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भारत द्वारा सम्मेलन का बहिष्कार उचित

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अवधेश कुमार

इस समय भारत के कुछ विशेषज्ञों की चिंता है कि जिस तरह चीन का वन बेल्ट वन रोड या ओबीओआर परियोजनाओं पर बुलाया गया, सम्मेलन सफल दिख रहा है। उसमें हमारे अलग-थलग पड़ जाने का खतरा पैदा हो सकता है। ध्यान रखिए कि भारत ने इस दो दिवसीय सम्मेलन का घोषणा करके बहिष्कार किया था। लेकिन जरा यह सोचिए कि अगर भारत इसमें शामिल होता, तो यह कितना बड़ा जोखिम होता? चीन पाकिस्तान के साथ चीन पाक आर्थिक गलियारा या सीपेक समझौता अब मूर्त रुप ले रहा है। सीपेक के तहत पाक के ग्वादर पोर्ट को चीन के शिनजियांग को जोड़ा जा रहा है। इसमें सड़क, रेलवे, विद्युत योजनाएं समेत कई आधारभूत संरचना विकसित किए जाएंगे। यह गलियारा पाक के कब्जे वाले कश्मीर से गुजर रहा है। इसका विरोध भारत आरंभ से कर रहा है, क्योंकि इससे चीन पाकिस्तान को कश्मीर के उस भाग पर कब्जे को एक प्रकार से वैध मान रहा है। यह सीपेक ओबीओआर का अंग है। तो भारत ऐसी परियोजना का हिस्सा कैसे हो सकता है जिसमें पाक अधिकृत कश्मीर से हमारा दावा ही कमजोर हो सकता है। फिर इससे क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे पर असर पड़ेगा सो अलग। हमारे लिए इस समय महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम दुनिया में अलग-थलग पड़ रहे हैं, बल्कि यह कि हमारे कश्मीर के भाग में इस तरह के निर्माण से हमारा दावा कमजोर पड़ता है। इससे हमारी संप्रभुता जुड़ी हुई है। इस नाते भारत का बहिष्कार बिल्कुल उचित है। 
 
चीन कह रहा है कि जिस कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत चिंतित है, उसके संबंध में हम जोर देकर कह रहे हैं कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच काफी पहले से चला आ रहा है और दोनों पक्षों को बातचीत के जरिए इसका समाधान निकालना चाहिए। सीपीईसी आर्थिक सहयोग पर एक पहल है, यह क्षेत्रीय संप्रभुता से जुड़े विवादों से संबंधित नहीं है और कश्मीर मुद्दे पर चीन के रुख को प्रभावित नहीं करती। क्या इस स्पष्टीकरण से हमारी आशंकाओं का निवारण हो जाता है? कतई नहीं। यह बात भी ठीक है कि सम्मेलन में 29 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ करीब 100 देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधि शामिल हुए। इसे बीजिंग अपनी योजना की शुरुआती बड़ी सफलता के रुप में देख रहा है। ओबीओआर राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी योजना है। चीन ने इसे न्यू सिल्क समिट यानी नया रेशम शिखर सम्मेलन नाम दिया। उसने न्यू सिल्क रोड योजना में 80 खरब रुपए के निवेश की घोषणा की और कहा कि इस परियोजना का हिस्सा बनने के लिए वह हर देश का स्वागत करता है। 
 
