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उत्तरप्रदेश को चाहिए अर्जुन की आंख

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ललि‍त गर्ग

उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे निकट आते जा रहे हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ती जा रही है। प्रांत में चुनाव का माहौल गरमा रहा है। अभी से विभिन्न राजनीतिक दल भावी नेतृत्व के विकल्प की खोज शुरू करें, जो देश के सबसे बड़े प्रांत को सुशासन दे सके। जो पार्टियां सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते हुए अपने को ही विकल्प बता रही हैं, उन्हें उम्मीदवार चयन में सावधानी बरतनी होगी। इसमें नीति और निष्ठा के साथ गहरी जागृति की जरूरत है।


 

 
इधर मतदाता सोच रहा है कि राज्य में नेतृत्व का निर्णय मेरे मत से ही होगा। यही वह वक्त है, जब मतदाता ताकतवर दिखाई देता है? इसी वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक- यही लोकतंत्र का आधार भी है और इसी से लोकतंत्र भी परिलक्षित होता है। अन्यथा लोकतंत्र है कहां?
 
लेकिन मतदाता को भी अपनी जिम्मेदारी एक वफादार चौकीदार के रूप में निभानी होगी। एक समय इस प्रदेश के नेतृत्व ने समूचे राष्ट्र के लिए उदाहरण प्रस्तुत किए थे, लोकतंत्र को सशक्त बनाने में अहम भूमिका निभाई थी, वही नेतृत्व जब तक पुन: प्रतिष्ठित नहीं होगा तब तक मत, मतदाता और मतपेटियां सही परिणाम नहीं दे सकेंगी।
 
आज उत्तरप्रदेश को एक सफल एवं सक्षम नेतृत्व की अपेक्षा है, जो प्रदेश की खुशहाली एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोपरि माने। आज प्रदेश को एक अर्जुन चाहिए, जो मछली की आंख पर निशाने की भांति भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराध, महंगाई, बेरोजगारी आदि समस्याओं पर ही अपनी आंख गड़ाए रखे। शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, कानून व्यवस्था, जन-सुविधाओं के विस्तार के लिए जो निरंतर प्रयासरत हो।
 
युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भले ही अर्जुन की आंख न बन सके हो, पर उनकी इस दिशा में कोशिश को कमतर भी नहीं आंका जा सकता। उनकी छवि बेदाग और ईमानदार मुख्यमंत्री के साथ-साथ विकास-पुरुष के रूप में बनी। भले ही कुछ राजनीतिक दल आरोप लगाते रहे हो कि प्रदेश को साढे़ चार मुख्यमंत्री चला रहे हैं- मुलायमसिंह यादव, शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव एवं आजम खां एवं बाकी आधे खुद अखिलेश।
 
कुछ भी कहा जाए, अखिलेश ने अपनी पारी को अच्छे ढंग से खेला है। अब जबकि राजनीतिक गलियारों में सपा की जीत की कम ही संभावनाएं आंकी जा रही है, वैसे समय में अखिलेश के हौसले किसी भी दृष्टि से कमजोर नजर नहीं आ रहे हैं। वे पूरे विश्वास एवं उम्मीद से भरे हैं। यही कारण है कि उनके प्रयासों में दूरदर्शिता के साथ-साथ कूटनीति के भी दर्शन हो रहे हैं। जो उन्हें जीत की ओर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। चुनावी साल में अखिलेश सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने घोषणा पत्र के उन जटिल वादों को पूरा करने की होगी, जो अब सरकार की नीति और नीयत का प्रश्न बन गए हैं।
 
सपा का यह एक सूझबूझपूर्ण निर्णय ही कहा जाएगा कि आगामी चुनाव के लिए उन्होंने अपनेउम्मीदवारों के नामों की सूची अभी से तय करके उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में काम करने और काम करके वहां से लोगों का दिल जीतने के लिए भेज दिया है। मेरी दृष्टि में इस निर्णय से सपा को बहुत बल मिलेगा।
 
इधर नेताजी ने समय-समय पर सार्वजनिक रूप से अखिलेश सरकार और उनके मंत्रियों को निशाना बनाकर सुशासन एवं पारदर्शिता का पाठ पढ़ाया, यह विपक्ष के हमले को कुंद करने का प्रयास तो था ही, साथ ही राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण पार्टी के भीतर होने वाले घमासान की संभावनाओं पर बहुत होशियारी से नियंत्रण की कोशिश भी कही जा सकती है।
 
