चुनाव आयोग द्वारा 5 राज्यों उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा के चुनावी कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही आचार संहिता के उल्लंघन के मामले भी तेजी से सामने आने लगे हैं। यहां तक कि अनेक वरिष्ठ नेताओं और राज्यों के मंत्रियों तक पर इसके उल्लंघन के आरोप लगे हैं। जो पार्टी खुद इसका उल्लंघन कर रही है, वही दूसरों पर इसकी धज्जियां उड़ाने का आरोप लगा रही है।
चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन को हल्के में नहीं लेना चाहिए। इसके नीचे शून्यता की स्थिति विडंबना ही कही जाएगी। ऐसी स्थिति में शून्य तो सदैव ही खतरनाक होता ही है, पर यहां तो ऊपर-नीचे शून्य ही शून्य है, कोरा दिखावा है। आरोपियों पर सख्त कार्रवाई के लिए तेजस्वी और खरे प्रशासन का नितांत अभाव है।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर कांग्रेस के चुनाव चिह्न के जरिए लोगों की धार्मिक भावना को भड़काने का आरोप लगा है। राहुल गांधी ने कहा था कि मुझे कांग्रेस का हाथ शिवजी, नानक, बुद्ध और महावीर के हाथों में नजर आता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का मामला दर्ज करने का अनुरोध किया गया है, क्योंकि 12 जनवरी को प्रधानमंत्री ने रामायण दर्शन प्रदर्शनी को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संबोधित किया। इस संबोधन को चुनावी अभियान में बदल देने, उसे धार्मिक रूप प्रदान करने और लोगों को भड़काने के लिए भगवान श्रीराम, अयोध्या, रामराज्य, हनुमानजी और भरत का बार-बार जिक्र किया गया।
बीजेपी विधायक संगीत सोम के खिलाफ मेरठ में चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन और नफरत फैलाने के इल्जाम में केस दर्ज हुआ है। सोम मेरठ की सरधना सीट से बीजेपी उम्मीदवार हैं। उनके ऊपर इल्जाम है कि वे चुनाव प्रचार के दौरान अपनी एक ऐसी वीडियो फिल्म दिखा रहे थे जिसमें मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उनकी गिरफ्तारी के शॉट्स, दंगों के इल्जाम में उन पर लगे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) हटाने के लिए हुई महापंचायत के शॉट्स और दादरी में अखलाक की हत्या के बाद दिया गया भाषण दिखाया जा रहा था।
चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी आचार संहिता के उल्लंघन के लिए नोटिस जारी किया है। केजरीवाल ने लोगों से कहा था कि कांग्रेस और भाजपा पैसा बांटेगी। लोग नई नकदी स्वीकार कर लें और महंगाई को देखते हुए 5,000 की जगह 10,000 रुपए लें, लेकिन सब लोग वोट 'आप' को ही दें।
चुनाव आयोग ने कहा कि 'आप' नेता का बयान रिश्वत के चुनावी अपराध को उकसाने और उसको बढ़ाने वाला है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अध्यक्ष मायावती ने उत्तरप्रदेश की सत्ता में काबिज होने पर गरीब तबके को नकदी बांटने की घोषणा कर आचार संहिता का उल्लंघन किया है। समाजवादी पार्टी ने भी इसी तरह चुनाव आचार संहिता को धता बताई है।
गौरतलब है कि जब से आचार संहिता लागू हुई, तब से बरेली जिले में सबसे ज्यादा आचार संहिता उल्लंघन के मामले सामने आए हैं। सभी दलों की दौड़ येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना या सत्ता में भागीदारी करना है और इसके लिए वे चुनाव आचार संहिता का बार-बार और कई बार खुली अवमानना कर रहे हैं।
गौरतलब है कि सभी पार्टियों और उनके नेताओं पर चुनाव आचार संहिता के प्रतिकूल आचरण करने के आरोप लगे हैं जिन्होंने भड़काऊ भाषण और प्रलोभन देकर अपनी पार्टी को भी धर्मसंकट में डाल दिया है। इन नेताओं के भाषण और चुनाव प्रचार में बरती जा रहीं धांधलियों को निर्वाचन आयोग ने काफी गंभीरता से लिया है और उन्हें नोटिस भेजा है।
