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जमीयत ए उलेमा का अधिवेशन: इस तरह की भाषा डर पैदा करती है

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अवधेश कुमार

सामान्यतः जमीयत ए उलेमा ए हिंद या ऐसे संगठनों की बैठकों या सम्मेलनों पर राष्ट्रीय मीडिया की नजर नहीं रहती। छोटी सी खबर आ जाती है। किंतु देवबंद में जमीयत का 2 दिनों का सम्मेलन राष्ट्रीय सुर्खियां पाया तो इसके कारण हैं।

वाराणसी से लेकर मथुरा, आगरा, दिल्ली तक ज्ञानवापी, ईदगाह मस्जिद, ताजमहल और कुतुबमीनार होते हुए मध्यप्रदेश से कर्नाटक तक के विवाद जिस स्थिति में आ गया है, उसमें सबकी रुचि यह जानने में है कि जमीयत सहित मुस्लिम संगठन या देवबंद जैसे महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र की राय क्या है। जब से ये मामले उठे हैं तबसे  भारत के ज्यादातर मुस्लिम नेताओं, मुल्ला ,मौलवी, उलेमाओं, शिक्षाविदों, एक्टिविस्टों आदि ने आम मुसलमानों  के अंदर अनेक प्रकार के डर पैदा करने वाले बयान दिए हैं।

दुर्भाग्य से वे सारे बयान अतिवादी हैं। उन बयानों में सच्चाई के अंश नहीं है। सारे मामले न्यायालयों में चल रहे हैं। भारत में कानून का राज है। कोई सरकार चाहे भी तो किसी स्थल का धार्मिक स्वरूप यूं ही नहीं बदल सकती। कुछ लोग उसे बदलने की कोशिश करेंगे तो उन पर अपराध का मुकदमा दर्ज होगा। क्या देश का कोई भी विवेकशील व्यक्ति ईमानदारी से स्वीकार करेगा कि आज दिखने वाला कोई मस्जिद या इस्लामी का कही जाने वाली संरचना बिना न्यायालय के आदेश से मंदिर या हिंदू संरचना में बदली जा सकती है? कतई नहीं

निश्चित रूप से संपूर्ण भारत और और बाहर के भी हिंदू समाज की चाहत है कि उनके जो भी स्थल मध्यकाल में ध्वस्त कर इस्लामी संरचना में परिणत किए गए वे सारे फिर से मंदिर या हिंदू स्थल में बदले जाएं। किंतु इसके लिए बलपूर्वक उनको तोडोऐसेआ सोचने वाले अत्यंत कम होंगे और जो होंगे उनको समर्थन भी न के बराबर मिलेगा। हां, अगर मुस्लिम नेताओं की ओर से बार-बार आक्रामक बयान दिए जाएंगे तब इसकी प्रतिक्रिया आक्रामक मानसिकता के रूप में आएगी।

इसलिए आज के समय में सबसे पहली जरूरत भाषणों सहित अपने सभी प्रकार के वक्तव्यों में संयमित और शालीन रहने की है। ओवैसी से लेकर शफीक उर रहमान वर्क, माजिद मेनन औरना जाने ऐसे कितने नाम है जिनको लगता ही नहीं कि बोलने में उनको किसी प्रकार के का संयम रखना है। मुसलमानों में महमूद मदनी 
अन्य नेताओं से थोड़ा संतुलित माने जाते रहे हैं। किंतु जमीयत ए उलेमा हिंद के कार्यक्रम में उन्होंने जिस तरह 
के भाषण दिए उससे पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय में मजहबी, बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व की सोच किस दिशा में जा रही हैं। क्या देश में मुसलमानों का सड़कों पर चलना कठिन हो गया है?

जमीयत ए उलेमा हिंद के नेता इस तरह का बयान देते हैं तो इसे क्या कहा जाएगा? क्या आम मुसलमानों से इस देश में नफरत का भाव हिंदू या अन्य समुदाय के लोग रखते हैं? आखिर इस तरह का विवादित बयान देने वाले को हम क्या कहेंगे? देश के प्रति इनकी कोई जिम्मेदारी है या नहीं?

