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गायें अनंतकाल तक घास पर चलते रहना चाहती हैं

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सुशोभित सक्तावत

, सोमवार, 29 मई 2017 (16:49 IST)
इतालो कल्वीनो के नॉवल "द कासल ऑफ़ द क्रॉस्ड डेस्ट‍िनीज़" में यह "फ़ंतासी" है कि एक दिन पशु जंगलों से आएंगे और मनुष्य को नगरों से विस्थापित करके सभ्यता के उपकरणों पर काबिज़ हो जाएंगे। यह इतना असंभव भी नहीं है। अगर जैविक विकासक्रम के तहत पशुओं में किंचित भी बुद्धि का विकास हुआ, तो वे ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि दैहिक बल में तो पशु मनुष्य से श्रेष्ठ है ही। बहरहाल, "रोमांचक" होने के बावजूद इस कल्पना को "नैतिक" नहीं कहा जा सकता। इसलिए नहीं कि पशुओं को मनुष्यता पर विजय प्राप्त नहीं करना चाहिए। बल्कि इसलिए कि यह "फ़ंतासी" पशुओं को मनुष्य की तरह देखने का वही उद्यम करती है, जो जॉर्ज ओरवेल ने "एनिमल फ़ार्म" और रूडयार्ड किपलिंग ने "द जंगल बुक" में किया था। यह एक "अनैतिक फ़ंतासी" है, क्योंकि यह "यथास्थिति" में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं करती। यह केवल "प्रतिशोध" के "काव्य-न्याय" से भरी परिकल्पना है।
 
काफ़्का का "मेटामोर्फोसीस" इसकी तुलना में नैतिक आभा से कहीं दीप्त‍ है। काफ़्का का नायक ग्रेगोर साम्सा एक सुबह जागता है तो पाता है कि वह एक तिलचट्टे में तब्दील हो गया है। वह बिस्तर से उठने की कोशि‍श करता है, लेकिन नाकाम रहता है। उसकी पीठ ढाल की तरह गोल और कड़ी हो जाती है और उसकी आंखों के सामने उसकी असंख्य टांगें दयनीय तरीक़े से हिलती रहती हैं। जिस दिन काफ़्का ने ये पंक्त‍ियां लिखीं, उस दिन जैसे मनुष्यता के भाव-इतिहास में एक क्रांति हो गई। पहली बार एक मनुष्य ने एक पशु की काया में प्रवेश किया था और सहसा सभ्यताओं द्वारा अभी तक निर्धारित किए गए तमाम परिप्रेक्ष्य डगमगा गए थे।
 
दुनिया वही नहीं थी, जिसे हम अपनी बालकनियों से झांककर देखा करते थे। और देखना केवल वही नहीं था, जो कि हमारा देखना था। काफ़्का अकसर ख़ुद को पशुओं की तरह देखता था। तिलचट्टा, चूहा, वानर, छछूंदर, श्‍वान, गिद्ध, इन सब पर उसने "फ़र्स्‍ट पर्सन" में कहानियां लिखी हैं। यह अवश्यंभावी था कि इसके बाद काफ़्का जीव-हत्या का घोर विरोधी बन जाता। आप तब जीव-हत्या के विरोधी नहीं बनते हैं, जब आप क़त्लख़ानों के भयावह दृश्यों को देखकर पसीज जाते हैं। आप तब जीव-हत्या के विरोधी बन जाते हैं, जब आपको यह महसूस होता है कि उस जगह पर आप भी हो सकते थे।
 
