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आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भूमि पर खड़ा होता भारत

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डॉ. सौरभ मालवीय

यह एक सुखद संयोग है कि भारतीय दृष्टि से अब भारत को समझने की कोशिश की जारी है। निश्चित ही इस विमर्श से भारत अपने गौरव पूर्ण अतीत को संजोकर नए पथ का सृजन करेगा।

 
भारत की आत्मा को समझना है, तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी, तभी हम पुनः भारत को विश्व में प्रतिष्ठापित कर पाएंगे। इसी भावना और विचार में भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है। तभी भारत परम वैभव को प्राप्त कर सकता है।
 
‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’’ पहेली है, यक्ष-प्रश्न है। सिर्फ भारत ही नहीं है, जो नहीं मिटा है। नहीं मिटने वाले अर्थात कायम रहने वाले और देश भी हैं- चीन है, यूनान है, रोम है, बेबीलोन है, ईरान है। ये देश कायम तो हैं लेकिन क्या भारत की तरह कायम हैं? क्या ये हिंदोस्तां की तरह कायम हैं? शायद नहीं है। इसलिए इकबाल ने कहा है कि अगर वे कायम हैं तो भी सिर्फ नाम के लिए कायम हैं। उनकी हस्ती तो मिट चुकी है। उनकी मूल पहचान नष्ट हो चुकी है। इन पुरानी सभ्यताओं को समय ने इतने थपेड़े मारे हैं कि उनका सातत्य भंग हो चुका है। जिसे कहते है, परंपरा, वह धागा टूट चुका है। परिवर्तन ने परंपरा को परास्त कर दिया है। कुछ देशों ने अपना धर्म बदल लिया कुछ ने अपनी भाषा बदल ली, कुछ ने अपना नाम बदल लिया और कुछ ने अपनी जीवन-पद्धति ही बदल ली। 
 
परिवर्तन की आंधी ने परंपरा के परखच्चे उड़ा दिए। यह ठीक हुआ या गलत, यह एक अलग प्रश्न है, लेकिन भारत में ऐसी क्या खूबी है कि परंपरा और परिवर्तन यहां कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़े जा रहे हैं। नित्य, नूतन सृजन की गर्भ-स्थली बन गई है।
 
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को चरितार्थ करने वाली भारतीय संस्कृति है और विश्व के तमाम देश अनेक संस्कृतियां और जातियां उसके पुत्र-पुत्री, पोता-पोती की तरह है। घर सबका यही था, भाषा सबकी भिन्न जरूर थी, संस्कृति यहीं की थी जो कालांतर में बदलते-बदलते और बढ़ते-बढ़ते अनेक रूप और प्रकारों में उसी तरह हो गई जैसे आस्ट्रेलियाई मूंगों की तरह दूर-दूर फैली हुई चट्टानें।
 
विश्व के अनेक विद्याविदों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों और प्रतिभावानों ने भारत के समर्थ को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा है तो किसी ने मोक्ष की, किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा है तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी, किसी ने यहां आत्मिक पि‍पासा बुझाई है तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ है, कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा है। तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुंभ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित भारतीय समाज अपने में समेटे खड़ा है इसी से पूरा भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परंपरा की थाती है। 
 
विश्व सभ्यता और विचार-चिंतन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की संवेदनाओं चिंतन प्रारंभ किया भारतीय चिंतन का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक है, परंतु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी अपनी संस्कृति में निहित है - इस बात को न्यायालयों ने उनके निर्णयों में स्वीकार किया है। सांस्कृतिक चिंतन एक आध्यात्मिक अवधारणा है और यही है भारतीय का वैशिष्ट्य। राष्ट्र का आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं जो हमे वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गौतमबुद्ध, भगवान महावीर स्वामी, शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, स्वामी दयानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।
 
दिल्ली में आयोजित 23-25 फरवरी 2017 अंतर्राष्ट्रीय संविमर्श “भारत बोध” का यही निहतार्थ है, भारतीय शिक्षण मंडल द्वारा आयोजित विमर्श में धर्म-संस्कृति,ज्ञान-विज्ञान, कलादृष्टि, विश्व दृष्टि, समुत्कर्ष एवं सर्वविद्या जैसे मौलिक विषयों पर विद्वानों का विमर्श होगा इस आयोजन का उद्घाटन भारत के माननीय राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी एवं मानवसंसाधन मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर करेंगे।

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