जो प्रस्ताव पारित किए गए वे भी चिंताजनक है। उदाहरण के लिए एक प्रस्ताव में कहा गया कि बनारस और 
मथुरा की निचली अदालतों के आदेश से विभाजनकारी सियासत को मदद मिली है। पूजा स्थल विशेष प्रावधान 
कानून 1991 की स्पष्ट अवहेलना हुई है। संसद से यह तय हो चुका है कि 15 अगस्त, 1947 को जिस इबादतगाह की जो हैसियत थी वह उसी तरह बरकरार रहेगी। निचली अदालतों ने बाबरी मस्जिद के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भी अनदेखी की है। एक और ये लोग कहते रहे हैं कि अदालतों पर उनका विश्वास है और दूसरी और अदालत को ही किसी का पक्षकार बना देने का यह प्रस्ताव! वाकई खतरनाक है।

इन सबको पता है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा ज्ञानवापी में सर्वे या सील करने आदि के आदेश को गलत नहीं कहा गया। पूजा स्थल कानून, 1991 के बारे में भी उच्चतम न्यायालय ने कह दिया कि यह किसी स्थल के धार्मिक स्वरूप की पहचान करने का निषेध नहीं करता है। जब मुसलमानों का सबसे बड़ा संगठन देवबंद जैसे दुनिया भर के मुसलमानों के प्रमुख केंद्र में बैठकर भारत के न्यायालय को परोक्ष रूप में मुस्लिम विरोधी साबित करने की कोशिश रहा है तो कल्पना की जा सकती है कि कैसी मानसिकता पैदा हो चुकी है। सम्मेलन में ऐसा वातावरण बनाया गया मानो मुसलमानों और इस्लाम मजहब के वजूद पर भारत में खतरा उत्पन्न हो गया हो। मौलाना महमूद मदनी ने कहा कि किसी को अगर हमारा मजहब बर्दाश्त नहीं है तो वे मूल्क छोड़कर चले जाए। बात-बात पर पाकिस्तान भेजने वाले खुद पाकिस्तान चले जाएं।

प्रश्न है कि क्या भारत के किसी भी जिम्मेवार राजनीतिक दल, बड़े नेता, सरकार या देश का कोई महत्वपूर्ण बड़ा संगठन कभी किसी मुसलमान को देश से बाहर भेजने की बात करता है? कई बार जब किसी में भारत विरोध या मजहबी अतिवाद दिखती है तो जरूर सामान्य लोगों की प्रतिक्रियायें आतीं हैं कि ऐसे लोगों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। महमूद मदनी या जमात-ए-इस्लामी ने अपने प्रस्ताव में कहीं भी ऐसे मुसलमानों की निंदा नहीं की है जो पाकिस्तान परस्ती से लेकर भारत विरोध की सीमा तक चले जाते हैं। अगर उनकी आलोचना करते तो  दूसरे पक्ष की आलोचना करने का उनको अधिकार होता।

महमूद मदनी ने समान नागरिक संहिता को मुसलमान द्वारा नहीं स्वीकारने की बात कही। जमीयत ने प्रस्ताव में कहा है कि समान नागरिक संहिता लागू कर मूल संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने की कोशिशें की जा रही है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ में शामिल शादी, तलाक, खुला (बीवी की मांग पर तलाक), विरासत आदि के नियम कानून किसी समाज, समूह या व्यक्ति के बनाए नहीं है। नमाज, रोजा, हज की तरह यह भी मजहबी आदेशों का हिस्सा है जो पाक कुरान और हदीस से लिए गए हैं। प्रस्ताव में आगे कहा गया कि पर्सनल लॉ में बदलाव या पालन से रोकना धारा 25 में दी गई गारंटी के खिलाफ है। महमूद मदनी जो कह रहे थे प्रस्ताव उसी अनुसार आना था। जब वे कहते हैं कि मुसलमानों को शरीयत को पकड़े रहना है और यही हमारी ताकत है तो फिर संविधान मैं आस्था पर प्रश्न खड़ा होता है। उनके इस कथन को देखिए, शरीयत में किसी तरह की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं होगी।

कानून हमको तीन तलाक करने से रोकता है, लेकिन शरीयत नहीं रोकता है और अगर दोनों राजी हो गए तो कानून क्या करेगा। या मुसलमानों को तीन तलाक के विरुद्ध कानून को ना मानने के लिए उकसाना ही है।

