निःशब्द सदा, गंगा बहती हो क्यूं?
हे प्राणदायिनी गंगे! जानती हो, ये जो तुम्हारी गोद में शव तैर रहे हैं न, ये अकाल मौत के मारे हैं। उम्र, जाति, लिंग भेद से परे, मानवों के कुकृत्यों का दण्ड बेमुलायजा प्रकृति दिए जा रही है.... अब तो तुम भी चपेट में आ गईं। इतना कुछ देखती हो अनाचार, भ्रष्टाचार फिर भी चुपचाप सहे जा रही हो? नैतिकता नष्ट हुई, अस्पतालों में और पुरुष महिला मरीजों के साथ हुए दुष्कर्मों को कैसे भुलाएं? मानवता भ्रष्ट हुई,एक एक सांस के लिए लड़ता इंसान कीमतों में बिक रहा है।कहीं सुनवाई नहीं। फिर भी कैसे अनमने भाव से तुम बहती जा रही हो?
तुम्हारे लिए तो महाभारत के अनुशासन पर्व, २६/४९ में वेदव्यास ने कहा है-
“दर्शनात् स्पर्शनात् पानात्, तथा गंगेति कीर्तनात्.
पुनात्यपुण्यान् पुरुशांछतशोsथ सहस्रशः.
अर्थात- दर्शन से, जलपान करने से, नाम कीर्तन से सैंकड़ों तथा हजारों पापियों को गंगा पवित्र कर देती है....
हे मोक्षदायिनी! पर ये शव तो पापियों के मारे भी हो सकते हैं न? निर्दोष।अकाल मौत। इतिहास की पुकार है, हुंकार भरती हुई जैसे तुम धरती की ओर बढीं थीं उसी गर्जना से बढ़ो न। नाश करो इन दुर्जनों का. हे गंगधार! निर्बल जन को सबल-संग्रामी, समग्रोगामी बनाती नहीं हो क्यूँ ?
तुलसी दास जी ने भी तो तुम्हारे लिए कहा है-
गंग सकल मुद मंगल मूला.
सब सुख करनि हरनि सब सूला. (रामचरित मानस,२/८७/२)
अनपढ़ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन, खाद्यविहीन हो रहे और तुम नेत्रविहीन दिक्षमौन क्यूँ हो?
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को शक्ति क्यों नहीं देती?
हे जाह्नवी! नारद पुराण में तो तुम्हारे लिए कहा है-
“गंगे तु हरेत्तोयं पापमा मरणांतिकम्.” (उत्तर भाग, ३८/२५)
अर्थात्- गंगाजल सेवन करने पर आमरण किये हुए पापों को हर लेता है...पर यहां तो घाट पटे पड़े हैं मां! हे भागीरथी! भागीरथ के कठिनतम तपस्या के परिणामों से तुम हम बच्चों की कृपा दायिनी बनीं...तुम्हें सम्हालने त्रिलोक स्वामी भोले शंभू को स्वयं अपनी जटाओं को खोलना पड़ा। वही तुम्हें, तुम्हारे प्रचंड वेग को सम्हाल सका। कहां गई मां वो शक्ति, वो प्रवाह, वो वेग। लाओ मां जागो...धरती तुम्हें पुकारती, यहां व्यक्ति, व्यक्ति केंद्रित हो रहे.... सकल समाज व्यक्तित्व रहित हो चला है। ऐसे निष्प्राण समाज को छोड़ती क्यूँ नहीं देतीं फिर? क्यूँ न रुदस्विनी हो रहीं? तुम निश्चय चित्त क्यों नहीं हो रहीं? हे प्राणों में प्रेरणा देने वाली तुम तो भारत के प्राण हो, शोभा हो, वरंच सर्वस्व हो....
हे उन्मद अवमी, कुरुक्षेत्रग्रमी, निराशों की आशा, गंगे जननी, वरदानों की देवी, पवित्रता की स्रोत,तुम्हारे निकट आने मात्र से तुम्हारी पवित्रता पर विश्वास हो आता, सृष्टि में ऐसा कोई नहीं जिस पर तुम्हारे व्यक्तित्व का जादू न चला हो। नव भारत में लाशों के ढेर तुम्हारी गोद में तैर रहे हैं। उन अभागों को अंतिम क्रिया-कर्म भी नसीब नहीं हुए हैं।
अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए ये तेरे बालक समाज के द्वेष, स्वार्थ, लालच के दुष्परिणामों के शिकार हैं। उन पापियों का कर्म हैं जो धरती पर असुर आत्मा के साथ मानुसदेह धारण किये हैं। हे विष्णुपदी! भीष्मरूपी सुतसमरजयी जनती क्यों नहीं?
जवाहर लाल नेहरु (21जून1954 की वसीयत) का कहना था- गंगा तो विशेष कर भारत की नदी है, जनता की प्रिय है, जिससे लिपटी हुईं हैं भारत की जातीय स्मृतियां, उनकी आशाएं और उसके भय, उसके विजय गान, उसकी विजय और पराजय! गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता का प्रतीक रही है, निशानी रही है, सदा बलवती, सदा बहती, फिर वही गंगा की गंगा....
दुर्भाग्य से अब बदल गई है ये सुरसरिता, विपथगा जो हमारे दुष्कर्मों से मोक्षदायिनी से शव वाहिनीमें बदल गई। हे मन्दाकिनी! पाप नाशिनी! दया करो...हम तुम्हारी मर्यादा की रक्षा नहीं कर पाए हमें माफ़ करो.... हे अमृता! अज्ञानियों ने तुम्हें विषैला व मैला कर डाला.... फिर भी तुम माफ़ करोगी...अटल विश्वास है...क्योंकि तुम मां हो...गंगा मां...केवल पवित्र हृदय मां...