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एक देश एक चुनाव की राह आसान नहीं

हमें फॉलो करें एक देश एक चुनाव की राह आसान नहीं
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देवेंद्रराज सुथार

हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित कर 'एक देश एक चुनाव' की व्यवस्था को लागू करने का आह्वान किया। वे देश का विकास तेजी से करने और लोगों को इससे लाभान्वित करने के लिए ऐसा जरूरी मानते हैं।
 
इसमें कोई दोराय नहीं है कि एकसाथ चुनाव होने में फायदे हैं। हर वर्ष चुनाव होना खर्च और समय दोनों की बर्बादी है, वहीं बार-बार चुनाव की तारीखें तय होते ही लागू आदर्श आचार संहिता के कारण सरकारें नए विकास कार्यक्रमों की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाती हैं।
 
बार-बार होने वाले चुनावों के कारण राजनीतिक दलों द्वारा एक के बाद एक लोक-लुभावन वादे किए जाते हैं जिससे अस्थिरता तो बढ़ती ही है, साथ ही देश का आर्थिक विकास भी प्रभावित होता है। एक के बाद एक होने वाले चुनावों से आवश्यक सेवाओं की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। लगातार जारी चुनावी रैलियों के कारण यातायात से संबंधित समस्याएं पैदा होती हैं। साथ ही साथ मानव संसाधन की उत्पादकता में भी कमी आती है।
 
अगर हमारा देश 'एक देश, एक चुनाव' की ओर बढ़ता है तो कहीं-न-कहीं इससे राजनीतिक दलों के खर्च पर नियंत्रण तथा चुनाव में कालाधन खपाने जैसी समस्याओं पर भी लगाम लगेगी। सामान्य हित के विकास के काम और सरकारी स्कूलों के पढ़ाई तथा प्रशासनिक काम पर असर भी कम पड़ेगा।
 
देश में एक या एक से अधिक राज्यों में होने वाले चुनावों में यदि स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल कर दिया जाए तो ऐसा कोई भी साल नहीं होगा जिसमें कोई चुनाव न हुआ हो। बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों को भी चुनाव कार्य में लगाना पड़ता है जबकि देश की सीमाएं संवेदनशील बनी हुई हैं और आतंकवाद का खतरा बढ़ गया है।
 
विदित हो कि वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव पर 1,100 करोड़ रुपए खर्च हुए और वर्ष 2014 में यह खर्च बढ़कर 4,000 करोड़ रुपए हो गया। पूरे 5 साल में एक बार चुनाव के आयोजन से सरकारी खजाने पर आरोपित बेवजह का दबाव कम होगा।
 
कर्मचारियों के प्राथमिक दायित्वों का निर्वहन बार-बार चुनाव कराने से शिक्षा क्षेत्र के साथ-साथ अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के काम-काज प्रभावित होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित 1 करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हैं। 'एक देश, एक चुनाव' के कारण चुनावों में होने वाले कालेधन के प्रवाह पर अंकुश लगेगा। सांसदों और विधायकों का कार्यकाल एक ही होने के कारण उनके बीच समन्वय बढ़ेगा।
 
लेकिन, यहां यह बताना भी आवश्यक है कि विधानसभा, लोकसभा के साथ ही नगर और ग्राम पंचायतों के चुनाव भी एकसाथ होने की बात है। अब थोड़ा संविधान को भी समझ लें। जब चुनाव होते हैं तो आचार संहिता लगती है जिसमें विकास संबंधित सभी घोषणाएं रुक जाती हैं। केवल आवश्यक प्रशासनिक फेरबदल ही चुनाव आयोग से अनुमति लेकर किया जा सकता है।
 
संविधान में 2 सदनों का प्रावधान है। लोकसभा में 5 वर्ष पर चुनाव होता है और राज्यसभा का 2 वर्षों में चुनाव होता है। इसी प्रकार कई राज्यों में भी 2 सदन हैं- विधानसभा और विधान परिषद। विधानसभा में 5 और विधान परिषद में हर 2 वर्ष पर चुनाव होता है। तो सबसे पहला पेंच यही फंसता है कि सब चुनाव एकसाथ कैसे होंगे?
 