करीब 1000 साल पहले तक यूरोप, मध्य एशिया और अरब से चीन को जोड़ने वाला एक बड़ा व्यापारिक मार्ग चलन में था, जिसे रेशम मार्ग कहा जाता था। भारतीय व्यापारी भी इसका प्रयोग करते थे। चीन ओबीओआर महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत उसे फिर से जीवित करना चाहता है। उसकी इस पप्रस्तावित ‘वन बेल्ट वन रोड’ के दो रूट होंगे। पहला जमीनी रास्ता चीन को मध्य एशिया के जरिए यूरोप से जोड़ेगा, जिसे कभी सिल्क रोड कहा जाता था। यानी यह आथिक रूट सड़कों के जरिए गुजरेगा और रूस-ईरान-इराक को कवर करेगा। दूसरा रूट समुद्र मार्ग से चीन को दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्वी अफ्रीका होते हुए यूरोप से जोड़ेगा, जिसे नया मैरिटाइम सिल्क रोड कहा जा रहा है। ये चीन को दुनिया के कई बंदरगाह से भी जोड़ देगा। इसे दक्षिण चीन सागर के जरिए इंडोनेशिया, बंगाल की खाड़ी, श्रीलंका, भारत, पाकिस्तान, ओमान के रास्ते इराक तक ले जाने की योजना है। पाक से साथ बन रहे सीपेक को इसी का हिस्सा माना जा सकता है। बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार के साथ एक गलियारा (बीसीआईएम) की भी योजना है।
 
भारत के लिए पहली नजर में यह चिंता की बात हो सकती है कि दक्षिण एशिया में भूटान को छोड़कर ज्यादातर देशों ने इसमें भाग लियां। नेपाल ने सम्मेलन के पूर्व ही इस परियोजना के लिए चीन से समझौता किया तथा उसके बाद वह एक क्रॉस-बॉर्डर रेल लिंक के निर्माण को लेकर चीन से संपर्क में है जिसकी कीमत करीब आठ बिलियन डॉलर (पांच खरब से ज्यादा) बताई जा रही है। नेपाल के विदेश मंत्रालय ने इसकी औपचारिक घोषणा की।  मंत्रालय के एक सचिव युग राज पांडे के हवाले से रॉयटर्स ने बताया कि प्रस्तावित 550 किलोमीटर लंबा यह रेलवे लिंक पश्चिमी चीन को नेपाल की राजधानी काठमांडू से जोड़ेगा जिससे उत्पादों और यात्रियों की आवाजाही होगी। भारत के विरोध के बावजूद नेपाल ने चीनी परियोजना में शामिल होने के फैसले को सही ठहराया था। नेपाल के अलावा पाकिस्तान ने सम्मेलन में 550 मिलियन डॉलर (35 अरब रुपये से ज्यादा) के निवेश के समझौते पर हस्ताक्षर किए। उसे तो करना ही था। चिंता का विषय ब्रिटेन का रवैया भी रहा। 
सम्मेलन में ब्रिटिश वित्त मंत्री फिलिप हैमन्ड ने कहा कि न्यू सिल्क प्रोग्राम में ब्रिटेन चीन का स्वाभाविक साझेदार है और यूरोपीय संघ से निकलने के बाद वह दुनियाभर से ज्यादा व्यापार चाहता है। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने उद्घाटन भाषण में चीन के दृष्टिकोण का जिक्र करते हुए प्राचीन रेशम मार्ग का संदर्भ दिया और सिंधु तथा गंगा सभ्यताओं सहित विभिन्न सभ्यताओं के महत्व पर अपनी बात रखी। सीपेक को लेकर भारत की आपत्तियों का जिक्र किए बिना शी ने कहा कि सभी देशों को एक दूसरे की संप्रभुता, मर्यादा और भूभागीय एकता का, एक दूसरे के विकास के रास्ते का, सामाजिक प्रणालियों का और एक दूसरे के प्रमुख हितों तथा बड़ी चिंताओं का सम्मान करना चाहिए। शी ने कहा कि बेल्ट ऐंड रोड पहल सदी की परियोजना है जिससे पूरी दुनिया के लोगों को लाभ होगा। शी ने कहा कि चीन की योजना ऐसा मार्ग बनाने की है जो शांति के लिए हो और एशिया, यूरोप तथा अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों से उनके देश को जोड़े। उनका भाषण सुनने में बहुत ही प्रिय था। बावजूद इसके वह हमारी भूभागीय एकता को तो मानता नहीं। दूसरे, जिन देशों ने हिस्सा लिया वे भी चीन के रवैये से आशंकित थे और हैं। 
 
