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डिप्रेशन, हाइपरटेंशन एवं मोटापा जैसी बीमारियों का कारण आलस है

हमें फॉलो करें डिप्रेशन, हाइपरटेंशन एवं मोटापा जैसी बीमारियों का कारण आलस है
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ललि‍त गर्ग

आलसी होना न केवल सशक्त भारत एवं नए भारत की सबसे बड़ी बाधा हो सकती है, बल्कि यह एक चेतावनी भी है कि हम समय रहते जाग जाएं और अतीत के उन तमाम संदर्भों, व्यवहारों एवं जीवनशैली को अलविदा कहें जिनकी वजह से हमें दुनिया में आलसी होने का खिताब मिला है। पिछले दिनों दुनिया के सबसे आलसी देशों में भारत का अव्वल पंक्ति में आना न केवल शर्मनाक बल्कि सोचनीय स्थिति को दर्शाता है। जिस देश का प्रधानमंत्री 18 से 20 घंटे प्रतिदिन काम करता हो, वहां के आम नागरिकों को आलसी होने का तमगा मिलना विडंबनापूर्ण है।
 
हमारी सुस्ती टूट जानी चाहिए, क्योंकि यह दरअसल एक धब्बा है, जो न केवल हमारी संस्कृति बल्कि जीवन-मूल्यों को धुंधला रही है। आज राष्ट्रीय गौरव इसलिए खतरे में नहीं है कि आलस बढ़ रहा है। आलस सदैव रहा है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि सुविधावाद के प्रति आस्था सघन हो रही है। 
 
कुछ साल पहले स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी ने 46 देशों के 7 लाख लोगों का सर्वे किया और पता लगाने की कोशिश की कि कहां के लोग हर दिन औसतन कितने कदम चलते हैं। इसके लिए लोगों के स्मार्टफोन में इंस्टॉल किए गए स्टेप काउंटर्स की मदद से उनकी पैदल चलने की गतिविधि का अनुमान लगाया गया और इस आधार पर एक तालिका तैयार की गई। 
 
इस तालिका से पता चला कि सबसे सक्रिय एवं जागरूक चीनी लोग हैं, उनमें भी खासतौर पर हांगकांग के लोग हैं, जो 1 दिन में औसतन 6,880 कदम चलते हैं। सबसे निचले पायदान पर इंडोनेशिया रहा, जहां लोग औसतन 3,513 कदम चलते हैं। भारत 39वें स्थान पर है, यानी पेंदी से जरा ऊपर। हम भारतीय औसतन 1 दिन में 4,297 कदम चलते हैं जबकि विशेषज्ञ बताते हैं कि सेहतमंद लोगों को कम से कम 10,000 कदम हर दिन चलना चाहिए और राष्ट्र निर्माण में जुटे संकल्पवान लोगों को तो इससे भी अधिक क्रियाशील रहना चाहिए। 
 
हम कोशिश करें कि ‘जो आज तक नहीं हुआ, वह आगे कभी नहीं होगा’ इस बूढ़े तर्क से बचकर नया प्रण जगाएं। बिना किसी अकर्मण्यता के निर्माण की नई सीमाएं खींचें। यही साहसी सफर शक्ति, समय और श्रम को सार्थकता देगा और इसी से हमारे आलसी होने का दाग भी मिट सकेगा।
 
आलसी और अकर्मण्य होना न केवल राष्ट्र के लिए बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह है। अनेकानेक बीमारियों का बढ़ना इसी आलसी प्रवृत्ति का परिणाम है। डायबिटीज, डिप्रेशन, हाइपरटेंशन एवं मोटापा जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं। कुछ लोगों ने इसीलिए सक्रिय होना स्वीकार किया है इसीलिए वे जिम जाने, सुबह पार्क में टहलने या योग करने को विवश हुए हैं, लेकिन यह सब पर्याप्त नहीं है। 
 
बढ़ती सुविधावादी जीवनशैली ने आदमी को ज्यादा आलसी बनाया है। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहां के लोगों ने सुविधा और साधनों को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया है। सुखवाद और सुविधावाद की मानसिकता को संयम का बोध-पाठ देना होगा अन्यथा अकर्मण्यता, अपसंस्कृति और विलासिता का बढ़ता सैलाब हमारी संस्कृति और संस्कारों की धरोहर को ले डूबेगा। समाज एवं देश की नेतृत्व-शक्ति का दायित्व है कि वो देशहितों के साथ-साथ आने वाली पीढ़ियों के संस्कारों की सुरक्षा करें ताकि आलसी होने का संकट टल सके।
 
हाल के सामाजिक-आर्थिक विकास ने कई सुविधाएं पैदा की हैं, तो कई समस्याओं को भी न्योता दिया है। समृद्धि बढ़ने के साथ हर आय-वर्ग के लोगों का कार रखना आम बात है। पहले लोग खरीद-फरोख्त और मनोरंजन के लिए दूर-दूर निकल जाते थे, अब ऐसे सभी कामों के लिए वे कार से जाते हैं। बाजार खुद घर के भीतर तक आ पहुंचा है। ऑनलाइन शॉपिंग की सुविधा मिलने के बाद खरीदारी के लिए बाहर जाने की जरूरत ही नहीं रह गई है। खाना तक घर पहुंचाया जा रहा है। ऐसे में चलने-फिरने का कोई दबाव किसी पर नहीं है।
 
