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नस्लवादी भारतीयों का बदलना जरूरी

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अनवर जमाल अशरफ

राजधानी दिल्ली में अफ्रीकी देश कांगो के एक छात्र की हत्या और अफ्रीकी मूल के दूसरे लोगों पर हमलों की वजह से भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। कभी खुद नस्लभेदी नीतियों के शिकार रह चुके भारत के लोगों से दुनिया ऐसी अपेक्षा नहीं करती। लेकिन ज्यादा चिंता की बात यह है कि भारतीय समाज लगातार इस बात से इनकार करता आया है कि वह नस्लवादी सोच का है।
दिल्ली की घटना के बाद भारतीय सरकार और दिल्ली पुलिस मामलों को रफा-दफा करने में लग गई। विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह इसे मामूली झगड़ा बता रहे हैं और मीडिया से इसे तूल न देने की अपील कर रहे हैं।
 
सच तो यह है कि भारतीयों का सांस्कृतिक और औपनिवेशिक इतिहास उन्हें स्वभाविक तौर पर नस्लवादी बना देता है और यह विषय इतना वर्जित है कि न तो इस पर कोई चर्चा होती है और न ही इसे दूर करने के उपाय खोजे जाते हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। 
 
इससे पहले इसी साल बेंगलुरु में तंजानिया की एक युवती की सरेआम पिटाई हुई और लोगों ने उसकी कार जला डाली थी। हैदराबाद और मुंबई से भी अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ हिंसा की रिपोर्ट आई।
 
भारतीय विदेशियों, खासतौर पर काले नस्ल के लोगों के साथ घुलना-मिलना नहीं सीख पाए हैं। बच्चे अफ्रीकी लोगों को देखकर कल्लू, कालिया या नीग्रो जैसे शब्द चिल्लाने लगते हैं और कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता। पिछले 20 साल में भारतीय समाज खुला है और इसके लोग दुनियाभर के देशों में पहुंच रहे हैं, अफ्रीका में भी। बल्कि अफ्रीका में बिजनेस करने वाले सबसे ज्यादा लोग चीन और भारत के ही हैं। फिर अफ्रीकी लोगों के साथ नफरत का माहौल क्यों बन जाता है, इसकी वजह उनका काला रंग है।
 
गोरे-काले का फर्क : सदियों तक जातियों में बंटे भारतीय समाज में रंग के आधार पर भेदभाव होता आया है। तथाकथित ऊंची जाति के लोगों की चमड़ी आमतौर पर गोरी होती थी, जबकि निचली जाति के लोग अपेक्षाकृत कम गोरे, सांवले या काले हुआ करते थे। समाज ने शायद तभी से गोरे होने को बेहतर होने का पैमाना मान लिया। अंग्रेजों के राज ने इस मिथ्या को और मजबूत कर दिया, जो खुद गोरे थे और अपेक्षाकृत कम गोरों यानी भारतीयों पर राज कर रहे थे। 
 
गोरी चमड़ी संभ्रांत, कुलीन और शासक वर्ग का प्रतीक बनता चला गया। भारत शायद दुनिया का इकलौता देश है, जहां के फिल्मी सुपरस्टार बिना शर्मिंदा हुए गोरे होने की क्रीम का प्रचार करते हैं, जहां के विज्ञापनों में बताया जाता है कि लड़की गोरी न हो, तो उसकी शादी में दिक्कत हो सकती है। 
 
समाज ऐसे संदेशों को बहुत गंभीरता से लेता है और इसका असर कई पीढ़ियों तक रहता है। अफ्रीकी मूल के लोगों पर हमलों के पीछे भी इस सोच का बड़ा हाथ रहा होगा। भारत खुद को महाशक्ति के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहा है। दावा है कि वह दुनिया के सबसे ताकतवर देशों में शामिल हो चुका है। 
 
