतंजलि भी दावा कर रही है कि उसने इसीलिए उसका उसी तरीके से क्लिनिकल ट्रायल किया है। तो देखते हैं। किंतु ध्यान रखिए, आयुर्वेद में इस तरह के क्लिनिकल ट्रायल की न परंपरा रही है और न इसका ऐसा ढांचा विकसित हुआ। अब ऐसा करने की कोशिश हो रही है और यह सही है लेकिन आयुर्वेदिक या जड़ी-बुटियों से बने मिश्रणों के प्रभावों को परखने का एकमात्र तरीका यह नहीं हो सकता। वैसे भी कोरोनिल में जिन जड़ी-बुटियों मसलन, गिलोय, अश्वगंधा, तुलसी आदि के मिश्रण हैं उनसे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने की बात आयुष मंत्रालय भी मानता है। इनका काढ़ा तो लोग पी ही रहे हैं। आयुष मंत्रालय ने इसके प्रचार और बिक्री पर रोक लगाई है तो उसे तीव्र गति से स्थापित मानकों पर इसकी पूरी जांच और परीक्षण करना चाहिए।

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