हाल ही में मेरी नजर में दो खबरें आई हैं। पहली ये कि हमने पाकिस्तान के कबड्ड़ी खिलाड़ियों को भारत में खेलने आने से मना कर दिया है और दूसरी ये कि कनाडा ने हमारे केंद्रीय रिजर्व पुलिसबल (सीआरपीएफ) के एक पूर्व महानिरीक्षक टीएस ढिल्लन को अपने देश में प्रवेश नहीं करने दिया। वाजिब बात है कि हमारे अफसर को कनाडा में प्रवेश नहीं देने पर हमें जोर का धक्का लगा होगा और लगना भी चाहिए, विदेश में भारतीयों की साख का जो सवाल है। लेकिन हमने जब पाकिस्तान के कबड्डी खिलाड़ियों को मना किया तब हमें इस बात का जरा भी इल्म नहीं रहा होगा कि ये हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं।
उस समय तो इस तरह का निर्णय लेने वाले नेताओं को खुद पर फख्र हो रहा होगा कि उन्होंने जो कदम उठाया है वह किसी ऐरे-गैरे के बस की बात नहीं है। निश्चय ही एक राष्ट्रवादी और सच्चे देशभक्त का भाव भी जगा होगा, जगना भी चाहिए क्योंकि यहां हमारा अपमान नहीं हुआ, बल्कि हमने किसी का अपमान किया है। न ही हमारे मान-सम्मान को ठेस पहुंची और न ही हमारी साख खराब हुई उल्टे हमने यह कृत्य करके किसी को जलील ही किया। बेशक हमारे इस फैसले पर गर्व का अनुभव महसूस होना चाहिए था और कुछ हद तक हमारे नीति निमार्ताओं ने किया भी।
बहरहाल, जब हम इस तरह के फैसले लेते हैं तो ये बात कतई ध्यान में नहीं रखते हैं कि हमारे साथ भी कभी इस तरह की घटना घट सकती है। सबसे पहले हम बात करते हैं पाकिस्तान के कबड्डी खिलाड़ियों की। क्या भारत में इन खिलाड़ियों को नहीं आने देने से हमने देशभक्ति का परिचय दिया है या फिर ओछी मानसिकता के साथ ये साबित करने का कुंठित साहस किया है कि हम भी कुत्ते के काटने पर काटेंगे। बेशक, हमारे खेलमंत्री विजय गोयल का यह निर्णय न केवल कायरता से भरा है बल्कि इस बात का भी परिचायक है कि वे पाकिस्तान के कितने विरोधी हैं।
अगर एक मुल्क का जिम्मेदार मंत्री पूर्वाग्रहित होकर ऐसे फैसले लेगा तो कोई ताकत नहीं है जो हमारे साथ भी होने वाले इस तरह के कृत्यों पर रोक लगा सके। मेरी समझ से तो खेलमंत्री ने पाकिस्तान के कबड्डी खिलाड़ियों को हमारे यहां खेलने की इजाजत न देकर पाक को वैश्विक स्तर पर जलील करने का प्रयास किया होगा या फिर वे जिस राजनीतिक दल से सरोकार रखते हैं उसके आकाओं को खुश करने का काम किया हो। लेकिन ये भी ठीक से नहीं कर पाए। असल में इस फैसले के पीछे खेलमंत्री विजय की यह सोच रही होगी कि अगर वे इस तरह की पहल करेंगे तो आरएसएस के उग्र हिंदूवादी सोच के नेता खुश होंगे और उनकी नजर में एक सच्चा हिंदूवादी राष्ट्रभक्त साबित होने का अवसर मिलेगा।
अब इन जनाब को ये कौन समझाए कि एक देश के मंत्री को अपने नेताओं को इस तरह से खुश करने का कोई अधिकार नहीं बनता है। एक मंत्री की हैसियत से न सोचकर पार्टी के कार्यकर्ता की तरह निर्णय लेने का अधिकार नहीं है खेलमंत्री को। इन जनाब को ये भी कौन समझाए कि खिलाड़ियों के लिए सरहदें बांधकर भी कोई शांति कायम नहीं की जा सकती है, उल्टे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उस पहल को ही पलीता लगाया जा सकता है जो वैश्विक स्तर पर भारत की साख को उदारवादी राष्ट्र के रूप में निर्मित करना चाहते हैं। दरअसल यह भी सच नहीं है कि खिलाड़ियों पर इस तरह से रोक लगाकर हम अपनी सीमा पर डटे सैनिक की होसलाअफजाई कर रहे या आतंकवादी हमलों का करारा जवाब दे रहे हैं। हमने भारत में पाक के कबड्डी खिलाड़ियों को आने की इजाजत न देकर सैनिकों का मान-मनोबल भी नहीं बढ़ाया है।
