पुष्पा परजिया
5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। इस दिन कई देशों में कई सम्मलेन होते हैं, कई बातें होती हैं... फिर भी आज वृक्षों का कटना कम नहीं हुआ, न ही विषैले धुएं उगलती फैक्टरियां कम हुई हैं। अपितु इनमें इजाफा ही देखा जा रहा है।
न जाने इंसान किस दिशा की ओर जा रहा है। उसे अब सिर्फ और सिर्फ आर्थिक लाभ ही नजर आ रहा है जो कि क्षणिक लाभ है। विनाश की कल्पना तक नहीं उसे। प्राकृतिक प्रकोप कितने हो रहे हैं...बिन मौसम ही बारिश का होना, सूखा पड़ना, ये सभी पर्यावरण का प्रभाव ही तो है। आने वाली पीढ़ियों के लिए हमें कुछ बचाना है, कुछ संजोना है न कि आने वाली पीढ़ी को बीमारी, दुर्दशा और विनाश की ओर अग्रसर होता जीवन देना है। इसलिए आज वृक्षों को बचाना है हमें। दूषित वायु से दूर रखना है, अपने-अपने शहर को।
अनेक सुविधाएं तो बना ली हैं हमने, पर दिन ब दिन मन की शांति और शरीर का स्वास्थ्य हमने खो दिया है। सात्विक जीवन की दिनचर्या लुप्त हो गई है और आधुनिकता ने वो स्थान ले लिया है। मैं यह नहीं कहती कि आधुनिकता बुरी है, पर विकास के साथ नुकसान न हो इस बात का ख्याल भी जरुरी है। इन्हीं विचारों से बनी यह एक छोटी-सी कविता -
ना काटो मुझे, मुझे भी दर्द होता है
ना काटो मुझे, मुझे भी दर्द होता है
क्यों बिना वजह लिटा रहे, मृत्यु शय्या पर मुझे,
मैं ही जन्म से मरण तक काम आया तेरे
ऐ इंसा, क्या वफादारी का बदला तू देता यूंही ?
जिसने जिलाया, जिसने बचाया उसे ही काटा तूने
जब आया धरती पर सबसे पहले
लकड़ी से मेरी, झूला बनाया तूने
मेरी छांव तले बचपन गुजारा था तूने ,
गिल्ली डंडा खेलकर बड़ा हुआ,
अब बनाया क्रिकेट बेट तूने
बादल बरसाए मैंने ही, अन्न धन दिया मैंने ही तुझे
राजा बनकर बैठा मुझसे बनी कुर्सी पर,
और कई प्रपंच रचाए तूने
जब दिन तेरे पूरे हुए इस दुनिया में तो
मेरी लकड़ी से चिता तक सजाई तूने
नहीं कहता मान एहसान तू मेरा
बस मांगू तुझसे इतना की रहम कर मुझपर
और आने वाली पीढ़ी के लिए बख्श दे तू मुझे
न मानी बात मेरी तो देखना कितना तू पछताएगा
हाहाकार करेगी धरती और सारा संसार बिखर जाएगा