Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

भारतीय उच्चारणों का विकृतिकरण अब तो बंद हो

हमें फॉलो करें Hindi
webdunia

स्वरांगी साने

हाल ही में रशिया में मराठी के वीर रस के दिग्गज कवि अण्णाभाऊ साठे के तैलचित्र के अनावरण के अवसर पर भारतीय राष्ट्रगीत गाया गया तो उसमें ‘ळ’ का उच्चारण ओडिशा राज्य के मूल नाम उत्कळ के इसी उच्चारण से किया गया, उत्कल नहीं। हिंदी की खड़ी बोलियों में भी यह अक्षर है, जिसे अमूमन मराठी भाषा का मान लिया जाता है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ‘ळ’ देवनागरी में भी स्वीकृत है।

महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने गत दिनों मॉस्को में लोक शाहिर के नाम से जाने जाते मराठी के दलित लेखक अण्णा भाऊ साठे के तैलचित्र का अनावरण किया, जिसे ऑल रूस स्टेट लाइब्रेरी फ़ॉर लिटरेचर में लगाया गया है। भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर भारत-रूस संबंधों का उत्सव इस आयोजन के माध्यम से मनाया गया। अण्णाभाऊ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सदस्य और भारत के उन चुनिंदा लेखकों में शामिल हैं, जिनके लेखन का रूसी भाषा में अनुवाद हुआ है। केंद्र सरकार ने मॉस्को स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास में साठे के तेल चित्र को लगा रूस और भारत के बीच सांस्कृतिक संवाद को बढ़ाने की कोशिश की है।

सांस्कृतिक संवाद केवल दो देशों के बीच ही नहीं, दो भाषाओं के बीच भी बढ़ना चाहिए और उसके लिए सबको प्रयास करना चाहिए। जिस तरह से पहली बार ‘ळ’ का गान हुआ उससे कई लोगों को ख़ुशी मिली तो कइयों की भवें तन गईं और इसे प्रांतीयता का जामा पहनाने की कोशिश की जाने लगी। हिंदी की किसी बोली या वैदिक संस्कृत के किसी शब्द को लिखने में भी इस अक्षर का प्रयोग देखा जा सकता है।

इसका उच्चारण कइयों के लिए कठिन होता है लेकिन यदि आप ड़ का उच्चारण कर पाते हैं, तो इसे भी उच्चारित कर सकते हैं। ड़ के उच्चारण में मूर्धा को बिना जिह्वा का स्पर्श करते हुए कहिए तो वही ‘ळ’ हो जाएगा। हिंदुस्तानी समूह की भाषाएँ बोलने वाले सभी लोग इसका उच्चारण कर सकते हैं।

सन् 1867 में जब देवनागरी को स्वीकार किया गया था, उसी समय ‘ळ’ को भी स्वीकृति मिल गई थी। सन् 1983 की हिंदी निदेशालय की वर्णमाला तक यह मूल वर्णावली में था, लेकिन उसके बाद शनैः शनैः यह गायब हो गया। यह कैसे, क्यों हुआ वह चर्चा का अलग विषय हो सकता है। सन् 2020 की परिवर्धित देवनागरी में यह फिर शामिल कर लिया गया और जैसे अब सामूहिक तौर पर इसे किसी अधिकृत मंच से स्वीकारा गया है। परिवर्धित देवनागरी का उद्देश्य यही है कि राजभाषा में अन्य भाषाओं के विशेष नाम जिन्हें व्यक्ति और स्थान वाचक संज्ञाएं कहते हैं, लिखते समय विशिष्ट चिह्नों का प्रयोग करके विकृतिकरण को टाला जाए। टिळक जैसे व्यक्तिवाचक संज्ञा है, इसलिए परिवर्धित देवनागरी के प्रयोग से इसे ऐसे ही लिखा जाए तिलक नहीं।

हिंदी में मूर्धन्य ध्वनि ट, ठ, ड, ढ, ण होने के बावज़ूद टिळक का ‘ट’, ‘त’ हो जाता है और ठाणे का ‘ठ’, ‘थ’ या लोणावळा का ‘ण’, ‘न’, ऐसा क्यों? पुणे के रावेत निवासी प्रकाश निर्मळ (निर्मल नहीं) इसे एक मुहिम की तरह चलाते हुए कहते हैं कि लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक का सही नाम दुनिया को बताने का यही सही समय है। आंबेडकर को अंबेडकर मत लिखिए, होळकर को होलकर, माळवा को मालवा और तेंडुलकर को तेंदुलकर मत लिखिए। भारतीय उच्चारणों का विकृतिकरण बंद कीजिए।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

सुबह खाली पेट काली चाय के फायदे ज्यादा हैं, नुकसान कम