सच कहूं तो फोकट की राजनीति कर एक अपरिपक्व नेता का परिचय भर दिया है। इस तरह की हरकतों से यहां सवाल यह भी लाजिमी है कि क्या हमारे जिम्मेदार लोगों को ये नादानियां करनी चाहिए। बेशक नहीं। पाकिस्तान के आम नागरिकों के आने से राष्ट्र की सुरक्षा पर विपरीत असर नहीं होता है तो फिर दो-चार कबड्डी खिलाड़ी भारत में आकर खेल भी जाते तो हमारी सुरक्षा व्यवस्था में कौनसी सेंध लगा देते। खेलमंत्री का ये निर्णय तो तभी सही साबित होता, जब हमारी सरकार ने पाकिस्तान से आने-जाने वालों पर रोक लगा रखी हो। क्या हम पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं। हमारा आना-जाना नहीं चल रहा है, फिर क्यों ये फिजूल का निर्णय लेकर बेवजह की वाहवाही लूटने का कुंठित प्रयास किया। खेलमंत्री को जिन पर रोक लगाना है उन पर तो रोक लगा नहीं पा रह हैं।
आपको बताते चलें कि आगामी माह में भारत और पाकिस्तन इंग्लैंड के बर्मिंघम में चैंपियंस ट्रॉफी को लेकर आमने-सामने होने जा रहे हैं। क्या वहां उनके साथ खेलना जायज है। अगर इन दोनों टीमों का वहां खेलना जायज हो सकता है तो फिर भारत में कबड्डी खिलाड़ियों का प्रवेश नाजायज कैसे हो सकता है, सोचने वाली बात है। खैर। यह फैसला खेलभावना की नजर से लिया ही नहीं गया था। जिस पाकिस्तान को हम उसकी बेजा हरकतों के लिए दिन-रात कोसते हैं, इस मामले में वही हरकत हमने की है। जब-जब भी हम खेलभावना को नजरअंदाज करेंगे, तब-तब हमारे साथ भी विदेशों में कुछ इसी तरह का सलूक होता रहेगा।
काबिलेगौर हो कि जिस तरह से आतंकवादी गतिविधियों को लेकर हम पाकिस्तान के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, ठीक उसी तरह का आतंकी आचरण करार देकर हमारे सीआरपीएफ के पूर्व अधिकारी टीएस ढिल्लन के साथ हुई है। महानिरीक्षक टीएस ढिल्लन 2010 में सेवानिवृत्त हो गए थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कनाडा में उनको केवल इसलिए प्रवेश नहीं करने दिया गया कि वे एक ऐसे संगठन के साथ काम कर चुके हैं जो 'आतंकवाद एवं मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन' में शामिल हैं। जाहिर है, यहां जिक्र सीआरपीएफ का ही हो रहा है। कनाड़ा में हमारे पूर्व सीआरपीएफ अफसर के साथ इस तरह का बर्ताव कई गंभीर सवाल खड़े करता है।
क्या कनाडा जैसे देश में हमारे केंद्रीय रिजर्व पुलिसबल की ऐसी छवि बनी है? या इस घटना को लेकर ये समझा जा सकता है कि विदेशों में भारत की छवि मानवाधिकारों के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन ना करने वाले देश की बन रही है। जो भी हो, लेकिन यह बड़े चिंता का सबब है। पहले पहल तो कनाडा में हवाईअड्डे के अधिकारियों द्वारा ढिल्लन को प्रवेश नहीं देने के संबंध में ये कयास लगाए गए कि उनके वीजा संबंधी दस्तावेज में गड़बड़ी हुई होगी या फिर किसी निजी रिकॉर्ड के आधार पर प्रवेश वर्जित किया गया होगा लेकिन जब इन सबको नकार कर वहां के अफसरों ने सवाल ये दागा कि ढिल्लन जिस संगठन में काम कर चुके हैं वे 'आतंकवाद एवं मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन' में शामिल है तो एक पल तो ऐसे लगा जैसे पैरों तले जमीन खिसकने लगी हो। गंभीर मसला तो ये है कि इसके पूर्व कभी कोई ऐसी घटना सामने नहीं आई, जिसमें किसी देश ने किसी भारतीय सुरक्षाबल से महज जुड़े होने के आधार पर अपने देश में प्रवेश से मना किया हो।