सुशासन एवं विकास पर हाईटेक रहे अखिलेश ने पार्टी के मुस्लिम एजेंडे पर खूबसूरती से कायम रहते हुए भी प्रगतिवादी और उदारवादी चेहरा दिखाने में भी संकोच नहीं किया। जड़ता से बाहर निकलकर अखिलेश ने एक संदेश दिया है। इस समय वे अपने कार्यकाल के अंतिम चरण में ‘मिशन-2017’ को लेकर जुटे हैं। इसके लिए उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है पार्टी एवं सरकार की इमेज को सुधारना।
 
लेकिन 4 साल की छवि को 7-8 माह में सुधार पाना टेढ़ी खीर साबित होती दिख रही है। असल में अखिलेश को चुनौती जितनी बाहरी है उससे ज्यादा भीतरी है। इसका उदाहरण दबंग विधायक रामपाल हैं जिन्हें उन्होंने पार्टी से बाहर का रास्ता तो दिखा दिया लेकिन पार्टी के पुरोधाओं के सामने नतमस्तक होकर रामपाल को वापस लेना पड़ा। इस तरह से सपा के एक कदम आगे और दो कदम पीछे के खेल के बड़े नुकसान पार्टी के झेलने पड़ सकते हैं।
 
लंबे दौर से प्रदेश की राजनीति विसंगतियों एवं विषमताओं से ग्रस्त रही है। इन स्थितियों से मुक्त होने के लिए सपा के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक दलों को आने वाले चुनाव में ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे ताकि प्रदेश को ईमानदार और पढ़े-लिखे, योग्य उम्मीदवार के रूप में ‘अर्जुन’ मिल सके। जो भ्रष्टाचारमुक्त शासन के साथ विकास के रास्ते पर चलते हुए राजनीति की विकृतियों से छुटकारा दिला सके। प्रदेश को संपूर्ण क्रांति की नहीं, सतत क्रांति की आवश्यकता है।
 
 

उत्तरप्रदेश के वर्तमान राजनीतिक परिवेश एवं विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों को देखते हुए बड़ा दुखद अहसास होता है कि किसी भी राजनीतिक दल में कोई अर्जुन नजर नहीं आ रहा, जो मछली की आंख पर निशाना लगा सके। कोई युधिष्ठिर नहीं, जो धर्म का पालन करने वाला हो। ऐसा कोई नेता नजर नहीं आ रहा, जो स्वयं को संस्कारों में ढाल मजदूरों की तरह श्रम करने का प्रण ले सके।
 
प्रदेश की राजनीतिक चकाचौंध ने आज सभी को धृतराष्ट्र बना दिया। मूल्यों की आंखों पर पट्टी बांध ये सब एक ऐसी राजनीतिक छांव तले अपनी महत्वाकांक्षा एवं निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए जीवन की भाग्यरेखा तलाशते रहे हैं और उसी की पुनरावृत्ति के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं। सभी राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है और परिवारवाद तथा व्यक्तिवाद छाया पड़ा है।
 
नए-नए नेतृत्व उभर रहे हैं लेकिन सभी ने देश-सेवा के स्थान पर स्व-सेवा में ही एक सुख मान रखा है। आधुनिक युग में नैतिकता जितनी जरूरी मूल्य हो गई है उसके चरितार्थ होने की संभावनाओं को उतना ही कठिन कर दिया गया है।
 
ऐसा लगता है मानो ऐसे तत्व पूरी तरह छा गए हैं जो 'खाओ, पीओ, मौज करो' के सिद्धांत को ही लागू करने के लिए जद्दोजहद करते दिखाई दे रहे हैं। सब कुछ हमारा है। हम ही सभी चीजों के मापदंड हैं। हमें लूटपाट करने का पूरा अधिकार है। हम समाज में, राष्ट्र में, संतुलन व संयम नहीं रहने देंगे। यही आधुनिक सभ्यता का घोषणा पत्र है जिस पर लगता है कि हम सभी ने हस्ताक्षर किए हैं।
 