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केरल में खुलेआम गाय काटी गई। अंतत: इसका महत्व नहीं ही है कि इसके पीछे की राजनीति क्या है। यह किसने किया और क्यों किया। वास्तव में, आश्चर्य तो इस बात का भी नहीं है कि गाय को काटा गया, क्योंकि गायों, सांडों, सुअरों, भेड़ों, बकरों, मुर्गों और बटेरों को रोज़ ही लाखों की संख्या में मारा जाता है। अचरज में डालती हैं इस घटना पर आ रही प्रतिक्रियाएं, जो "सभ्यता-समीक्षा" के "शवोच्छेदन" वाले क्रम में हमें थोड़ा और आगे धकेलती हैं। मसलन, कुछ लोग कह रहे हैं कि ऐसा सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह जघन्य है। उनका आशय यह है कि हमें यह देखकर जुगुप्सा होती है, आप इसे हमारे सामने ना करें। हां, अगर आप परदों के पीछे यह करते हैं, तो हमें हमें क्या आपत्त‍ि हो।
 
आज मुझे बार-बार काफ़्का याद आ रहा है, जो कि उन्नीस सौ चौबीस में ही चल बसा।
 
अगर आज काफ़्का होता तो इस दृश्य की कल्पना वह इस तरह से करता कि किसी और की नहीं, उसी की गर्दन पर छुरी चलाई जा रही है! वह अपने कंठ पर उस धात्विक धार को अनुभव कर रहा है! वह चीखना चाहता है, लेकिन चीख नहीं पा रहा, क्योंकि उसका कंठ भेद दिया गया है, जिसमें से रक्त के फौआरे छूट रहे हैं। वह नज़रें घुमाकर देखता है कि कुछ सभ्य लोग इस दृश्य पर जुगुप्सा से भरे हुए हैं और यह गुहार लगा रहे हैं कि कृपया उनकी आंखों के सामने यह ना किया जाए, क्योंकि यह उन्हें विचलित करता है, और इसके बाद वे अपना नाश्ता चैन से नहीं कर सकते। मुझे विश्वास है, अवमानना, नि:सहायता और नगण्यता के दंश से भरी ऐसी कहानी काफ़्का ही लिख सकता था।
 
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आज सुबह मैं "टाइम्स ऑफ़ इंडिया" का "एडिटोरियल" पढ़ रहा था। संपादक महोदय लिख रहे थे कि सरकार ने खुली मंडियों में पशुओं की ख़रीद-फ़रोख़्त पर जो नियामक क़ानून लागू करने की मंशा जताई है, उससे पशु-मांस की "इकोनॉमी" पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। "इकोनॉमी", हम्म्म। सुबह की रोशनी में एक घिनौने घाव की तरह दिपदिपाता हुआ वह शब्द : "हत्या की अर्थव्यवस्था!"
 
मैं कल्पना करने लगा कि संपादक महोदय ने अपने लैपटॉप पर वह संपादकीय लिखने के बाद मुलायम तरीक़े से सुन्न हो चुकी अपनी अंगुलियों के पोरों को किस तरह से सहलाया होगा। ज़िंदगी ऐसे मौक़ों पर कितनी ख़ूबसूरत, कितनी आरामदेह मालूम होती है, जब आप "नृशंसता की अर्थव्यवस्था" के बारे में लेख लिख रहे होते हैं!
 
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वर्ष 1931 में जर्मनी में नाज़ी हुक़ूमत सत्ता में आई थी। 1933 में डकाऊ में पहला यंत्रणा शिविर संचालित होने लगा था। 1945 तक ऑश्वित्ज़, ट्रेबलिंका, बुख़ेनवॉल्ड सहित बीसियों यंत्रणा शिविर नाज़ी जर्मनी के आधिपत्य वाली धरती पर संचालित हो रहे थे। इन शिविरों का इकलौता मक़सद यहूदियों को प्रताड़ित करना और उनकी हत्या करना था। लेकिन ये शिविर नाज़ी जर्मनी की "इकोनॉमी" का आधार भी थे। "फ़ोर्स्ड लेबर" के तहत मारे जाने से पूर्व इन बंधक यहूदियों से ख़ूब काम लिया जाता था। बड़े पैमाने पर कर्मचारी इन शिविरों में ड्यूटी पर तैनात थे। उन्हें क़त्ल की संगीन कार्रवाइयों के लिए तनख़्वाहें मिलती थीं।
 
