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हम कब ठुकराना सीखेंगे माल-ए-मुफ्त

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लोकेन्द्र सिंह

स्विट्जरलैंड में नागरिकों ने 'बिना काम किए घर बैठकर तनख्वाह प्राप्त करने के विचार' को नकार कर दुनिया के सामने श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया है। दुनिया में जब यह बहस चल रही है कि रोजगार की कमी, गरीबी और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए घर बैठे प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम और एक समान वेतन दिया जाना चाहिए, उस वक्त में स्विट्जरलैंड के स्वाभिमानी नागरिकों ने इस विचार को खारिज कर संदेश दिया है, कि इस व्यवस्था से समस्याएं सुलझने की जगह और अधिक उलझ जाएंगी। 
 
डेनियल और एनो ने स्विट्जरलैंड में यूनिवर्सल बेसिक सैलरी का अभियान शुरू किया था। उनके मुताबिक मशीनीकरण के कारण रोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। रोबोट लोगों के पेट पर लात मार रहे हैं। ऐसे में स्विट्जरलैंड का प्रत्येक नागरिक या वहां पांच साल से नियमित रहने वाला व्यक्ति सम्मानपूर्वक अपना भरण-पोषण कर सके, इसके लिए बच्चों को करीब 42 हजार रुपए और बड़ों को एक लाख 71 हजार रुपए प्रति महीना न्यूनतम वेतन दिया जाना चाहिए। 
 
डेनियल और एनो के इस प्रस्ताव को करीब डेढ़ साल में एक लाख से अधिक स्विस नागरिकों ने हस्ताक्षकर करके अपना समर्थन दिया। एक लाख लोगों का समर्थन हासिल होने के कारण स्विट्जरलैंड सरकार को बेसिक सैलरी के प्रस्ताव पर जनमत संग्रह (मतदान) करवाना पड़ा। हालांकि, मतदान के द्वारा न्यूनतम वेतन के विचार को खारिज करके 77 प्रतिशत स्विस नागरिकों ने स्पष्ट संदेश दिया कि मुफ्त का पैसा देश, समाज और व्यक्ति यानी किसी के लिए भी ठीक नहीं है। इन 77 प्रतिशत लोगों को अंदाजा था कि मुफ्त की कमाई के लिए उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ती। 
 
रोजगार के संकट, गरीबी और आर्थिक असमानता की विसंगति को एक तरफ रखकर यदि हम व्यापक नजरिए से सोचें, तब ध्यान आएगा कि वास्तव में बिना काम के वेतन देने से सबका नुकसान है। दो जून की रोटी के लिए जो लोग परिश्रम कर रहे हैं, वह भी घर बैठ जाएंगे। देश में काम करने वाले लोगों का अकाल पड़ जाएगा। मुफ्त की खाएंगे, घर में पड़े रहेंगे तब खाली दिमाग स्वाभाविक तौर पर शैतान का घर बन जाएगा। जब बिना परिश्रम का पैसा आता है तब वह अपने साथ सौ बुराइयां लेकर आता है। इस संबंध में सिंहस्थ-2016 कुंभ पर्व के अंतर्गत निनोरा (उज्जैन) में आयोजित अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुम्भ में जूनापीठाधीश्वर महामंडलेश्वर श्री अवधेशानंद गिरी जी महाराज का कथन याद आता है। उन्होंने कहा था कि बिना योग्यता और श्रम के सुविधाएं प्राप्त करने की प्रवृत्ति हमें असुर बना सकती है। अभी हाल में इसकी एक नजीर हमारे सामने उत्तरप्रदेश के मथुरा काण्ड के रूप में सामने आई है। 
 
बहरहाल, बौद्धिक जगत में विमर्श चल रहा है कि यदि भारत में यूनिवर्सल बेसिक सैलरी पर मतदान हुआ होता, तब यकीनन नतीजा उल्टा ही आता। शराब-कबाब, साड़ी-सॉल या फिर चंद नोटों के लिए अपना 'मताधिकार' बेचने की प्रवृत्ति वाले लोग 'मुफ्त की सैलरी' पाने के लिए कहां पीछे रहते। सौ प्रतिशत मतदान होता और बहुमत से प्रस्ताव पास हो जाता। हालांकि, ऐसा नहीं है कि भारत के लोग पूरी तरह गैर-जिम्मेदार हैं। किसी प्रक्रिया से गुजरे बिना हम अपने नागरिकों के विवेक पर प्रश्न चिह्न खड़ा नहीं करना चाह रहे हैं। लेकिन, हम सबका व्यवहार उक्त चर्चा को हवा दे रहा है। जरा अपने बारे में सोचिए, हम अखबार भी वह पढ़ते हैं, जिसके साथ बाल्टी, साबुनदानी या सॉस की बॉटल गिफ्ट में मिलते हैं। कोई भी सामान खरीदते वक्त दुकानदार से सबसे पहला सवाल होता है कि इसके साथ 'फ्री' क्या है? हमें सब्जी के साथ धनिया-मिर्ची मुफ्त चाहिए। ऐसे में हम पर संदेह अनुचित कहां है। 
 
इतना तय है कि हम फ्री के माल के साथ आने वाले रोगों के प्रति जागरूक नहीं है। सोचिए, हमने कब और किससे कहा कि हमें बिना काम के दाम या बिना दाम के माल नहीं चाहिए। हम अपने जन प्रतिनिधि चुनते समय भी यह देखते हैं कि कौन-सा उम्मीदवार और राजनीतिक दल मुफ्त में दाल-चावल, मोबाइल, लैपटॉप, टेलीविजन, साइकिल और मिक्सी इत्यादि देने की घोषणा कर रहा है। हमने दिल्ली में फ्री में 'वाई-फाई' देने के वादे पर एक नई-नवेली पार्टी को वोट दे दिए। उत्तरप्रदेश में लैपटॉप के लालच में यादव परिवार को चुन लिया। 
 
हम अपने एक वोट के लिए नेता से क्या-क्या मुफ्त में नहीं लेते? लेकिन, क्या कभी सोचा है कि उस माल-ए-मुफ्त की कीमत हमने क्या चुकाई है? हमारी मुफ्त की आदत से चुनाव आयोग भी बेचैन है। चुनावों में बढ़ते धनबल के प्रभाव से चिंतित चुनाव आयोग ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के लिए केन्द्र सरकार से आग्रह करने का मन बनाया है। वह चाहता है कि पैसा बांटने की पुष्टी होने पर चुनाव निरस्त करने का उसे कानूनी अधिकार मिले। चुनाव आयोग की चिंता इस बात की ओर इशारा करती है कि भारत के मतदाता गैर जिम्मेदार हैं। किस हद तक गैर जिम्मेदार हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। उसके लिए हमें अपने जेहन में झांककर देखना चाहिए। और हाँ, हो सके तो हमें स्विट्जरलैंड के नागरिकों से सीख लेकर मुफ्त के माल को ठुकराने की आदत विकसित कर लेनी चाहिए।
 

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