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न्यायालय के फैसले और आहत भारतीयता

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डॉ अर्पण जैन 'अविचल'

भारत एक न केवल भूमि का टुकड़ा नहीं है बल्कि भारत के भारत होने के मतलब में ही भारतीयता संस्कार निहित है। संस्कार और संस्कृति के अध्ययन और मूल तत्व की खोज में हमारे अब तक सफल होने का कारण या कहें पूर्व में विश्वगुरु होने के पीछे केवल भारत धर्मग्रंथों के माध्यम से संस्कार सिंचन निहित है। जन को जानने की जिजीविषा में हमारे संस्कारों का ककहरा ही प्रथम दृष्टया महत्वपूर्ण है, क्योंकि तमाम सारे आर्थिक, राजनैतिक या वैश्विक संकटों के बावजूद भी यदि भारत अपने अस्तित्व को लेकर अडिग रहा तो इसके पीछे केवल भारतीयता और भारत की वैज्ञानिक संस्कृति ही रही है। भारत की वेदमयी संस्कृति में भविष्य के तयबद्ध ख़ांके को चुनौती देने का तार्किक आधार है। इन्ही सब कारणों से भारत वर्तमान में भी अपने सांस्कृतिक परिवेश में सबसे सुदृढ़ बना हुआ है।

 
विश्व के महान नाटककार व कुशल राजनीतिज्ञ मानवतावादी व्यक्तित्व जार्ज बर्नार्ड शा ने भारतीय संस्कृति के बारे में लिखते है कि ‘भारतीय जीवनशैली प्राकृतिक और असली जीवनशैली की दृष्टि देती है। हम खुद को अप्राकृतिक मास्क से ढंक कर रखते हैं। भारत के चेहरे पर मौजूद हल्के निशान रचयिता के हाथों के निशान हैं।’अब इन शब्दों में ही भारतीय का मूल छुपा है।
 
बहरहाल मुद्दों की राजनीति के चलते न्याय व्यवस्था से मंदिर से संस्कृति पर हो रहे हमले ने चिंता की लकीरें खींचना भी आरंभ कर दी है जो जनमानस के लिए भी परेशानी बनती जा रही है। जनमानस के मस्तिष्क में संस्कार शालाओं के प्रति उदासीनता भी दिखा रही है क्योंकि जिन चीजों को हमारे संस्कार वर्जित या त्याज्य मानते थे आज वो न्यायिक दृष्टि से सही कैसे माने जाने लगे है।

 
जिस संस्कृति के मूल में शून्य या कहे वैज्ञानिकता का आधार समाहित हो, जहां की मातृभाषा हिन्दी अपने संपूर्ण कोषालय में समृद्ध शब्द और वैज्ञानिक तर्क रखती हो, जिसमें अक्षर के उच्चारण मात्र से शरीर के अंगों का क्रियान्वन सम्मिलित होता हो, जिस राष्ट्र के देवता भी अपने विशिष्ट रूप के लिए ही नहीं अपितु आधारगत समाधान के लिए विख्यात हो, जिस देश की धार्मिक क्रियाओं, हवनों, पूजा परिपाटियों में वातावरण की शुद्धता और सकारात्मकता निहित हो, ऐसे राष्ट्र की संकल्पना और तथ्यात्मकता को चुनौती देते हुए न्यायिक फैसले आना निश्चित तौर पर किसी साजिश के तहत राष्ट्र की अखंडता और अक्षुण्ता को समाप्त करने का कुत्सित प्रयास माना जाएगा।

 
भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया।
 
विगत दिनों भारत की न्यायिक मंदिर से कुछ फैसले आए जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह समलैंगिक सेक्स को अपराध मानने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर पुनर्विचार करेगा। अदालत ने यह आदेश 10 अलग-अलग याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं पर दिया गया है जिसमें कहा गया है कि आईपीसी की धारा 377 अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन है। सर्वोच्च न्यायालय ने इससे पहले अपने एक आदेश में दिल्ली उच्च न्यायालय के समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के फैसले के विरुद्ध फैसला सुनाया था। इस मामले को एक बड़ी पीठ के पास भेजते हुए न्यायालय ने कहा कि 'जो किसी के लिए प्राकृतिक है वह हो सकता है कि किसी अन्य के लिए प्राकृतिक न हो।' लेकिन सभी को अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार के तहत कानून के दायरे में रहने का अधिकार है।