जिन नाज़ी यंत्रणा शिविरों को मनुष्यता के माथे पर कलंक माना जाता है, महोदय, उनकी भी एक "इकोनॉमी" थी! "ह्यूमन ट्रैफ़िकिंग" की भी एक "इकोनॉमी" होती है। "देह व्यापार" तो "व्यापार" ही है। ऐसा कोई अपराध नहीं है, जिसके पीछे "माफ़िया" ना हो, "इकोनॉमी" ना हो। "टाइम्स ऑफ़ इंडिया" के प्रबुद्ध एडिटर महोदय, अपने अगले संपादकीय में कृपया यह थ्योरी भी लिखिए ना कि हर वो चीज़, जो पूंजी का निर्माण करती है, उसे बदस्तूर जारी रखा जाए। और इसी के साथ हम सभ्यताओं के विकासक्रम को भी निरस्त कर देंगे।
 
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मैं कृषि, पर्यावरण, जैविकी, आर्थ‍िकी किसी भी क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं हूं। मेरे पास सच में इसका कोई जवाब नहीं है कि "इंडस्ट्री ऑफ़ स्लॉटर" के समाप्त होने का "इकोनॉमी" पर क्या असर पड़ेगा। कि जिन मवेशियों को नहीं मारा जाएगा, उनकी तादाद का क्या किया जाए? कि इसका "कैश क्रॉप्स" पर क्या दबाव पड़ेगा। कि इसका "प्रोटीन" की प्राप्ति पर क्या असर पड़ेगा। मुझे सच में नहीं मालूम। किंतु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि आप किसी पशु को एक टांग पर हुक से लटकाकर उसकी गर्दन नहीं रेत सकते, ना भोजन के लिए, ना धर्म के लिए, ना अर्थव्यवस्था के लिए।
 
आप तब तक यह नहीं कर सकते, जब तक कि आप स्वयं इसके लिए तैयार ना हों। और इसके लिए कभी कोई तैयार नहीं हो सकता। जीवेषणा इस सृष्टि का सबसे पुराना, सबसे मूलभूत नियम है। और स्प‍िनोज़ा ने कहा था कि दुनिया की सभी चीज़ें हमेशा वही रहना चाहती हैं, जो कि वे हैं। पत्थर हमेशा पत्थर बना रहना चाहता है। बाघ हमेशा बाघ बना रहना चाहता है। और गायें अनंतकाल तक घास पर चलते रहना चाहती हैं!
 
मैं नहीं चाहता कि कल्वीनो की "फ़ंतासी" की तरह पशु मनुष्यों को शहरों से बाहर खदेड़ दें, क्योंकि वह एक "अनैतिक" कल्पना होगी। मैं चाहता हूं कि काफ़्का की तरह हम उन "अभिशप्त" कल्पनाओं के भीतर पैठ बनाएं, जो पशुओं के "सामूहिक अवचेतन" का हिस्सा हैं।
 
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केरल में गाय काटी गई या सुअर, दिनदहाड़े काटी गई या अंधेरे में, सबके सामने काटी गई या सबकी नज़रों से परे, इनमें से किसी भी बात का अंत में महत्व नहीं है। महत्व केवल इस बात का है कि एक प्राणी को जीवन के उसके अधिकार से वंचित किया गया है। और जब तक यह होता रहेगा, तब तक, मेरी दृष्ट‍ि में, न्याय, समानता, करुणा, नागरिकता और सभ्यता जैसे तमाम मूल्य ना केवल "स्थगित" हैं, बल्कि वे "असंभव" हैं। और इंसानियत, वो एक भद्दी अफ़वाह है, इसके सिवा कुछ नहीं। इंसानियत क़त्लख़ानों में लोहे के हुक पर टंगी एक प्राणहीन खोखल है, और कुछ नहीं!

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