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सामाजिक समरसता एवं पर्यावरण की पाठशाला- संयुक्त परिवार

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हमें फॉलो करें Importance of Family
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सुशील कुमार शर्मा

परिवार की परिभाषा के अंतर्गत हम कह सकते हैं कि 'सम्मिलित आवास वाले रक्त संबंधियों का समूह परिवार कहलाता है'। मानव जीवन की यात्रा का शुभारंभ परिवार से ही होता है एवं मनुष्य की प्रारंभिक एवं मूलभूत सुविधाओं की पूर्ति परिवार से ही होती है।


 
भारतीय समाज में दो प्रकार के परिवार अस्तित्व में हैं- (1) एकल परिवार एवं (2) संयुक्त परिवार। एकल परिवार का सिद्धांत बिलकुल नया है जबकि संयुक्त परिवार की संकल्पना बहुत प्राचीन है व भारतीय समाज में रची-बसी है।
 
संयुक्त परिवार का इतिहास बहुत पुराना है एवं इसकी शुरुआत कबीलों के अस्तित्व में आने से हुई। प्रारंभ में एक ही आवासीय एवं रक्त-संबंधों के बीच विवाह की परंपरा थी जिससे उस कबीले के लोग रक्त एवं भावनात्मक रूप से जुड़े रहते थे एवं एक ही आवासीय परिसर में इकठ्ठे रहते थे। धीरे-धीरे विकास के साथ कबीले संयुक्त परिवार में बदल गए।
 
संयुक्त परिवार एकल परिवारों का समूह है जिसमें परिवार के प्रत्येक सदस्य की जिम्मेवारी, सुविधाएं एवं सुख-दुख साझा होते हैं। इसमें एक मुखिया होता है, जो परिवार की नीतियों एवं अनुशासन का संचालन करता है।
 
भारतीय समाज में दो प्रकार के संयुक्त परिवार अस्तित्व में हैं। प्रथम वो परिवार जिनके सभी एकल परिवारों की रसोई साझा चूल्हा होती है एवं दूसरे वो जिनका आवास एक ही घर या परिसर में होता लेकिन रसोई अलग होती है। प्रथम प्रकार के संयुक्त परिवार तो विलुप्तप्राय: है लेकिन दूसरे प्रकार के परिवार अभी भी भारतीय संस्कृति और मान्यताओं को सहेजे हुए हैं।
 
भारतीय समाज हमेशा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विचारधारा से संचालित रहा है एवं इसी भावना का मूर्तरूप संयुक्त परिवार है। रामराज्य से लेकर कृष्ण के साम्राज्य तक संयुक्त परिवार की संकल्पना का पोषण हुआ है।
 
संयुक्त परिवार उस वटवृक्ष जैसा है जिसे स्वयं नहीं मालूम कि उसकी जड़ें कितनी और कहां तक फैली हैं। संयुक्त परिवार में शिशु के लालन-पालन से लेकर उसके समाजीकरण की प्रक्रिया का उद्भव होता है एवं उचित मार्गदर्शन एवं देखरेख में उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है।
 
देश के बदलते सामाजिक एवं आर्थिक आबादी संतुलन के साथ परिवारों के रहन-सहन की दशाएं भी चुनौतीपूर्ण हो गई हैं। 80 के दशक के बाद ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों का पलायन बहुत तेजी से हुआ है। बच्चों की पढ़ाई एवं रोजगार की तलाश में संयुक्त परिवार टूट-टूटकर शहरों की ओर स्थानापन्न हो गए। हमने दादी के नुस्खे, दादा की कहानियां, ताऊ का सयानापन, ताई की झिड़की, काकी का दुलार, काका की डांट और माता-पिता का अपने बच्चों को दूर से बढ़ते हुए देखने का सुख खो दिया है।
 
 

सामाजिक समरसता का प्रतिष्ठान 

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संयुक्त परिवार में पला-बढ़ा व्यक्ति बहुमुखी प्रतिभा का धनी होता है, क्योंकि वह नैतिक एवं विविध संस्कारों व व्यक्तित्वों के बीच पनपता है। उसका व्यवहार एकांगी नहीं होता है तथा वह संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों के व्यवहारों का सम्मिश्रण होता है। सभी से कैसे सामंजस्य बिठाना है, कैसे अपने स्वार्थ के इतर दूसरों का ख्याल रखना है, सामाजिकता कैसे निभानी है, प्रेम-विश्वास एवं सहयोग इन सारे संस्कारों का विद्यालय सिर्फ संयुक्त परिवार ही है। अकेलेपन एवं बेरोजगारी से बचने में संयुक्त परिवार की अहम भूमिका है।
 
