- निर्मलकुमार पाटोदी
राजनीतिक स्वार्थ की शिकार हमारी भाषाएँ दुनिया में एकमात्र स्वाधीन भारत राष्ट्र-राज्य है, जहाँ पर सत्तर साल बीत जाने पर भी राजनीति का इतना अधिक पराभव हुआ है कि इसकी अपनी राष्ट्रभाषा तक घोषित नहीं हो सकी है। इतिहास गवाह रहेगा कि राजनैतिक स्वार्थ ने भारत को जोड़ने वाली, उसकी एकता की वाहक, जन-जन के ह्रदय सूत्र के तारों को सशक्त करने वाली भाषा हिन्दी को उसका लोकतांत्रिक अधिकार मिल नहीं सका है। जिस भाषा को महात्मा गांधी ने स्वाधीनता का वाहक बनाया था। पूरे देश में उन्होंने हिन्दी सीखने का आग्रह किया।
यही नहीं 29 मार्च 1918 को इंदौर में मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के भवन का सिलान्यास किया और अप्रैल 1935 में भवन का उद्घाटन किया। इंदौर में उन्होंने आह्वान किया था कि दक्षिण भारत में समिति हिन्दी का प्रचार-प्रसार करें। इसके लिए उन्होंने अपने बेटे देवदास गांधी को कार्यकर्ताओं के साथ हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए तमिलनाडु भेजते हुए कहा था, एक राष्ट्र, एक भाषा के सूत्र को मान लेना चाहिए। प्रांतीय भाषाओं के बिना स्वराज्य अधूरा है।
26 जनवरी 1950 को भारत राष्ट्र राज्य सम्प्रभू संवैधानिक गणराज्य घोषित हुआ था, किंतु संविधान सभा के निर्णय अनुसार, हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा का दर्जा प्रदान नहीं किया गया। प्रावधान कर दिया गया कि पन्द्रह साल की अवधि में सरकार हिन्दी को राजभाषा के रूप में सक्षम कर देगी। परंतु सरकार ने संविधान सभा की भावना सम्मान नहीं किया और पन्दह साल की अपेक्षा सत्रह साल बाद सन 1967 में बहाना बना लिया गया कि हिन्दी अभी भी राजभाषा का स्थान ग्रहण करने के योग्य नहीं है।
राजनीति के क्षुद्र स्वार्थ दुष्परिणाम यह सामने आया कि विदेशी भाषा अंग्रेज़ी सरकार के कामकाज की भाषा अनिश्चितकाल तक बनी रहेगी। साथ ही निर्ल्लजतापूर्वक यह प्रावधान कर दिया गया कि देश के सभी राज्यों में से यदि एक भी राज्य हिन्दी के विरोध में रहेगा तो हिन्दी राजभाषा का स्थान ग्रहण नहीं कर सकेगी। परिणामस्वरूप अब सत्तर साल हो गए हैं और अंग्रेज़ी में ही सरकार का कामकाज चल रहा है।
विडम्बना यह हुई है कि देश के उच्चत्तम और उच्च न्यायालयों में हिन्दी और राज्यों की भाषाओं में कोई भी वाद चलाया वहीं जा सकता है। देश में देश की भाषाओं का न्याय के दरवाज़े में प्रवेश निषिद्ध है। हिन्दी और राज्यों की भाषाओं के लिए अब एकमात्र रास्ता संविधान में संशोधन कर दिया जाय अन्यथा सवा सौ करोड़ नागरिकों की भाषाएं सरकार के कामकाज, न्याय और शिक्षा के क्षेत्र में वंचित ही रहेगी।
अत्यंत विचारणीय प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय ज्ञान उपेक्षित हो गया। भारतीय मानस की भारतीयता खोती गयी। यह बौद्धिक उपनिवेशीकरण का प्रभाव रहा। उच्च शिक्षा का ज्ञान और शोध की धारा पश्चिम से आयातित होती आई है। मानसिक दरिद्रता का यह ज्वलंत दृष्टांत है। साक्षात परिणाम राष्ट्र को यह भुगतना पड़ा कि हमारा देश नोबल पुरस्कार, ओलम्पिक खेल और गुणवत्ता की शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में पिछली क़तार में हैं।