एक बार पुन: ऐसे ही घोषणा पत्र को लागू करने के लिए महासंग्राम छिड़ रहा है, भला इन स्थितियों के बीच वास्तविक जीत कैसे हासिल हो? आखिर जीत तो हमेशा सत्य की ही होती है और सत्य इन तथाकथित राजनीतिक दलों के पास नहीं है।
 
महाभारत युद्ध में भी तो ऐसा ही परिदृश्य था। कौरवों की तरफ से सेनापति की बागडोर आचार्य द्रोण ने संभाल ली थी। 
 
एक दिन शाम के समय दुर्योधन आचार्य द्रोण पर बड़े क्रोधित होकर बोले- 'गुरुवर कहां गया आपका शौर्य और तेज? अर्जुन तो हमें लगता है समूल नाश कर देगा। आप के तीरों में जंग क्यों लग गई। बात क्या है?’
 
इस पर आचार्य द्रोण ने कहा, ‘‘दुर्योधन मेरी बात ध्यान से सुन। हमारा जीवन इधर ऐश्वर्य में गुजरा है। मैंने गुरुकुल के चलते स्वयं ‘गुरु’ की मर्यादा का हनन किया है। हम सब राग-रंग में व्यस्त रहे हैं। सुविधाभोगी हो गए हैं, पर अर्जुन के साथ वह बात नहीं। उसे लाक्षागृह में जलना पड़ा है, उसकी आंखों के सामने द्रौपदी को नग्न करने का दु:साहस किया गया है, उसे दर-दर भटकना पड़ा है, उसके बेटे को सारे महारथियों ने घेरकर मार डाला है, विराट नगर में उसे नपुंसकों की तरह दिन गुजारने को मजबूर होना पड़ा। अत: उसके बाणों में तेज होगा कि तुम्हारे बाणों में?' यह निर्णय तुम स्वयं कर लो। दुर्योधन वापस चला गया।
 
लगभग यही स्थिति आज के राजनीतिक दलों के सम्मुख खड़ी है। किसी भी राजनीतिक दल के पास आदर्श चेहरा नहीं है, कोई पवित्र एजेंडा नहीं है, किसी के पास बांटने को रोशनी के टुकड़े नहीं हैं, जो नया आलोक दे सकें।
 
आज भी मतदाता विवेक से कम, सहज वृत्ति से ज्यादा परिचालित हो रहा है। इसका अभिप्राय यह है कि मतदाता को लोकतंत्र का प्रशिक्षण बिलकुल नहीं हुआ। सबसे बड़ी जरूरत है कि मतदाता जागे, उसे लोकतंत्र का प्रशिक्षण मिले।
 
हमें किसी पार्टी विशेष का विकल्प नहीं खोजना है। किसी व्यक्ति विशेष का विकल्प नहीं खोजना है। विकल्प तो खोजना है भ्रष्टाचार का, अकुशलता का, प्रदूषण का, भीड़तंत्र का, गरीबी के सन्नाटे का, महंगाई का, राजनीतिक अपराधों का। यह सब लंबे समय तक त्याग, परिश्रम और संघर्ष से ही संभव है।
 
मुझे आचार्यश्री तुलसी के नेतृत्व में अणुव्रत आंदोलन के बैनर तले 2 दशक पूर्व आयोजित किए गए चुनाव शुद्धि अभियान का स्मरण हो रहा है जिसका हार्द था कि स्वस्थ लोकतंत्र का सही विकल्प यही है कि हम ईमानदार, चरित्रवान और जाति-संप्रदाय से मुक्त व्यक्ति को उम्मीदवार के रूप में मौका दें। सही चयन से ही राष्ट्र का सही निर्माण होगा। आने वाले चुनाव में ऐसा करके ही हम उत्तरप्रदेश को यदि उत्तम प्रदेश बना सकेंगे।
 
धृतराष्ट्र की आंखों में झांककर देखने का प्रयास करेंगे तो वहां शून्य के सिवा कुछ भी नजर नहीं आएगा। इसलिए हे राजनीतिक दलों! जागो! ऐसी रोशनी का अवतरण करो, जो दुर्योधनों के दुष्टों को नंगा करे और अर्जुन के नेक इरादों से जन-जन को प्रेरित करें। 

 

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