उदाहरण के लिए अमेरिका ने भी वहां अपना एक प्रतिनिधिमंडल भेजा किंतु अमेरिकी कूटनीतिज्ञ और विशेषज्ञ मान रहे हैं कि चीन खुद को केंद्र में रखकर एक राजनीतिक-आर्थिक नेटवर्क तैयार कर रहा है और अमेरिका को इस क्षेत्र से बाहर करना चाहता है। पहले अमेरिका के साथ जर्मनी, फ्रांस जैसे अनेक देशों ने सम्मेलन से दूर रहने का ऐलान किया था। वस्तुतः अधिकतर देशों को लगता है कि इसके जरिए चीन दुनिया में अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहता है। रूस को लगता है, उज्बेकिस्तान जैसे देश को अपनी परियोजना से जोड़कर चीन मध्य एशिया में मास्को के प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहा है। इंडोनेशिया के विपक्षी दलों का मानना है कि इससे चीन की दादागीरी बढ़ेगी। यह भी सच है कि इस परियोजना की वजह से गरीब देश कर्ज के बोझ से दब जाएंगे। हालांकि चीन इन आरोपों से इनकार करता है। उसका कहना है कि इसके पीछे विशुद्ध व्यापारिक मकसद है और इसमें शामिल देशों को वह बाजार के सिद्धांतों पर कर्ज देता है। लेकिन यह भी सच है कि वह चीनी तकनीक के इस्तेमाल और अपने बिल्डरों को काम देने पर जोर देता है।
 
इसलिए व्यावहारिक यही है कि हम जल्दबाजी में अपने को अलग-थलग न माने। अभी चीन ने अपनी थैली खोली हुई है। भारत ने उन सभी देशों को आगाह कर दिया है कि जो इस परियोजना में चीन से भारी मात्रा में कर्ज ले रहे हैं। कई देशों पर कर्ज उनकी चुकता करने की क्षमता से ज्यादा हो रहा है। चीन की महत्वाकांक्षा विश्व की आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बनना है। उसमें हम भागीदार क्यों हों? सम्मेलन में भाग लेने वाले अनेक देश भी भागीदार नहीं होना चाहेंगे। क्या आप मानते हैं कि जापान जैसा देश चीन की इस योजना का अंग बन जाएगा? दक्षिण चीन सागर के विवाद में पड़े हुए देश उसकी इस वन बेल्ट वन रोड योजना में खुशी-खुशी शामिल हो जाएंगे? हां, भारत के लिए जरुरी हो गया है कि वह चीन की इस योजना के समानांतर अपनी कूटनीति को तीव्र करे तथा देशों के साथ मिलकर ऐसी परियोजनाओं की ओर बढ़े जिससे हमारा संपर्क भी विस्तृत हो। और इस पर बाजाब्ता काम हो रहा है। भारत ने जापान के साझेदारी में अफ्रीका, ईरान, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया में बहुत से आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की तैयारी कर ली है। ईरान के चाबहार बंदरगाह के विस्तार और उसके नजदीक विशेष आर्थिक जोन पर भारत की ओर से किए जा रहे काम में जापान भी शामिल हो सकता है। इसके अलावा पूर्वी श्रीलंका में भारत और जापान संयुक्त रूप से त्रिंकोमाली बंदरगाह का विस्तार कर सकते हैं। दोनों देशों की योजना थाइलैंड-म्यांमार सीमा पर दावेई बंदरगाह को विकसित करने की भी है। भारत और जापान की ये कोशिशें एशिया-प्रशांत से अफ्रीका तक मुक्त गलियारा बनाने की योजना का हिस्सा हैं। इसका मकसद इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल के मद्देनजर संतुलन की स्थिति बनाने का है। इसके अलावा और भी योजनाएं हैं। 

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