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खाली-पीली ‘हॉर्न प्लीज़’

शनै: शनै: -3

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डॉ. आशीष जैन

जब नीचे लिख ही दिया है कि ‘जगह मिलने पर साइड दी जाएगी’ तो ‘हॉर्न प्लीज’ लिखने की क्या जरूरत है? और जब हॉर्न प्लीज लिखा है तो फिर जैसे तैसे जगह दो जाने को, हम कब से हॉर्न बजा रहे हैं। लिखा ही क्यों? यूं ही - खाली पीली।
 
खाली और पीली शब्द, हिन्दी शब्दकोश में दो सर्वथा भिन्न अर्थ लिए अनादि काल से बैठे हैं। पर उनका संयुक्त प्रयोग कुछ तीन चार दशक पुराना है, जब मुंबई स्थित बॉलीवुड ने इनके आपसी संबंधों को स्वीकृति दी। जब ये जय–वीरू साथ हो जाते हैं तो स्वयं का वास्तविक रूप त्याग कर शब्द द्वय को एक नया ही अर्थ देते हैं - जिसका कोई अर्थ ही नहीं होता। नहीं वाकई, खाली पीली का अर्थ है – कोई अर्थ ना होना – यानी बस यूं ही। बोले तो…. खाली पीली।
 
अब यू टर्न लेते हैं, पुनः मूल विषय की ओर। किसी गाड़ी के पीछे लिखा हो या नहीं, पर जान लें, हॉर्न प्लीज हमारा संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है। बस यूं समझ लें कि इसका समावेश संविधान सभा ने धर्मनिरपेक्षता शब्द का उल्लेख करने से कुछ ही दिन पहले किया था। बस तभी से यह हमारी स्वतंत्रता का प्रतीक बना है। जब चाहो जहां चाहो हॉर्न बाजा दो। मजाल है किसी की जो मना कर दे।
 
परंतु, संभवत: संविधान सभा जरा जल्दी में थी इसलिए कर्तव्यों में ‘हॉर्न सुनना है’, इसका उल्लेख नहीं किया। भले ही पीछे वाला हॉर्न पर हॉर्न बजा रहा है, पर जब तक केले के ठेले वाले से गुप्ता जी को छुट्टे पैसे वापस नहीं मिल जाते तब तक बीच सड़क पर खड़े रहेंगे, चाहे गाड़ियों का जाम ही क्यों न लग जाए। उल्टा घूर कर ऐसे देखेंगे जैसे स्कूटर पर पीछे लिखवा रखा हो – जब मन करेगा तब साइड दे दी जाएगी। भारत में दोनों ही प्रजाति के लोग प्रचुर मात्रा मे मिलते हैं – निरर्थक हॉर्न बजने वाले और साइड न देने वाले।
 
चलिए अब व्यंग्य के मूल सिद्धांत हास्य रस को ताक पर रखकर कुछ गंभीर बात करते हैं। तीन तरह के लोगों को अनावशयक हॉर्न बजाने का “हॉर्न रोग” होता है। पहला, जो किसी की परवाह नहीं करते, जैसे पैदल चल रहे लोगों के पीछे भी हॉर्न बजाने वाले। दूसरा, जो स्वयं को राजा समझते हैं, जैसे जाम में जाने की जगह ना होने पर भी पीं पों करने वाले और तीसरा, जिसके मन में स्वयं असुरक्षा का भाव हो, उदाहरणार्थ गाड़ी जरूरत से ज्यादा तेज चलाने वाले लोग। इन तीनों परिस्थितियों में हॉर्न रोग से ग्रसित रोगी ध्वनि प्रदूषण से अधिक दंभ प्रदर्शन करते है।
 
ये असुरक्षा की भावना में नाक तक भरे हुए होते हैं, जिसे छुपाने के लिए हॉर्न का उपयोग करते हैं। इस रोग के लक्षण सड़क से संसद तक, सब्जी मार्केट से सोशल मीडिया तक तथा परिवारिक टाइम से प्राइम टाइम तक देखे जा सकते  हैं। सदन में अकारण हंगामा करना, ट्विटर पर ट्रोल करना और समाचार चैनल पर नौ बजते ही गले फाड़कर चिल्लाना इसके प्रमुख उदाहरण हैं। जबकि यह सभी जानते हैं कि जगह मिलने पर ही साइड दी जाएगी, पर ना तो सत्ता पक्ष साइड देता है और ना विपक्ष हॉर्न बजाने में कोई कसर छोड़ता है।
 
ध्यान से देखिए इन्हें, ये राजनेता, ट्रोल और समाचार चेनलों पर एंकर और प्रवक्ता बिना किसी की परवाह किए ‘खाली पीली’ केवल अपना ही राग अलापते हैं। अपनी ही धुन में मग्न रहते हैं। एक दूसरे की बात समझना तो दूर, सुनना भी उचित नही समझते- तो हुए न ‘हॉर्न रोग’ से पीड़ित! दूसरे पक्ष के तर्क के तीर इनके शरीर के कवच से टकराकर विफल हो जाते हैं, मानो इनकी खाल कांजीरंगा के विलुप्तप्राय: गेंडे की खाल से ही बनी हो। तर्क वितर्क में सारा समय व्यतीत हो जाता है, और हल कुछ निकलता ही नही। जैसे चील का चुगना कम, चिल्लाना ज्यादा। दुर्भाग्य से देश में सकारात्मक संवाद का कोई स्थान ही नही रह गया है। सभी इस नक्कारखाने में अपनी तूती बजा रहे हैं और सुन कोई भी नहीं रहा है।
 
क्या कोई इनसे कहेगा ‘हॉर्न नॉट ओके प्लीज’ !! 
॥ इति॥ 
(लेखक मेक्स सुपर स्पेश‍लिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं) 
अगले सप्ताह पढ़िए – 'सम विषम अर्थात जलाओ पराली बुझाओ दिवाली'

 

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