चतुर्वेदी जी मंझे हुए साहित्यकार हैं। वे हमेशा साहित्यिक साधना में लीन रहते हैं, उनके चारों ओर हमेशा साहित्य भिनभिनाता रहता है। साहित्यिक तेवर को ही वे अपना जेवर मानते हैं। अपनी रचनात्मक चेत "ना" पर सवार होकर वे काफी लंबी साहित्यिक दूरी तय कर चुके हैं। इतना दूर आने के बाद उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती क्या थी, अपना साहित्यिक सफर शुरू करना या फिर सफर शुरू करने के बाद तुरंत वापस ना लौट जाना। साहित्य के क्षेत्र में टाटा नैनो से शुरुआत करके वो टाटा-407 तक पहुंच चुके हैं, अब सभी उनके साहित्य को टाटा-टाटा करने की राह देख रहे हैं। उनका सृजित साहित्य काफी दूर तक पहुंचा है, अब दूर-दूर के पाठक उनके साहित्य से तौबा कर रहे हैं।
वे बिना डगमगाए साहित्यिक डग भरते हैं, जिसके चलते उनके पाठक आहे भरते हैं। अपनी प्रबल साहित्यिक निष्ठा के चलते चतुर्वेदी जी बड़ी ही निष्ठुरता से कविता, कहानी, व्यंग्य, गीत और गजल को ठिकाने लगा चुके हैं। चतुर्वेदी जी साहित्यिक कर्मयोगी हैं, प्रतिदिन कुछ ना कुछ नया रचते हैं और अन्य रचनाकारों को भी इसके लिए उकसाते हैं। मेहनत और लगन से चतुर्वेदी जी की छवि साहित्य जगत में ऐसी बन चुकी है कि उनके धतकर्म को भी रचना कर्म मान लिया जाता है। साहित्य विशेषज्ञ "साहित्यिक मनरेगा" शुरू करने का श्रेय चतुर्वेदी जी को ही देते हैं, जिसे वो बड़ी विनम्रता से डकार देते हैं। उनके द्वारा रचित साहित्य में काफी वजन होता है और इस बात की गवाही उनकी सोसाईटी का रद्दी तोलने वाला कबाड़ी भी देता है।
साहित्य जगत में चतुर्वेदी जी का नाम काफी इज्जत से लिया जाता है, क्योंकि वे उन मुट्ठी भर लोगो में से हैं जो पहले रात-दिन मेहनत करके साहित्य सृजन करते हैं फिर उससे दुगुनी मेहनत करके अपने ही कमाए धन से उसे प्रकाशित और प्रचारित भी करते हैं। आज के स्वार्थपरक समय में तन-मन-धन से साहित्य की ऐसी निस्वार्थ सेवा करके भी चतुर्वेदी जी को अहम छू तक नहीं पाया है। इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी चतुर्वेदी जी अपनी जड़ों से जुड़े हुए है। चतुर्वेदी जी के करीबियों का मानना है कि इससे उनको साहित्य की जड़ें काटने में ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता।
साहित्य के प्रति उनके समर्पण का आलम यह है कि जिस दिन वो साहित्य सृजन नहीं कर पाते उस दिन बेचैन होकर साहित्य वमन करने लगते हैं। साहित्य ने उनके मन मस्तिष्क में इस तरह घर कर लिया है कि "हायहुकू-हायहुकू हाय हाय" भी उन्हें "हाइकु" सुनाई पड़ता है।
चतुर्वेदी जी की रचनाएं काफी गहराई लिए होती हैं, इसलिए पाठक के साथ संपादक भी उसमे उतरने से डरते हैं। चतुर्वेदी जी तब तक किसी अखबार या पत्रिका को प्रसिद्ध नहीं मानते जब तक उनकी कोई रचना उसमें प्रकाशित नहीं हो जाती है। बहुत "काशन"(Caution) लेकर उनकी रचनाओं का "प्रकाशन" होता है। साहित्यिक जानकर मानते हैं कि अब समय आ गया है कि चतुर्वेदी जी की रचनाओं को "स्वास्थ्य के लिए हानिकारक" चेतावनी के साथ ही प्रकाशित किया जाए।
साहित्यिक और रचनात्मक ईमानदारी के मामले में चतुर्वेदी जी का हाथ बिलकुल साफ है और इसी के चलते वो सभी सम्मानित पुरस्कारों पर हाथ साफ कर चुके हैं। "लिखने से ज्यादा दिखने" के अपने आदर्श के चलते साहित्यिक चर्चाओ और संगोष्ठियों में भी चतुर्वेदी जी छाए रहते है। हर युवा रचनाकार, चतुर्वेदी जी से दोस्ती और संपर्क बनाए रखना चाहता है ताकि वो साहित्य के साथ साथ राजनीति के गुर भी सीख सके। साहित्य में पैर ज़माने के लिए चतुर्वेदी जी ने वरिष्ठ साहित्यकारों के पैर दबाए हैं और वो इस बहुमूल्य परंपरा को केवल अपने तक सीमित रख कर किसी साहित्यिक पाप के भागी नहीं बनना चाहते है। साहित्यिक अग्निपथ पर चतुर्वेदी जी की रचनात्मक कदमताल साहित्य की अमूल्य निधि है।