संयुक्त परिवार व्यक्ति में राष्ट्र निर्माण के संस्कार डालता है। वह सिखाता है कि राष्ट्र का निर्माण उस राष्ट्र के लोगों ने जो प्राप्त किया है उससे नहीं वरन दूसरों के लिए जो छोड़ा है, जो त्याग किया है, उससे होता है। संयुक्त परिवार हमें सामाजिक एवं नैतिक संस्कारों की जड़ों तक ले जाता है, जहां से व्यक्ति में अनुशासन एवं स्वतंत्रता की भावना का उदय होता है।
 
सामाजिक परंपराओं एवं धार्मिक मान्यताओं को आचरण में उतारने का कार्य भी संयुक्त परिवार करता है। सामाजिक अवसरों की प्रथाएं, उत्सवों के मनाने के तरीके, सामाजिक आचरणों की सीख, प्राकृतिक नियमों का पालन, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां, पर्यावरण संरक्षण आदि सभी व्यावहारिक ज्ञान हमें संयुक्त परिवार के बुजुर्गों से प्राप्त होता है। दादी सासों एवं सासों द्वारा अपनी बहुओं एवं बेटियों को बहुत सारी स्त्रीजन्य जीवनोपयोगी बातें झिड़ककर, प्रेम से एवं अपने आचरण से संयुक्त परिवार में सिखाई जाती हैं। इस प्रकार पीढ़ियों में व्यावहारिक ज्ञान का हस्तांतरण स्वत: हो जाता है।
 
पर्यावरण संरक्षण की पाठशाला
 
भारतीय संस्कृति में प्रकृति के संरक्षण व संवर्धन का दायित्व समाज एवं परिवार से जुड़ा है। वैश्वीकरण के दौर में पश्चिमी सभ्यता कब भारतीय जीवन में प्रवेश कर गई, पता ही नहीं चला। इस पश्चिमी सभ्यता के चलते भारतीय समाज पर्यावरण संरक्षण के प्रति उदासीन होता जा रहा है। संयुक्त परिवार की पर्यावरण संतुलन में अहम भूमिका है।
 
बसाहट के मामले में देखें तो संयुक्त परिवार में 20 से 40 लोग एक ही परिसर में रहते हैं जबकि एकल परिवार में 2 से 4 व्यक्ति ही एक परिसर या आवास में रहते हैं जिस कारण आवास की विकट समस्या देश के समक्ष है। पानी एवं बिजली की बचत करना भी संयुक्त परिवार सिखाता है। औसतन एक व्यक्ति के लिए पानी का खर्च 60 से 70 लीटर होता है लेकिन संयुक्त परिवार में ये खर्च घटकर 30 से 40 लीटर हो जाता है। 
 
बिजली की खपत भी संयुक्त परिवार में प्रति व्यक्ति करीब 30 से 40 यूनिट कम होती है। ईंधन की बचत के मामले में भी संयुक्त परिवार बहुत कारगर है, जहां एक बार चूल्हा या गैस जलने पर 2 से 4 व्यक्तियों का ही भोजन बनता है। संयुक्त परिवार में 10 से 20 व्यक्तियों का भोजन बन जाता है। 
 
स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी दादी या दादाजी के आयुर्वेदिक व घरेलू नुख्सों से दूर हो जाती हैं जिससे दवाओं का खर्च बचता है। सभी सदस्य एक-दूसरे के स्वास्थ्य के प्रति सजग रहते हैं। शिशुओं की उचित देखभाल के कारण अच्छा शारीरिक विकास होता है। संयुक्त परिवार में पशु पाले जाते हैं व उनको परिवार का सदस्य मानकर उनकी देखभाल की जाती है, इस कारण से व्यक्ति में जानवरों के प्रति संवेदना का भाव उत्पन्न होता है।
 
आज परिवार अधिनायकवादी आदर्शों से प्रजातांत्रिक आदर्शों की ओर बढ़ रहे हैं जिससे संयुक्त परिवारों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। जहां एकल परिवार में स्वार्थ की भावना पनपती है, संकट के समय परिवार की स्थिति दयनीय हो जाती है, शिशुओं की देखभाल सही तरीके से नहीं हो पाती है एवं उचित परामर्श के अभाव में अपव्यय होता है व सहयोग की भावना नहीं पनपती है, वहीं इसके इतर संयुक्त परिवार धार्मिक मान्यताओं, सामाजिक समरसता व पर्यावरण संतुलन को व्यक्ति के व्यक्तित्व में समाहित कर उसे पूर्ण विकास के पथ पर अग्रसर करता है। 
 
संयुक्त परिवार टूटने के कारण वृद्धजनों की समस्याएं विराट होती जा रही हैं। वृद्धजनों को भावनात्मक, सामाजिक, वित्तीय एवं स्वास्थ्य संबंधी कठनाइयों से गुजरना पड़ रहा है एवं उनमें असुरक्षा की भावना घर कर रही है। पारिवारिक रिश्तों को सहेजने, समेटने व संरक्षित करने का प्रतिष्ठान संयुक्त परिवार है।

 

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