पश्चिमी देशों की तथाकथित आधुनिकता ने बीसवीं शताब्दी में सारे विश्व को दूर तक प्रभावित किया और समाज की शासन-व्यवस्था के लिए राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र का नया विचार दिया।
यद्यपि भारत सहित अनेक देशों में गणतांत्रिक व्यवस्था प्राचीन एवं मध्यकालीन राज्यों में भी सफलतापूर्वक संचालित होती रही है, महाराष्ट्र में अष्टप्रधान का व्यवस्थापन इसी जनतांत्रिक शक्ति का भिन्न स्वरूप प्रकट करता है किंतु संपूर्ण देश में निर्वाचन के माध्यम से राजनीतिक दलों की आंतरिक संरचना और संपूर्ण राष्ट्र की व्यापक व्यवस्था का नया लोकतांत्रिक स्वरूप निश्चय ही पश्चिम के आधुनिक चिंतन की देन है।
ब्रिटिश दासता का शिकार रहे विश्व के अनेक देशों ने उसके उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने पर उसके द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप को अपनी परिस्थितियों पर विचार किए बिना स्वीकार कर लिया।
यूरोप के ठंडे देशों के लिए उपयुक्त कंबल भारतवर्ष की गर्म जलवायु में भी आधुनिकता के नाम पर ओढ़ लिया गया और आज पसीने से तरबतर हो कर भी हमारे नेतागण उसे उतारने तथा भारतीय जनहित के अनुरूप उसे नया स्वरूप देने, परिवर्तित-परिष्कृत करने के लिए उद्यत नहीं हैं क्योंकि विगत सात दशकों से स्थापित लोकतंत्र के इसी आवरण में उन्हें अपनी राजतंत्रीय सामंतवादी दुरभिलाषाओं की पूर्ति सुरक्षित दिखाई देती है।
वंशवाद, परिवारवाद और अपार भ्रष्टाचार करने के बाद भी राजनीति में सक्रिय रहना और पुनः सत्ता में आने का सपना साकार कर पाना इसी लोकतांत्रिक-व्यवस्था में संभव है, जहां विधायिका अपनी सुविधा के लिए कार्यपालिका पर दबाव बनाए रखती है और कभी-कभी न्यायपालिका का भी मनमाना उपयोग कर लेती है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल के अठारह महीने इस कड़वे सच के साक्षी हैं।
आज का अनेक समूहों में बंटा, अशांत और परस्पर संघर्षरत भारत लोकतंत्र के खोल में पल रही सामंतवादी दूषित मानसिकता का ही दुष्परिणाम है।
लोकतंत्र निश्चय ही समाज के लिए अत्यंत उत्तम व्यवस्था है। यह राजतंत्र और सामंतवाद के अनेक दोषों से स्वतः मुक्त है और समाज के प्रत्येक व्यक्ति को विकास का अधिकतम अवसर देने का शुभ प्रयत्न है किंतु इस व्यवस्था का क्रियान्वयन गंभीर आत्मानुशासन की अपेक्षा करता है।
यह आत्मानुशासन लोकतंत्र के दोनों घटक-- नेता और जनता - दोनों के स्तर पर अनिवार्य है। इसके अभाव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था किस प्रकार भ्रष्ट होकर अपना अर्थ खोने लगती है इसके भयावह साक्ष्य आज पग-पग पर दिखाई देते हैं।
कहीं एक दल दूसरे दल पर बिना प्रमाण के कीचड़ उछालता रहता है तो कहीं सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के रास्ते रोके जा रहे हैं। जन-आंदोलनों और प्रदर्शनों के नाम पर अराजकता, उद्दंडता और राष्ट्रध्वज के असम्मान का जो दुखद दृश्य पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर दिल्ली में लाल किले पर दिखाई दिया। वह अभी दूर की बात नहीं।
राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतली बने तथाकथित आंदोलनकारी समूहों की हिंसक उग्रता और निर्दोष-निहत्थे आंदोलनकारियों पर शासन में बैठे लोगों के इशारे पर पुलिस प्रशासन की क्रूरता-- दोनों ही लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
लोकतंत्र जनता की सेवा का स्वचयनित पथ है किंतु जब इस पथ का पथिक जनहित की व्यापक साधना छोड़कर उसे अपनी महत्वाकांक्षाओं और दुरभिलाषाओं के लिए व्यावसायिक रूप देने लगता है तब लोकतंत्र के अमृत को विष में बदलते देर नहीं लगती।
दुर्भाग्य से भारतीय नेतृत्व स्वाधीनता प्राप्ति के समय से ही देशहित पर दलीय हितों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को वरीयता देता रहा है। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल ने स्वयं को निरंतर सत्ता में बनाए रखने के लिए जनता को वोट बैंक में बांटने की जो कुटिल चाल चली उसने अन्य दलों को भी इतना अधिक आकर्षित किया कि आज सारा देश धर्म, जाति, वर्ग, भाषा आदि समूहों में ही नहीं अपितु राजनीतिक दलों के संकीर्ण शिविरों में भी बंट कर रह गया है।