ऐसा लगता है कि हमारे नेताओं को आचार संहिता के पालन की बहुत चिंता नहीं है। वे मतदाताओं को लुभाने के लिए हर तरह के टोटके आजमाने को आतुर हैं। शायद इसीलिए संसद और सड़क की भाषा में फर्क नजर आता है। वही नेता जो सदन में संयत दिखते हैं, सड़क पर आते ही भाषा और तेवर बदल लेते हैं। जनता को भावनात्मक आधार पर गोलबंद करने के लिए आक्रामक रुख अपनाते हैं लेकिन उन्हें इस बात का खयाल नहीं रहता कि वे जिस समाज से वोट मांग रहे हैं उसकी अपनी कुछ मर्यादाएं हैं, वे जिस पद के लिए चुने जाने की आकांक्षा रखते हैं, वह कुछ राष्ट्रीय और संवैधानिक मूल्यों से बंधा है।
अब तक जिन नेताओं को निर्वाचन आयोग ने नोटिस भेजा है, उन्होंने गोलमाल जवाब देकर मामले को टालने की कोशिश की है। धर्म की दुहाई, झूठे आश्वासन, शराब की एक बोतल, कुछ रुपयों का लालच और लाठी का भय- लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव की मर्यादा को धुंधलाते रहे हैं।
दरअसल, आचार संहिता लागू करने के मूल में उद्देश्य बड़ा ही सार्थक है- वह है चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दलों को निष्पक्ष और बराबरी का अवसर प्रदान करना और यह सुनिश्चित करना कि सत्तारूढ़ पार्टी, न तो केंद्र में और न राज्यों में, चुनाव में अनुचित लाभ हासिल करने के लिए अपनी आधिकारिक स्थिति का दुरुपयोग करे। भारतीय चुनाव प्रणाली को सम्यक और सुचारु रूप से चलाने में इसका बड़ा योगदान है।
लेकिन कितनी प्रासंगिक और व्यावहारिक है यह आचार संहिता? क्योंकि नेताओं के भीतर कहीं न कहीं यह भावना रहती है कि निर्वाचन आयोग उनके खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठा सकता। यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट सभी राजनीतिक दलों की सहमति से तैयार किया गया है और इसके पालन का उन्होंने वचन भी दिया है। परंपरा के मुताबिक यह चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही लागू मान लिया जाता है।
सदाचार को कानून से लागू नहीं किया जा सकता और अगर ऐसा किया भी जाता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। बेहतर यह है कि सारे दल दूसरों को नसीहत देने की बजाय खुद मिसाल पेश करें। सभी पार्टियों की यह जवाबदेही है कि वे अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं को आचार संहिता के प्रावधानों से अवगत कराएं और उनके पालन के लिए प्रेरित करें। इसके साथ ही निर्वाचन आयोग को भी चाहिए कि वह इसे लेकर राजनीतिक दलों और जनता में भी जागरूकता फैलाने का प्रयास करे।
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि आचार संहिता लागू होते ही राजनीतिक अनाचार का दौर शुरू हो जाता है। दल-बदल, गाली-गलौज, कालेधन का चुनाव प्रचार में प्रयोग का प्रयास- यह सब धड़ल्ले से होने लगता है। आचार संहिता खर्चे और कानून व्यवस्था पर तो नियंत्रण कर लेती है, पर राजनीतिक और वैयक्तिक आदर्श पर इसका भी बस नहीं चलता।
चुनावों की घोषणा के साथ ही जैसे इंसानी फितरत अपने रंग दिखाने लगती है। सत्ता की भूख में कल के दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं और दोस्त दुश्मन। एक-दूसरे को गाली देने वाले सत्ता की खातिर एक-दूसरे के गले लग जाते हैं। बेटा, पिता को आंख दिखाता है, पिता, बेटे को कोसता है। आपसी संबंध तार-तार होने लगते हैं। जिस पर कभी उसने ही भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी के आरोप लगाए हों, आज वह उसके लिए बेदाग हो जाता है। सब कुछ भुला दिया जाता है। सभी पार्टियों के लिए सिद्धांत, निष्ठा, चरित्र, आदर्श सब ताक पर चले जाते हैं।
चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का- हर चुनाव में आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के अनेक केस दर्ज होते हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि चुनाव खत्म होते ही इस तरह के उल्लंघन के मुकदमे फाइलों में दफन होकर रह जाते हैं। न तो कभी इन मामलों में किसी आरोपी की गिरफ्तारी की बात सुनी गई और न कोई ठोस विवेचना। फिर क्यों चुनाव आचार संहिता का नाटक चलता है?
आपने 'साल' का वृक्ष देखा होगा- काफी ऊंचा! 'साल' का वृक्ष भी देखें- जो जितना ऊंचा है उससे ज्यादा गहरा है। चुनाव आचार संहिता इसी गहराई को मापने का यंत्र बने।