यह बात आंशिक रूप से सही हो सकती है, लेकिन उसका समाज खुद को महाशक्ति के तौर पर स्थापित नहीं कर पाया है। एक तरफ गोरे लोगों के देश ब्रिटेन में लंदन की जनता पाकिस्तानी मूल के सादिक खान को मेयर चुनती है और दूसरी तरफ अनेकता में एकता की बात करने वाले भारत में काले लोगों पर हमला होता है। यह विरोधाभास दिखाता है कि बहुसंस्कृति, बहुजातीय और बहुनस्ली व्यवस्था के लिए वे अभी तक तैयार नहीं हो पाए हैं।
 
चिंकी, नेपाली और मल्लू : इसकी शायद एक वजह अंतरराष्ट्रीयता की कमी है। यूरोप और अमेरिका के देशों में विदेशियों, खासकर दक्ष विदेशियों की बहुत कद्र है। इन देशों के दरवाजे बहुत पहले ही विदेशियों के लिए खुल चुके हैं। भारत में अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है। कई जातियों, वर्णों और रंग के होने के बावजूद भारत में दूसरे वर्णों और जातियों का उपहास उड़ाना आम बात है। काले-गोरे तो छोड़िए, चीन के लोगों का भी मजाक उड़ता है, कहा जाता है कि चीनी लोगों की नाक नहीं होती, सबकी शक्ल एक जैसी होती है। 
 
अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को चिंकी और नेपाली कहा जाता है, दक्षिण भारत के लोगों को मल्लू या मद्रासी घोषित कर दिया जाता है। अफ्रीकी मूल के लोगों पर लगातार हो रहे हमले को गंभीरता से लेने की जरूरत है। एक और घटना का इंतजार करना ठीक नहीं होगा। भारत और अफ्रीका के बीच राजनीतिक और सामाजिक रिश्ते बहुत पुराने हैं। 
 
यूगांडा, नाइजीरिया, कांगो और दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देशों में सदियों पहले से भारतीय बसे हैं। भारतीय उद्योग ने अफ्रीका में 50 अरब डॉलर का निवेश कर रखा है, जबकि अफ्रीका के साथ भारत हर साल करीब 70 अरब डॉलर का कारोबार करता है।
 
कौन लेगा छात्रवृत्ति : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अफ्रीकी देशों को बहुत बड़ा पार्टनर मानते हैं और पिछले साल अफ्रीकी शिखर सम्मेलन में उन्होंने 50000 अफ्रीकी छात्रों को भारत में स्कॉलरशिप देने का ऐलान किया था। फिलहाल लगभग 15000 अफ्रीकी मूल के छात्र भारत में पढ़ाई करते हैं। अफ्रीकी छात्रसंघ ने अपने देशों से अपील की है कि उनकी सुरक्षा की गारंटी न होने तक और छात्रों को भारत ने भेजा जाए। यह उनकी योजना के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकता है। 
 
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अफ्रीकी मुल्कों से जो छात्र पढ़ने के लिए भारत जाते हैं, वे अपने देश में लौटकर अहम पदों पर काम करते हैं। वे अगली पीढ़ी के फैसले लेने वाले लोगों में शामिल होते हैं।
 
कूटनीतिक तौर पर भी भारत को इस वर्ग के साथ बेहतर रिश्ते बनाए रखने चाहिए, लेकिन इससे ज्यादा जरूरी समाज को बहुनस्ली व्यवस्था के साथ जीने के लिए तैयार करना है। अफ्रीकी मूल के लोगों को भारत में सुरक्षित महसूस कराना होगा।  
 
अपनी जनता और पुलिस को नस्ली शिक्षा देने की जरूरत है, उन विज्ञापनों पर फौरन पाबंदी लगाने की जरूरत है, जो चमड़ी के रंग को गोरा करने का दावा करते हैं, बल्कि बॉलीवुड को अगली फिल्म की शूटिंग किसी अफ्रीकी देश में करने पर विचार करना चाहिए।

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