अब लोकसभा, विधानसभा, नगर और ग्राम पंचायतों को लें। 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ ही होते थे, परंतु कुछ राज्यों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने से संविद सरकारों का गठन हुआ और मतभेद होने के कारण वे सरकारें गिर गईं और दूसरा पक्ष सरकार न बना पाने की स्थिति में हो गया इसलिए राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। चूंकि राष्ट्रपति शासन 6 माह और अधिक से अधिक 1 वर्ष तक लगता है अत: मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।
 
इसी प्रकार केंद्र में यह समस्या सबसे पहले 1977 में हुई, जहां जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और मतभेद के कारण उसे मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि केंद्र में राष्ट्रपति शासन का कोई प्रावधान नहीं है।
 
केंद्र में भी लोकसभा का मध्यावधि चुनाव कुल 4 बार हुआ। 1977, 1989, 1996 और 1998 की गठित लोकसभा को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा लगभग 3,500 हजार करोड़ रु. का व्यय किया गया इसलिए एक भारी-भरकम धनराशि भी इसमें संलिप्त है।
 
प्रश्न यह है कि अगर सब चुनाव एक बार एकसाथ करा भी दिए जाएं तो मध्यावधि चुनाव कैसे रुकेंगे? कैसे विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को रोका जा सकता है? अगर यह रुका तो लोकतंत्र की मूल भावना पर ही प्रहार होगा।
 
अगर इसके विपरीत बात की जाए तो विपक्ष इसकी संसदीय परंपराओं, संवैधानिक प्रावधानों और व्यावहारिकता पर सवाल खड़ा कर रहा है, जो कहीं-न-कहीं सही भी है। और बात जहां तक इसे लागू कराने की है तो हमारे देश में बहुदलीय प्रणाली है तथा आम सहमति के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते और फिलहाल सहमति जैसा कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा।
 
एकसाथ चुनाव कराने वाले अनुच्छेद 83, संसदीय सत्र को स्थगित और खत्म करने वाले अनुच्छेद 85 में बदलाव तथा विधानसभा का कार्यकाल निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 172 और विधानसभा स्थगित और खत्म करने वाले अनुच्छेद 174 में संशोधन कराना महत्वपूर्ण होगा। साथ ही, राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने वाले अनुच्छेद 356 में बदलाव जरूरी होगा।
 
और इन तमाम छोटे-बड़े संशोधन के लिए सदन में दो-तिहाई बहुमत की भी आवश्यकता पड़ेगी। इसके अलावा केंद्र एवं राज्य सरकारों के चुनाव एकसाथ कराने की स्थिति में कई राज्य सरकारों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही विघटित करना होगा जबकि संविधान में दिए 3 अनुच्छेदों के अलावा ऐसा कोई विकल्प नहीं दिया गया है, जब केंद्र सरकार राज्य सरकारों को भंग करने की अधिकारी हो। इस प्रकार का कोई भी प्रयत्न असंवैधानिक होगा।
 
दूसरी स्थिति, केंद्र सरकार के कार्यकाल के साथ-साथ राज्य सरकार का कार्यकाल पूरा होने की आती है। क्या उस स्थिति में लोकसभा एवं राज्यों के चुनाव एकसाथ कराया जाना उचित है? स्पष्ट रूप से यह कानूनी विषय नहीं है, परंतु इस प्रकार के चुनाव में मतदाता 2 स्तरों पर अपना मत देते हैं। बहुत संभव है कि वे राज्य स्तर के उम्मीदवार को चुनते समय राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्थितियों से प्रभावित होकर अपना मत उसे दे दें जिसे वे न देना चाहते हों।
 
ऐसी स्थिति में जनता के मत के साथ न्याय नहीं हो पाता है। इस प्रकार चुनाव का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। वहीं एकसाथ चुनाव संपन्न कराना पदाधिकारियों की नियुक्ति, ईवीएम की आवश्यकताओं व अन्य सामग्रियों की उपलब्धता के दृष्टिकोण से एक कठिन कार्य है। चुनावों के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को वैकल्पिक रोजगार प्राप्त होता है और एकसाथ चुनाव कराए जाने से बेरोजगारी में वृद्धि होगी।
 
हमारे देश का ढांचा संघीय है। हर राज्य की अपनी अलग पहचान है। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपना पानी है। ऐसे में एकसाथ चुनाव होने पर राज्यों के जो अपने स्थानीय मुद्दे होंगे, वे राजनीतिक विमर्श से गायब हो जाएंगे। राजनीतिक विमर्श केवल राष्ट्रीय मुद्दों के इर्द-गिर्द ही घूमता रह जाएगा, जो कहीं-न-कहीं हमारे संघनात्मक ढांचे पर चोट होगा।
 
आज जहां पंचायत चुनाव को भी मोदी और राहुल की साख से जोड़कर देखा जाता हो, झटकेभर में स्थानीय मुद्दे हाशिये पर चले जाते हो, वैसे में एकसाथ चुनाव कराना तमाम खूबियों के बावजूद मेरे नजरिए से तो उचित नहीं होगा।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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