 
आखिर क्या न्यायालय इस बात से वाकिफ है कि इस तरह के समलैंगिक शारीरिक संबंध न तो चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से उपयुक्त है, न ही भारत की धार्मिक संरचना के अनुरूप? पर यदि इस पर भी न्यायालय ने अपराध न मानने के पीछे अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का आधार बनाया है तो यदि सवाल उठता है कि कैसे यह फैसला भारत के सामयिक सांस्कृतिक चिंतन और धर्मसत्ता के सम्मान में है?

 
समलैंगिकता को हमारे यहां अप्राकृतिक यौन अपराधों में शामिल किया गया है। तदुपरांत भी समलैंगिकता पर न्यायालय की चिंता भारत की धर्म सत्ता का विखंडन ही माना जाएगा। पाश्चात्य संस्कृति के अलोक में समलैंगिकता को विधिसम्मत तो कर दिया पर क्या समाज प्रायोगिक रूप से उन समलैंगिक जोड़ों को स्वीकार कर पाएगा? कदापि नहीं। उन्हें सदैव हैय की दृष्टि से ही देखा जाएगा, फिर भी न्यायालय का निर्णय पुनर्विचार के योग्य है।

 
इसी तरह दूसरा मामला बाहर वाली को घरवाली बनाने के संदर्भ में आया जिसमें धारा 497 के आधार पर एक महिला जिसके साथ पुरुष के संबंध रहे है उसे भी दूसरी पत्नी का अधिकार मिलेगा। सोशल मीडिया फेसबुक पर अपनी वैवाहिक जीवन साथी की सही जानकारी छुपाकर, नई महिला मित्रों के साथ यौन शोषण करने वालों के लिए अदालत का यह फैसला खतरनाक तो साबित हो सकता है। पीड़िता को अब नहीं बोल सकेंगे बाहर वाली, उसे भी घरवाली के रूप भरण, पोषण, निवास आदि एवं प्रताड़ना से संरक्षण के लिए कानूनन केस दर्ज कराने का अधिकार हैं। पर हिन्दू मैरिज एक्ट में एक पत्नी के होते दूसरी को इस तरह रखने की इजाजत नहीं है। इस तरह का मामला संज्ञान में आने पर पुलिस को अपनी तरफ से जांच कर कार्रवाई करने का अधिकार है। परंतु उच्चतम न्यायालय में वर्ष 2014 में एक बादशाह विरुद्ध उर्मिला प्रकरण में हुए निर्णय के अनुसार जिस तरह दूसरी महिला को वैधानिक पत्नी का अधिकार दिया गया है, जिस तरह व्यक्ति द्वारा किसी महिला से पूर्व विवाह की बात छुपा कर किसी अन्य स्त्री से विवाह कर लेने पर कानून ने पति पर भादवी धारा 493, 494 और 495 के तहत सजा का प्रावधान है।

 
न्यायालय के व्यवस्था के इतर प्रायोगिक तौर पर क्या एक बिस्तर पर दो बीबी को रखा जा सकता है? क्या यह संभव है एक व्यक्ति एक ही समय में दो बीबियों के साथ हो सकता है? क्या समाज दोनों पत्नियों को सामान अधिकार दे पाएगा? यह तो उस स्त्री के साथ भी छल ही होगा जिसे न्यायालय ने दूसरी पत्नी का अधिकार दिया।
 
सब तर्क मान भी लिए जाए तब भी एक स्त्री की निजता का सामूहिक हनन होना स्वाभाविक है। ऐसे में कानून ने किसी के साथ बनाए विवाहेत्तर संबंधों को स्वीकार करना भारत की सांस्कृतिक अखंडता और परिचालन पर हमला ही है।