बता दें कि ढिल्लन कनाडा में एक पारिवारिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए पिछले 18 मई को अपनी पत्नी के साथ एक हवाईअड्डे पर उतरे, लेकिन उन्हें वहीं रोककर 20 मई को एक उड़ान में वापस भारत भेज दिया, जबकि उनकी पत्नी को कनाडा में उनके गंतव्य तक जाने दिया। इस घटना के संबंध में ढिल्लन ने बताया कि 'मैंने उनसे कहा कि मैं सीआरपीएफ का सेवानिवृत्त अधिकारी हूं, लेकिन उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी और उल्टे ये कहा कि मेरा बल मानवाधिकार उल्लंघनों में संलिप्त है। हालांकि इस घटना के बाद भारत स्थित कनाडा के उच्चायुक्त नादिर पटेल ने आहत भारतीय भावनाओं पर मरहम लगाने की कोशिश की, लेकिन वे भी ढिल्लन के साथ घटी घटना के औचित्य पर कुछ सफाई नहीं दे पाए।
बहरहाल, भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए सीआरपीएफ जैसे प्रतिष्ठित बल के इस तरह के वर्णन को पूरी तरह अस्वीकार्य किया है, लेकिन ये प्रतिक्रिया काफी नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये घटना उस समय घटित हुई है, जब कश्मीर में एक नागरिक को मानव ढाल बनाने का मामला वैश्विक स्तर पर बहुचर्चित है। यह विचारणीय है कि क्या ऐसे प्रकरणों का कनाडा जैसे देशों में भारत की बनती छवि से कोई संबंध है? भारतीय कूटनीति के सामने यह जानने की चुनौती है कि आखिर कनाडा ने ऐसा क्यों किया? क्या अंदरुनी सुरक्षा कार्रवाइयों का औचित्य दूसरे देशों के सामने प्रभावशाली ढंग से रखने में भारत सरकार नाकाम हो रही है या फिर वैश्विक स्तर पर जिस तरह के फैसले हम ले रहे है उसका असर हो रहा है।
हमें इस बात का हमेशा ख्याल रखना होगा कि भारत, पाकिस्तान से जुदा और अलहदा राष्ट्र है। हमें अपनी साख को बनाए रखने के लिए कोई भी ऐसा फैसला नहीं करना चाहिए जिसके चलते विदेशों में इज्जत खराब हो और दूसरे देशों में हमारी थू-थू हो। आज कनाडा है कल कोई और देश हो सकता है। 'वसुदेव कुटुबंकम' की परंपरा को जीने वाले भारतीयों को विदेशों में नीचा दिखाने का काम हमारे राजनेताओं को कतई नहीं करना चाहिए। जिस तरह से हमने पाकिस्तान के कबड्डी खिलाड़ियों को भारत में खेलने से रोका है, ठीक उसी तरह का दुर्व्यवहार हमारे अफसर के साथ कनाडा में हुआ है।
इस घटना से तो यही साबित होता है कि अगर पाकिस्तान के प्रति हमारे नागरिकों के मन में थोड़ी सी कटुता को बड़ा रूप देने का काम करेंगे तो दूसरे देशों में भी हमारे प्रति ये कटुता जहर की तरह फैलेगी। हम जब भी इस तरह का एकपक्षीय निर्णय लें तो इसके पूर्व इस बात का भान जरूर रखें कि आज जो हम कर रहे हैं कहीं वैसा ही हमारे साथ घटित न हो। ये घटना हमें इस बात पर विचार करने के लिए मजबूर कर गई है कि आखिर कनाडा में हमारे अफसर के साथ ऐसा क्यों हुआ या ऐसे क्यों किया? इसके साथ ही अब ये सोचने का भी वक्त है कि आखिर हमारे अकडू खेलमंत्री ने खिलाड़ियों को भारत में खेलने से क्यों रोका? अभी तो मतलब साफ है कि जैसा बोओगे, वैसा पाओगे।