तीन तलाक पर आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया और उसके अनुसार भारत की संसद ने कानून बनाया लेकिन इन्हें यह स्वीकार नहीं है। जहां तक पर्सनल लॉ की बात है तो ये झूठ फैला रहे हैं। एक साथ तीन तलाक इस्लाम मजहब का विषय होता तो सुप्रीम कोर्ट उसे गलत साबित नहीं करता और संसद में कानून भी नहीं बनता।

दुनिया के महत्वपूर्ण मुस्लिम देशों ने ही एक साथ तीन तलाक को खत्म कर दिया है। कहने का तात्पर्य कि भारत के ज्यादातर मुस्लिम नेता मुसलमानों के अंदर इसी तरह का झूठ और भ्रम फैलाकर सांप्रदायिक वातावरण पैदा कर रहे हैं। इनमें से कोई एक बार भी यह सच कहने को तैयार नहीं है कि वाकई मध्यकाल में मुस्लिम लुटेरे, शासक सभी ने गैर मुस्लिम धर्म स्थलों, शिक्षा केंद्रों या फिर ऐसे हिंदू स्थल, जिनको वे इस्लाम के विरुद्ध मानते थे या जो हिंदुओं के लिए प्रेरणा के केंद्र थे ,सबको तोड़ा या तोड़ने की कोशिश की और जितना संभव हुआ उन पर इस्लाम के नाम पर संरचना खड़ी कर दी। जब जामिया, देवबंद, मुस्लिम नेता एक बार इस सच को स्वीकार करेंगे तभी आपसी सहमति का प्रश्न पैदा होगा।

भारत में किसी को भी वैध मस्जिद से आपत्ति नहीं है और न हो सकती है। लेकिन जब मुसलमानों के  इतने बड़े व्यक्तित्व इस तरह की भाषा बोलेंगे तो आम मुसलमानों के अंदर यह भाव गहरे बैठेगा ही। जमीयत ए उलेमा के प्रस्ताव में कहा गया है कि पुराने इबादतगाह पर बार-बार विवाद खड़ा करके देश में अमन शांति खराब करने वाले दलों के रवैये पर नाराजगी प्रकट की गई है। इसमें लिखा है कि वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की ईदगाह मस्जिद समेत कई मस्जिदों के खिलाफ ऐसे अभियान जारी है जिससे अमन, शांति और अखंडता को नुकसान पहुंचा है। जाहिर है, यह एकपक्षीय प्रस्ताव है।सच तो यह है कि अमन और शांति को खतरा इस तरह के प्रस्तावों और बयानों से होता है।

अगर जमीयत यह कहता कि न्यायालय का फैसला हमें स्वीकार होगा ,मामले को न्यायालय तक सीमित रखा जाए और कोई इस पर बयान न दे तो निश्चित रूप से इसका समर्थन किया जा सकता था। इसके उलट आक्रामकता से न्यायालयों  को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और अपना खुला बयान दे रहे हैं। यह सब देश के लिए चिंताजनक है। हालांकि मदनी साहब यह सच बोल गए कि मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं दूसरा बहुसंख्यक है।

यह सच इस संदर्भ में होता कि अब हमें अब अल्पसंख्यकों के दर्जे वाले सारी सुविधाएं खत्म कर दी जाए तो स्वागत होता किंतु इसे एक धमकी या चेतावनी के रूप में सामने लाया गया है। प्रकारान्तर से इसका अर्थ यही है कि बहुत सारे लोग हमें काम न माने हमारे पास भी शक्ति है और हम लड़ेंगे, जबकि हिंदुओं ने कभी भी मुसलमानों से लड़ाई की बात नहीं की, न कर सकता है। दोनों समुदायों को इस देश में साथ रहना है और मिलकर ही देश का विकास करना है।

जिन महत्वपूर्ण धर्म स्थलों पर कब्जा व ध्वस्त कर इस्लामिक संरचना खड़ी की गई उनकी मुक्ति का प्रश्न हिंदू और मुस्लिम विवाद का नहीं है। यह करोड़ों हिंदुओं के पूजनीय स्थल के मुक्ति का प्रश्न है। इस दृष्टि से मुस्लिम संगठन और नेता नहीं सोच रहे हैं तो इसे दुर्भाग्य के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता।
(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक की निजी अभिव्‍यक्‍ति है, वेबदुनिया इसकी जिम्‍मेदारी नहीं लेता है।)

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