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बहस से बेखबर, टीआरपी बटोरती गाय

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प्रीति सोनी
जरा सोचकर देखिए कि जब भी किसी मुद्दे को लेकर गरमागरम या मसालेदार बहस चल रही होती है, तो बेचारे मुद्दे का इसमें न तो कोई हाथ होता है, और ना ही कोई कसूर...लेकिन फिर भी वह मुद्दा है। और उच्च पदों पर आसीन समाज और धर्म के तमाम ठेकेदार इस बारे जमकर बहस भी करते हैं। लेकिन मुद्दे की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता ।

 

 
अब गाय को ही ले लिजिए, जहां आजकल के दौर में युवा, राजनेता और सुंदरियां सोशल मीडिया में छा जाने को बेताब रहते हैं, वहीं बेचारी गाय यह भी नहीं जानती कि वह आजकल सोशल मीडिया पर खूब टीआरपी बटोर रही है। उसे तो यह भी नहीं पता कि, कौन हिन्दू, कौन मुसलमान, कौन राजनेता और कौन किसान..उसे अगर किसी चीज से मतलब है, तो केवल अपने चारे से। अब वह चारा उसे कहीं से भी मिले...मालिक डाल दे, या फिर किसी मंदिर के बाहर मंगल की शांति के उपाय के तौर पर कोई श्रद्धालु डाल जाए। 
 
गाय न तो कोई धर्म जानती है, ना ही उस धर्म में उसकी पदवी क्या है, यह जानती है। उसे पता भी कैसे हो, उसके नाम पर होने वाली बहस, राजनीति और चिंता उस तक पहुंच ही नहीं पाती। अब देखिए न, इतने सारे दन-तूफानों के बाद भी आखि‍रकार गाय नामक इस पशु का जमावड़ा सड़कों और चौराहों पर दिखाई दे ही जाता है..इतना ही नहीं, सड़कों की खाक छानते वह तो अब भी वही कचरे की सड़ी-गली पॉलीथिन ही सूंघती और चाटती दिखाई देती है।
 
अगर गाय पर हो रही इस सियासत का 'मुद्दा' यानि गाय खुद वास्तव में इतनी अहम है, तो क्यों उसके लिए प्रशासनिक गतिविधियां सक्रिय नहीं होती। उसे यूं बेदर्दी से न काटा जाए, इसके लिए क्यों उसे आसानी से उपलब्ध संसाधन के रूप में सड़कों पर यूं भटकने दिया जाता है। मुद्दा बनाने से पहले उसकी भी देखरेख को अगर कोई इंतजाम हो जाता, तो हम जैसे लोगों को भी शायद गाय को यूं मुद्दा न बनाना पड़ता...।

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