'भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और चुनाव किसी भी लोकतंत्र का महापर्व होते हैं', ऐसा कहा जाता है। पता नहीं यह गर्व का विषय है या फिर विश्लेषण का कि हमारे देश में इन महापर्वों का आयोजन लगा ही रहता है। कभी लोकसभा, कभी विधानसभा तो कभी नगर पालिका के चुनाव।
लेकिन अफसोस की बात है कि चुनाव अब नेताओं के लिए व्यापार बनते जा रहे हैं और राजनीतिक दलों के चुनावी मैनिफेस्टो व्यापारियों द्वारा अपने व्यापार के प्रोमोशन के लिए बांटे जाने वाले पैम्पलेट! और आज इन पैम्पलेट, माफ कीजिए चुनावी मैनिफेस्टो में लैपटॉप, स्मार्टफोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से लेकर प्रेशर कुकर जैसी बुनियादी आवश्यकता की वस्तु बांटने से शुरू होने वाली बात घी, गेहूं और पेट्रोल तक पहुंच गई। कब तक हमारे नेता गरीबी की आग को पेट्रोल और घी से बुझाते रहेंगे?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये मैनिफेस्टो उन पार्टियों के हैं, जो इस समय सत्ता में हैं। राजनीतिक दलों की निर्लज्जता और इस देश के वोटरों की बेबसी दोनों ही दुखदायी हैं। क्यों कोई इन नेताओं से नहीं पूछता कि इन 5 सालों या फिर स्वतंत्रता के बाद इतने सालों के शासन में तुमने क्या किया? उप्र की समाजवादी पार्टी हो या पंजाब का भाजपा-अकाली दल गठबंधन, दोनों को सत्ता में वापस आने के लिए या फिर अन्य पार्टियों को राज्य के लोगों को आज इस प्रकार के प्रलोभन क्यों देने पड़ रहे हैं?
लेकिन बात जब पंजाब में लोगों को घी बांटने की हो तो मसला बेहद गंभीर हो जाता है, क्योंकि पंजाब का तो नाम सुनते ही जेहन में हरे-भरे लहलहाते फसलों से भरे खेत उभरने लगते हैं और घरों के आंगन में बंधी गाय-भैंसों के साथ खेलते-खिलखिलाते बच्चे दिखने-से लगते हैं। फिर वो पंजाब जिसके घर-घर में दूध-दही की नदियां बहती थीं, वो पंजाब जो अपनी मेहमाननवाजी के लिए जाना जाता था, जो अपने घर आने वाले मेहमान को दूध-दही-घी से ही पूछता था आज उस पंजाब के वोटर को उन्हीं चीजों को सरकार द्वारा मुफ्त में देने की स्थिति क्यों और कैसे आ गई?
सवाल तो बहुत हैं, पर शायद जवाब किसी के पास भी नहीं। जब हमारा देश आजाद हुआ था तब भारत पर कोई कर्ज नहीं था तो आज इस देश के हर नागरिक पर औसतन 45,000 से ज्यादा का कर्ज क्यों है? जब अंग्रेज हम पर शासन करते थे तो भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था तो आज वह 68.08 रुपए के स्तर पर कैसे आ गया?
हमारा देश कृषि प्रधान देश है तो स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी आज तक किसानों को 24 घंटे बिजली एक चुनावी वादा भर क्यों है? चुनाव-दर-चुनाव पार्टी-दर-पार्टी वही वादे क्यों दोहराए जाते हैं? क्यों आज 70 सालों बाद भी पीने का स्वच्छ पानी, गरीबी और बेरोजगारी जैसी बुनियादी जरूरतें ही मैनिफेस्टो का हिस्सा हैं? हमारा देश इन बुनियादी आवश्यकताओं से आगे क्यों नहीं जा पाया? और क्यों हमारी पार्टियां रोजगार के अवसर पैदा करके हमारे युवाओं को स्वावलंबी बनाने से अधिक मुफ्त चीजों के प्रलोभन देने में विश्वास करती हैं?
यह वाकई में एक गंभीर मसला है कि जो वादे राजनीतिक पार्टियां अपने मैनिफेस्टो में करती हैं, वे चुनावों में वोटरों को लुभाकर वोट बटोरने तक ही क्यों सीमित रहती हैं? चुनाव जीतने के बाद ये पार्टियां अपने मैनिफेस्टो को लागू करने के प्रति कभी भी गंभीर नहीं होतीं और यदि उनसे उनके मैनिफेस्टो में किए गए वादों के बारे में पूछा जाता है तो वे सत्ता के नशे में अपने ही वादों को 'चुनावी जुमले' कह देती हैं।
इस सब में समझने वाली बात यह है कि वे अपने मैनिफेस्टो को नहीं, बल्कि अपने वोटर को हल्के में लेती हैं। आम आदमी तो लाचार है कि चुने तो चुने किसे? आखिर में सभी तो एक-से हैं। उसने तो अलग-अलग पार्टी को चुनकर भी देख लिया लेकिन सरकारें भले ही बदल गईं, मुद्दे वही रहे। पार्टी और नेता दोनों ही लगातार तरक्की करते गए लेकिन वो सालों से वहीं का वहीं खड़ा है, क्योंकि बात सत्ताधारियों द्वारा भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं है बल्कि सत्ता पर काबिज होने के लिए दिखाए जाने वाले सपनों की है। मुद्दा वादों को हकीकत में बदलने का सपना दिखाना नहीं उन्हें सपना ही रहने देना है।
चुनाव आयोग द्वारा चुनाव से पहले आचार संहिता लागू कर दी जाती है। आज जब विभिन्न राजनीतिक दल इस प्रकार की घोषणा करके वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं तो यह देश और लोकतंत्र दोनों के हित में है कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करे कि पार्टियां अपने चुनावी मैनिफेस्टो को पूरा करें। और जो पार्टी सत्ता में आने के बावजूद अपने चुनावी मैनिफेस्टो को पूरा नहीं कर पाए, वह अगली बार चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दी जाए।
जब तक इन राजनीतिक दलों की जवाबदेही अपने खुद के मैनिफेस्टो के प्रति तय नहीं की जाएगी हमारे नेता भारतीय राजनीति को किस स्तर तक ले जाएंगे इसकी कल्पना की जा सकती है इसलिए चुनावी आचार संहिता में आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ नए कानून जोड़ना अनिवार्य-सा दिख रहा है।