राजनीतिक दल निर्वाचन के समय निर्वाचन क्षेत्रों के धर्म-जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर टिकट बांटते हैं और जनता प्रत्याशी की योग्यता, क्षमता, सेवा-भावना आदि अनिवार्य विशेषताओं की अनदेखी करके जाति और धर्म को देखकर मतदान करती है।
यहां तक कि प्रायः अपराधियों को भी निर्वाचित करके सत्ता में बिठा देती है। उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने तो हाल ही में संपन्न होने जा रहे विधानसभा चुनावों में विजयी होने पर जातिगत जनगणना कराने का वायदा तक किया है।
लोकतंत्र के नाम पर विकसित इस जातितंत्र द्वारा निर्वाचित नेता भी अपने जातिगत वोट बैंक की संतुष्टि और पुष्टि को समर्पित होकर रह जाते हैं। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का जाति अथवा वर्ग प्रतिनिधि बन कर रह जाना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है।
आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पंचवर्षीय योजनाओं की तरह सत्ता का सामाजिक अनुष्ठान बनकर रह गई है, जिसमें पांच वर्ष तक सत्ता के साथ रहकर सत्तासुख भोगने के उपरांत व्यक्तिगत लाभ-लोभ की सिद्धि के लिए निर्वाचन से पूर्व अन्य दलों में जाने की खुली छूट नेताओं को प्राप्त है।
न कोई आदर्श, न कोई सिद्धांत और न ही कोई सामाजिक उत्तरदायित्व। जब जहां व्यक्तिगत लाभ दिखाई दे तब वहां फिट हो जाना और फिर नए दल के साथ सत्तासुख भोगना किसी नेता के लिए व्यक्तिगत लाभ का सौदा हो सकता है किंतु ऐसी स्वार्थी मानसिकता जनता और लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में नहीं कही जा सकती।
यदि एक दल छोड़कर दूसरे दल में आने वाले नेता के लिए और उसके परिवार के लिए आगामी दस वर्ष तक नए दल का साधारण सदस्य बनकर केवल सेवाकार्य करने की कोई अनिवार्यता नवीन संवैधानिक संशोधन द्वारा अस्तित्व में लाई जाए तो दलबदल की इस दुर्नीति से मुक्ति संभव है।
लोकतंत्र में निर्वाचित नेता संपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधि होता है, होना चाहिए, किंतु हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने के उपरांत अपने दल के समर्थकों और धर्म-जातिगत समूहों की सीमित स्वार्थपूर्ति के साधन बनकर रह जाते हैं। विभिन्न समूहों, जातियों और वर्गों की यह संकीर्णता जनहित की समग्रता का पथ बाधित करती है। आज राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर कितने ही राजनीतिक दलों के नेताओं की छवि उनके जाति-वर्ग से चिपक कर रह गई है।
प्रश्न यह उठता है कि ये अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्त जनता के नेता हैं अथवा अपनी जाति और दल के? यदि ये केवल अपने जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा वर्ग विशेष के हितों के लिए ही आवाज उठाते हैं तो इनका राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तरीय राजनीति में क्या महत्व है? देश का संविधान अनेकता में एकता का शंखनाद करता हुआ
जनकल्याण की व्यापक समग्रता के लिए नेतृत्व का आवाहन करता है, उसे शपथ दिलाता है किंतु वही नेतृत्व जब अपने प्रांत के लिए विशेष दर्जा मांगने लगता है, अपनी जाति या वर्ग के लिए विशेष सुविधा-साधन प्राप्त करने के लिए अड़ जाता है तब उससे जनता के अन्य वर्गों-समूहों के कल्याण की आशा समाप्त हो जाती है, सामाजिक न्याय का स्वप्न पीछे छूट जाता है और वर्ग के हित आगे आ जाते हैं।
क्या भारतीय लोकतंत्र में ऐसी वर्गीय-जातीय संकीर्णता के लिए कोई स्थान है? यदि नहीं, तो जनता को समग्रता में न देखने वाले ऐसे नेताओं के लिए हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थान क्यों है? उन्हें सत्ता में आने के लिए विशेष वर्गों से लोकलुभावन वादे करने और सत्ता में बैठकर उन समूहों को विशेष सुविधाएं देने तथा निशुल्क उपहार बांटने के असीमित अधिकार क्यों है?