विशेषज्ञों और डायटिशियन के अनुसार फिट रहने के लिए रोज 10,000 कदम चलना जरूरी है। इतना ही नहीं, आपको पूरे दिन एक्टिव रहना होगा। इसके लिए हमें अपने रहन-सहन के साथ अपनी सोच भी बदलनी होगी। चलने-फिरने का कोई मौका हाथ से न जाने दें।
 
दफ्तरों में वर्क कल्चर ऐसा बनाया जाए कि लोगों को सक्रिय एवं जागरूक रहने का अवसर मिले। हमें अपनी जरूरत से जुड़े काम खुद करने की आदत डालनी होगी। इसके लिए सबसे पहले इस सोच से मुक्त होना होगा कि शिक्षित और समृद्ध व्यक्ति अपने काम दूसरों से करवाता है। 
 
आज उद्देश्यों की ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए औरों की बैसाखियां नहीं चाहिए। हमें खुद सीढ़ियां चढ़कर मंजिल तक पहुंचाना है। अपनी क्षमताओं पर अविश्वास कर आलसी और अकर्मण्य नहीं बनना है। हमें खुद ब्रह्मा बनकर अपना भाग्यलेख लिखना है। औरों के विचारों एवं साधनों पर अपना घर नहीं बनाना है। जीवन का हर क्षण एक अवसर है। आंखें मूंदें रहकर उसे खोना नहीं है। यदि अब भी आंख खोलकर देखना शुरू नहीं किया तो उजाला घर में हो या बाहर, कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
 
हम कह सकते हैं कि यह सर्वेक्षण अधूरा है, क्योंकि इसमें सिर्फ स्मार्टफोन वालों को शामिल किया गया है। हमारे यहां गांवों में आज भी लोग जबर्दस्त परिश्रम करते हैं। चलते रहना उनकी आदत में शामिल है। लेकिन स्मार्टफोन रखने वाले तबके को भी इतना छोटा न समझें। इसमें महानगरों से लेकर गांवों तक, उच्च वर्ग से लेकर निम्न मध्यवर्ग तक सभी शामिल हैं। 
 
यह सर्वे उन सबके रहन-सहन और स्वास्थ्य पर गहरा रहे संकट की ओर इशारा करता है, क्योंकि जीवन आलस में डूबता है तो समझना चाहिए कि हमने संपूर्ण बुराइयों को बाहर भीतर आने-जाने का खुला रास्ता दे दिया है। इस आलस एवं अकर्मण्यता को बढ़ावा देकर हम अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार देते हैं, क्योंकि जहां आलस है वहां हिंसा है, भय है, परिग्रह है, अवरोध है, अविकास है, आत्मविस्मृति है। व्यक्ति जब-जब बाहरी भीड़ में स्वयं को खो देता है, तब-तब भटकता है, दुःखों की पंक्ति खड़ी कर लेता है। 
 
विशेषज्ञों के अनुसार सुबह 1 घंटे का प्रात: भ्रमण सभी तरह के व्यायाम की पूर्ति कर देता है लेकिन ऐसा नहीं है, पूरा दिन सक्रिय रहना जरूरी है। आलस एवं अकर्मण्यता को दूर करने के लिए मानसिक प्रेरणा का प्रभाव जादू की तरह असर करता है। 
 
यदि हम सोच ही लें कि हम कमजोर हैं, कुछ नहीं कर सकते, तो हम वाकई में कमजोर हो जाएंगे और यदि सोचें कि हम सर्वशक्तिमान हैं, हम व्यवस्था बदल सकते हैं, हम इंकलाब ला सकते हैं, तो हम ले आएंगे। इसके लिए जरूरी है कि हमें बिन बतलाए वक्त का एक लम्हा भी आगे सरकने न पाए, ऐसी जागृति जरूरी है।
 
राष्ट्रीय चरित्र का सुरक्षा कवच है कर्मण्यता एवं अप्रमाद, जहां जागती आंखों की पहरेदारी में बुराइयों की घुसपैठ संभव ही नहीं। इसलिए मनुष्य की परिस्थितियां बदले, उससे पहले प्रकृति एवं जीवनशैली बदलनी जरूरी है। आलस राष्ट्र की धमनियों में फैल रहा ऐसा जहर है, जो संपूर्ण संभावनाओं को ग्रहण लगा सकता है। 
 
जहर नागिन की जीभ में होता तो उसे गिरफ्त में लिया जा सकता है, पर जहर आदमी के शरीर में घुस गया है। आज राष्ट्र के पास बहुत कुछ होते हुए भी 'राष्ट्रीय चरित्र' के अभाव में हमारे 250 करोड़ हाथ ताकत नहीं कमजोरी साबित हो रहे हैं। हमारा वजन राष्ट्र ढो रहा है, जबकि राष्ट्र का भार हमारे कंधों को उठाना चाहिए था।
 
एक और प्रमुख वैचारिक और मनोवैज्ञानिक बाधा है, वह है- 'विधि का विधान या भाग्य'। कहीं लिखा है कि 'कलियुग में दिन-प्रतिदिन धर्म की हानि व अधर्मोन्नति होगी' तो ऐसा ही होगा, यह मान लेना गलत है। भाग्य के भरोसे बैठना या बैठे रहना मूर्खता है अर्थात जो आलसी होता है, वही भाग्य का रोना रोता है। 
 
हमें एक नई जीवनशैली को विकसित करना होगा। बस, वही क्षण जीवन का सार्थक है जिसे हम पूरी जागरूकता के साथ जीते हैं और वही जागती आंखों का सच है जिसे पाना हमारा मकसद है। ऐसा करके ही हम आलसी होने के कलंक से स्वयं को मुक्त कर पाएंगे।
 
 

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