 
भारत की अपराध दंड संहिता यानी आईपीसी लिखने वाले लॉर्ड बैबिंगटन मैकाले चाहते थे कि विवाह संबंध में अगर पत्नी और किसी‘वो’के बीच संबंध बन जाएं, तो इसे अपराध न माना जाए। आईपीसी बनने से पहले देश में नागरिकों के लिए कोई लिखित कानून नहीं था और परंपरा से न्याय होता था। जब मैकाले के सामने विवाह संबंधी अपराधों को शब्दों में व्याख्या करने की बारी आई, तो उनके सामने यह प्रश्न आया कि पत्नी के साथ किसी बाहरी व्यक्ति के यौन संबंध यानी व्याभिचार को अपराध माना जाए या नहीं।

 
मैकाले ने भारत के अपने सीमित अनुभवों के आधार पर माना कि जब कोई किसी की पत्नी को भगा ले जाता है या उसके साथ यौन संबंध बनाता है तो यह दंडनीय अपराध नहीं है। मैकाले ने पाया कि ज्यादातर मामलों में पीड़ित पक्ष यानी पति चाहता है कि उसकी पत्नी उसे वापस मिल जाए या फिर उसे इसका आर्थिक मुआवजा मिले। मैकाले की चलती तो आईपीसी में व्याभिचार को दीवानी मामला माना जाता और रुपए-पैसे के आधार पर फैसले होते।

 
मैकाले की इस मामले में नहीं चली और व्याभिचार को आईपीसी में अपराध मान लिया गया और भारतीय कानूनों में धारा 497 जुड़ गई। व्याभिचार से संबंधित आईपीसी की धारा 497 में यह प्रावधान है कि अगर कोई पुरुष किसी विवाहिता स्त्री से, बिना पत्नी की सहमति से, यौन संबंध बनाता है तो उस पुरुष को पांच साल तक की कैद की सजा या आर्थिक दंड या दोनों की सजा हो सकती है। इस मामले में पत्नी को अपराध में हिस्सेदार नहीं माना जाएगा। व्याभिचार से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी में यह प्रावधान है कि पत्नी को यह अधिकार नहीं है कि वह व्याभिचारी पति पर व्याभिचार का आरोप लगा सके। ऐसा करने का अधिकार सिर्फ पति को है।

 
भारत ही नहीं, सारी दुनिया में जहां भी बलात्कार के कानून हैं, उसके पीछे एक ही तार्किक सोच काम करती है। जिसमें विवाह मान्यता को बाहरी पुरुष के दखल से बचाया जाए, ताकि होने वाली संतान की रक्त की शुचिता कायम रहे यानी यह पता होना चाहिए कि बच्चे का बाप कौन है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बाप की विरासत और पैतृक जायदाद बेटे को ही जा रही है। यह एक तरह से परिवार की पारंपरिक व्यवस्था को बचाए रखने की जुगत है। इसलिए विवाह संस्था के अंदर पति के व्याभिचारी होने को व्याभिचार कानून के दायरे में नहीं रखा गया है क्योंकि विवाह के अंदर जो बच्चा पैदा होगा, उसे पैदा तो महिला करेगी। 
 
व्याभिचार अंग्रेजी के जिस शब्द एडल्टरी से आया है, उसका अर्थ ही मिलावट है। इस खास संदर्भ में यह खून में मिलावट का अर्थ ग्रहण करता है। इस कानून की भाषा इस तरह लिखी गई है, मानो महिला किसी पुरुष की संपत्ति है और जब कोई बाहरी पुरुष उस संपत्ति को ले जाता है या उसे 'खराब'  करता है, तो उसे दंडित किया जाएगा।
 
हमारी भारतीय संस्कृति में संबंधों को जायज न ठहरने के पीछे कई वैज्ञानिक आधार भी है जैसे कि रक्त संबंध। फिर भी जिस तीव्र गति से न्यायालय में जलिकट्टू, सबरीमाला के मंदिर में प्रवेश, शनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश आदि पर भूमिका बनाकर भारत के सांस्कृतिक आधारभूत ढांचें में परिवर्तन करके इमारत को बिखराव की तरफ मोड़ा जा रहा है वह सरासर गलत ही नहीं बल्कि हमला है।

 
राजनैतिक विरासत की मनमानी के चलते न्यायिकता के द्वारा भारतीयता को प्रभावित करना पतन के नए अध्यादेश ही बनाना माना जाएगा। विरोध का स्वर उठना चाहिए वरना मौन स्वीकृति से भारत का सांस्कृतिक पतन होना तय है।

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