जब नेता संपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधि है तो उस क्षेत्र के प्रत्येक नागरिक, प्रत्येक वर्ग समूह को समान सुविधा और सुरक्षा प्रदान करना उसका नैतिक दायित्व है। नेतृत्व में उदारता के स्थान पर ऐसी संकीर्णता और सीमितता निश्चय ही लोकतांत्रिक मूल्यों की खुली अवमानना है।
हमारे देश में सक्रिय राजनीतिक दलों में प्रारंभ से ही आंतरिक लोकतंत्र का अभाव रहा है। स्वतंत्रता से पूर्व के राजनीतिक परिदृश्य में सुभाषचंद्र बोस और सरदार बल्लभभाई पटेल के संदर्भ में कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व ने जो व्यवहार किया वह सर्वविदित है।
उस समय की कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों द्वारा बहुमत से लिए गए निर्णय का महात्मा गांधी द्वारा प्रभावित और परिवर्तित कर दिया जाना दल की दुर्बल लोकतांत्रिक स्थिति स्पष्ट करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गठित अन्य दलों में भी आंतरिक लोकतंत्र की झलक तक नहीं मिलती।
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और वंशवाद के मोह ने अधिकांश राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र निगल लिया है। प्रायः प्रत्येक दल में शक्ति एक-दो व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित दिखाई देती है। दल के सदस्यों को अपनी बात रखने तक की छूट नहीं मिलती। राजनीतिक दलों में टूट-फूट का यह भी एक बड़ा कारण है।
इन अलोकतांत्रिक स्थितियों में यह विचारणीय हो जाता है कि जो शीर्ष नेतृत्व अपने दल के सीमित स्तर पर लोकतांत्रिक-व्यवस्था का सफल क्रियान्वयन नहीं कर सकते उनसे इतने विशाल देश की बहुरंगी परिस्थितियों में लोकतांत्रिक मूल्यों के सार्थक निर्वाह की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
सत्ता में बैठकर अपने समर्थकों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना, जनता की गाढ़ी कमाई से उन्हें लाखों रुपए के पुरस्कार देना, अपराधी और भ्रष्टाचारी होने पर भी उनके विरुद्ध न्यायिक-प्रक्रिया को टालना लोकतंत्र के वटवृक्ष की जड़ें खोखली करना है।
आजादी के अरुणोदय काल में देश की राजनीति ने सत्ता में सतत बने रहने के लिए जो बबूल बोए थे वे ही बड़े होकर अब लोकतंत्र की देह को बुरी तरह लहूलुहान कर रहे हैं। जब तक राजनीति के राजपथ से अपराध के कांटे-कंकर दूर नहीं होंगे तब तक लोकतांत्रिक मूल्यों की जनहित यात्रा निरापद नहीं हो सकती।
लोकतंत्र में सत्ता सामाजिक सुख-संवर्धन का सर्वाधिक प्रभावी माध्यम है, निजी भोग-विलास का संसाधन नहीं है, निजी पारिवारिक संपत्ति भी नहीं है, जिसे विरासत में अपने वंशजों को सौंप दिया जाए।
लोकतांत्रिक सत्ता त्याग और सेवा का वह दुर्गम-पथ है जिस पर उदार भाव से सारे समाज की कल्याण-कल्पना लेकर हमारे नेताओं को राजनीति में उतरना होगा, उन्हें समस्त निजी हितों को तिलांजलि देकर सारे समाज की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए स्वयं को निस्वार्थ भाव से समर्पित करना होगा तथा जनता को अपने बीच से ऐसे समर्थ नेतृत्व को तलाशना और चुनना होगा तब ही हमारे लोकतंत्र को सार्थकता मिल सकती है।
अन्यथा सीटों के जटिल गणित में उलझी अपराधी और स्वार्थी नेताओं से घिरी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था हमें असहिष्णुता, अराजकता तथा आंतरिक हिंसक-संघर्ष के गर्त में धकेल देगी। समय रहते अपने लोकतंत्र में सुधार कर उसे सही दिशा देना हमारा दायित्व है और इसी दायित्व की पूर्ति में व्यापक देशहित भी सन्निहित है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यक्ति से दल बड़ा है और दल से देश बड़ा है-- यह तथ्य नेताओं को भी समझना होगा तथा जनता को भी। जब तक नेता और जनता दोनों इस सत्य को सच्चे मन से स्वीकार नहीं करते, तब तक हमारी लोकतांत्रिक यात्रा, सुरक्षित और सुखद नहीं हो सकती। यही समझ राजनेताओं की दलबदल और जनता की जातीय मानसिकता को नियंत्रित कर लोकतंत्र को रचनात्मक दिशा दे सकती है।
सार्वजनिक जीवन में नेतृत्व की निष्पक्षता, आचरण की शुचिता तथा तप-त्याग पूर्ण मानसिकता युक्त उत्कट राष्ट्रीयता के साथ जनता की निर्लोंभ जागरूकता ही अब हमारे लोकतंत्र के अमृत-कलश में घुल रहे विष को रोक सकते हैं। साथ ही जन-मन के उचित निर्देशन के लिए निष्पक्ष और निर्भय पत्रकारिता का सक्रिय सहयोग भी अपेक्षित है।
लेखक शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय होशंगाबाद में हिन्दी के विभागाध्यक्ष हैं।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)