अंततः शिवसेना के सांसद महोदय के उड़ने पर लगी रोक हटाई जा चुकी है। उल्लेखनीय है कि यह रोक तभी हटाई गई, जब उनकी पार्टी ने बयान दिया कि अगर सांसद महोदय को उड़ने नहीं दिया गया तो हवाई अड्डे से सारी उड़ाने रोक दी जाएगी। आज राजनैतिक दल और विचारधाराएं अपनी साख खोती जा रही है और इसकी वजह से साख का संकट उत्पन्न हो गया है। ऐसे समय में किसी सांसद का अपनी पार्टी की साख के अनुरूप आचरण करना और पार्टी का पलट कर सांसद को घनघोर समर्थन देकर अपनी बनाई हुई साख को और मजबूत करना, गिरते हुए राजनैतिक परिदृश्य में उम्मीद की किरण जगाती है और हमें कहीं ना कहीं यह सोचने पर मजबूर भी करती है कि भरोसे का संकट उतना गहरा नहीं है जितना कि हमें बताया या दिखलाया जाता है।
हवाई यात्रा पर से बैन हटाया जाना, लोकतंत्र और उसके उन मूल्यों की जीत है जिनकी रक्षा के लिए लोकतंत्र के प्रहरी अर्थात सांसद और विधायक सदैव सजग रहते हैं। आखिरकार किसी भी जनप्रतिनिधि के उड़ने पर कैसे रोक लगाई जा सकती है? यह न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों का उपहास है बल्कि जनप्रतिनिधियों के मूलभूत अधिकारों का भी उल्लंघन है। जब तक कोई नेता हवाई जहाज में ऊंची उड़ान नहीं भरेगा वह जनता से पूरे किए गए हवाई वादे कैसे पूरे करेगा? और हवाई वादे पूरे करने के लिए हवाई चिंतन करना भी अनिवार्य है जो जमीन पर संभव ही नहीं है। जमीन से जुड़े होने का अभिप्राय यह बिलकुल नहीं है कि नेता हर वक्त जमीन पर रहें, नेता को जमीन से जुड़ा बताने के लिए नेताजी के जमीन में गढ़े बड़े-बड़े होर्डिंग्स ही काफी है। मुझे और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले मेरे जैसे लोकतांत्रिक लोगों को पहले दिन से लग रहा था कि सांसद महोदय के उड़ने पर लगी रोक, एयरलाइन कंपनियों का घोर फांसीवादी और अलोकतांत्रिक निर्णय है क्योंकि जब एयरलाइन कंपनियों के (ऋणी) मालिकों को रातों-रात उड़ना होता है, तो वे भी जनप्रतिनिधियों की मदद लेते हैं। ऐसे में जनप्रतिनिधियों के साथ यह अहसानफरामोशी उचित नहीं है।
बैन के दौरान, सांसद महोदय को जो मानसिक संताप झेलना पड़ा और कष्टपूर्ण रेल यात्रा करनी पड़ी, उसकी जिम्मेदारी लोकतंत्र का कौनसा खंभा उठाएगा ? इस बैन की वजह से सांसद जी के रचनात्मक हवाई चिंतन में जो व्यवधान आया, उसके लिए संसद के कौन से सदन में शून्यकाल के दौरान निंदा प्रस्ताव लाया जाएगा? क्या सबसे बड़े लोकतंत्र के जनप्रतिनिधि अब इतने निःसहाय कर दिए जाएंगे कि उन्हें मूड फ्रेश करने के लिए की गई मारपीट और हाथापाई के बाद कानूनी कार्यवाही और प्रतिबंध झेलना पड़ेगा? कानून के हाथ चाहे कितने भी लंबे क्यों ना हो वो कानून बनाने वालो के गिरेबान तक नहीं पहुंचने चाहिए, हां लेकिन कानून के हाथ फ्री हों, तो समय निकालकर वे कानून निर्माताओ की चंपी कर अहसानों का बोझ कुछ हल्का कर सकते हैं।
पूरे (प्रक)रण में गलती एयर इंडिया की ही प्रतीत हो रही है। एयरइंडिया के स्टाफ को सीट को लेकर सांसद महोदय से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए था क्योंकि पूरा देश जानता है कि अपनी "सीट" को लेकर नेता कितने संवेदनशील होते है। एयरइंडिया को पार्टी आलाकमान से सीखना चाहिए कि एक बार नेता को टिकट देने के बाद सीट को लेकर कोई विवाद संभव नहीं है।
विवाद चाहे कुछ भी रहा हो लेकिन सांसद महोदय को गुस्सा आना लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है क्योंकि जिन सांसद महोदय को कभी गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और किसानों की आत्महत्या पर गुस्सा नहीं आया, उनको इस छोटी-सी बात पर गुस्सा आना भविष्य के सकारात्मक बदलाव की आहट माना जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए की सांसद महोदय, अब अपने क्षेत्र की समस्याओं को भी अपने जनकल्याणकारी क्रोध से अवगत कराएंगे।
न्यायिक सोच रखने वाले कुछ बुद्धिजीवी टाइप लोगों का मानना है कि सांसद जी को अपने सांसदपने से बाहर आकर एयर इंडिया के स्टाफ को चप्पल से मारकर कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। दरअसल यह भी लोगों को असल मुद्दे से भ्रमित करने की एक चाल है क्योंकि जनता को यह समझना होगा कि अपराधियों से लड़ते-लड़ते कानून बहुत ही कठोर और संगदिल बन चुका है। ऐसे में नेताओं का समय-समय पर कानून हाथ में लेकर अपने हाथों की गर्माहट से कानून को लचीला और जनोन्मुखी बनाए रखे जाना अनिवार्य है। कानून हाथ में लेकर जनप्रतिनिधि कानून के प्रति अपना अपनापन जाहिर करते हैं जो लोकतंत्र के दो मुख्य खंभों, कार्यपालिका और न्यायपालिका के आपसी रिश्ते को मजबूत करता है।
सांसद महोदय का अपने कृत्य पर माफी न मांगना भी बिल्कुल न्यायपूर्ण और तर्कसंगत लगता है क्योंकि जनप्रतिनिधियों का काम केवल वोट मांगना होता है। अगर वो अपने हर किए पर माफी मांगने लगे, तो इससे आम जनता लतखोर के बदले माफीखोर होकर माफी की आदी हो जाएगी जो एक स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है।