शिक्षा, चिकित्सा, ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र सरकार के बजट में अब तक सतत् उपेक्षित रखा गया है। भारत दुनिया में राष्ट्रभाषा से विहीन एकमात्र राष्ट्र है। जहाँ के जनप्रतिनिधि चुनाव तो मतभाषाओं की भाषा में बोलकर जीतता है। जीतने के बाद संसद में ग़ुलाम मानसिकता की विदेशी भाषा में बोलते हुए शर्म महसूस नहीं करता है। यही मानसिकता देश के विकास और राज्यों तथा देश की सर्व व्यापक भाषा हिन्दी के मार्ग की बाधा बनी हुई है।
राजनीति के अंध स्वार्थ की हद अब यहाँ तक पहुंच चुकी है कि कि राज्यों की बोली जाने वाली बोलियों को ही संविधान की शामिल करने की दृष्टता की हद पार करने में ज़रा भी संकोच नहीं किया जा रहा है। परिणाम यह सामने आने वाला है कि हिन्दी की अपेक्षा लोग जनगणना में निश्चित हीअपनी बोली को लिखावेंगे। हिन्दी की स्थिति किसी बोली के समान हो जाएगी।
दु:खांत हालत यह है कि हिन्दी, मराठी, गुजराती' कन्नड़, तेलुगु, मलयालम' तमिल, उड़िया, बांग्ला, पंजाबी, असमिया, कश्मीरी आदि भाषाएँ भी राजनीति का अब तक शिकार रही हैं और भी ज़्यादा उपेक्षित हो जाने वाली है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा में शामिल करना तो दूर की कोड़ी की बात रह जाएगी। हिन्दी जब संकुचित हो जाएगी तब दुनिया के लोग इसे सीखने में क्यों रुचि लेंगे। अगर हिन्दी की हालत दयनीय हो गई तो इसके लिए हिन्दी के साहित्यकार हिन्दी की संस्थाएँ, हिन्दी के शिक्षक, हिन्दी के पत्रकार, हिन्दी भाषी, हिन्दी भाषी छात्र, हिन्दीसेवी और हिन्दी से जुड़ा इलेक्ट्रानिक मीडिया, हिन्दी फ़िल्म जगत आदि पूरी तरह से ज़िम्मेदार रहेगा।
इतिहास में दर्ज होगा कि जब हिन्दी भाषा के अस्तित्व पर घातक प्रहार किए जा रहे थे, तब ये सभी हिन्दी वाले निष्क्रिय थे। जागते हुए भी गहरी नींद में सोने का बहाना बना रहे थे। अपने-अपने क्षणिक स्वार्थों में डूबे हुए थे। इतिहास में यह भी लिखा जाएगा कि हिन्दी की सच्ची सेवा, प्रचार-प्रसार ग़ैर हिन्दीभाषियों ने ही किया। यदि सरकार को इतनी भी समझ आ जाए कि बोलियों के साहित्यिक, साहित्य अकादमी के पुरस्कार पाने और अपनी कृतियों को छपाने के लोभ में अपनी बोलियों को आठवीं अनुसूचि में शामिल करना चाहते हैं। उनकी इस दूषित प्रवृत्ति को सरकार अवसर नहीं दें, तो उनकी हवा निकल जाएगी।
उन्होंने राजनैतिक दलों को चुनाव में जीतने का हथियार बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए आगे बढ़ाकर गुमराह करने की कुचेष्टा की है। इससे बचना ही श्रेयस्कर होगा। अन्य जागरूक संसद सदस्यों को चाहिए अगर संसद में विधेयक उपस्थित प्रस्तुत कर दिया जाए तो उस पर यह सुझाव/संशोधन प्रस्तुत कर देना चाहिए कि सभी बोलियों से जुड़े साहित्यकारों को किसी भी प्रकार की शासकीय सुविधाओं का लाभ नहीं मिलेगा। सबसे श्रेष्ठ रास्ता यह है कि हिन्दी को अष्टम अनुसूचि से अलग करके राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाए, तब हिन्दी राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह करने को स्वतंत्र, सक्षम और समर्थ हो जाएगी।