दीपावली के दिन की घटना याद आ रही है। उस दिन मैं बाहर बैठा हुआ ऊपर आकाश में उड़ते पंछी को देख रहा था कि वह पंछी अपनी चोंच में दाना लेकर चूजों को खिलाने लगा। पंछी का अभिवादन चूजे पंखों को फड़फड़ा कर तालियों के समान कर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो उनकी भी दीवाली हो। ठीक उसी पेड़ के नीचे बने घर में मां अपने भूखे बच्चों के लिए दीपावली के दिन अपने पति का इंतजार इस उम्मीद से कर रही थी कि वह इनके लिए कुछ ना कुछ तो जरुर लाएंगे।
किन्तु शराब के नशे में दीपावली पर जुएं में हार कर लड़खड़ाते कदमों से घर आने पर मोहल्ले वाले करने लगे उसका गालियों से अभिवादन और मैं बैठा सोचने लगा कि अच्छा है पंछी शराब नहीं पीते, नहीं तो उनके भी हालात उस इंसान की तरह हो जाते जिनके बच्चे दीपावली पर्व पर पेड़ के नीचे बने घर में भूखे सो गए थे। वह शराबी इंसान अब इस दुनिया में नहीं रहा किन्तु उनकी मां मजदूरी कर के अपने बच्चों के संग बिन पति के दूसरी दीपावली मना रही है और सोच रही है कि पति शराब नहीं पीते तो बच्चे अपने पिता के संग पटाखे और रोशनी के दीप जलाते।