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संतुलन का नुस्खा .... विचार योग्य

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प्रीति सोनी

ज्योतिष पीठ बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर दिया गया बयान जिसमें कहा गया है कि 'यदि जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म कर आबादी के संतुलन का नुस्खा अपनाते हुए वहां कश्मीरी पंडितों को बसाएं तो प्रदेश में राष्ट्र विरोधियों की गतिविधियों पर अंकुश लग जाएगा और देश में जहां-जहां जनसंख्या संतुलित है, वहां-वहां उपद्रव नहीं होते...' कहीं न कहीं तर्कसंगत जरूर है।


 
 
जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को अलग कर दिया जाए तो प्रकृति, समाज, आम जीवन, देशकाल और परिस्थितियों में संतुलन का सूत्र हर जगह प्रभावी ही नहीं, बल्कि आवश्यक है। कहा जाता है कि प्रकृति हमेशा हर चीज में संतुलन बनाकर रखती है। जहां असंतुलन होता है, वहां परिस्थितियों का बिगड़ना तय है। यही बात रिश्तों पर भी लागू होती है।
 
क्रोध और प्रेम का संतुलन रिश्ते की डोर को टूटने नहीं देता। जिसका पलड़ा भारी होता है, वह हमेशा हल्के पर हावी होता है और यदि बात किसी धर्म या संप्रदाय की हो तो यहां संतुलन बेहद आवश्यक है, क्योंकि असंतुलन की स्थिति में हमेशा एक पक्ष दूसरे पर हावी होता है, जो दमन, कुंठा और प्रतिरोध व विरोध को जन्म देता है। 
 
हम किसी धर्म-विशेष के पक्षधर या विरोधी नहीं हैं लेकिन यहां एक बात और गौर करने वाली है, जो शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने कही कि हिन्दुओं को हिन्दू धर्म के बारे में पता ही नहीं है, जबकि मुसलमानों में बच्चा-बच्चा अपने धर्म की गहन जानकारी रखता है, क्योंकि मदरसों और ईसाई स्कूलों में बाकायदा धार्मिक शिक्षा दी जाती है। हिन्दुओं के बच्चे धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धार्मिक ज्ञान से वंचित रह जाते हैं।
 
निश्चित तौर पर शि‍क्षा केवल किताबी होकर न रह जाए, बल्कि नई पीढ़ी को व्यावहारिक और धर्मसम्मत ज्ञान देने में समर्थ हो, इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है, क्योंकि बच्चे को शि‍क्षा केवल पढ़-लिखकर नौकरी करने या धन कमाने के लिए ही नहीं दी जाती बल्कि इसलिए दी जाती है कि वह अपने समाज और जीवन के व्यावहारिक और धार्मिक पक्ष को भी समझ सके।

धर्मनिरपेक्षता और अपने धर्म की जानकारी रखना दो अलग-अलग बातें हैं। हम धर्मनिरपेक्षता का मतलब तो समझ गए लेकिन अपने धर्म की ही बारीकियां हमें नहीं मालूम, जो कि निराशाजनक है।यही कारण है कि ज्यादातर हिन्दू अपने धर्म को लेकर असमंजस की स्थिति में होते हैं और उन्हें ढकोसला करार देकर इतिश्री कर लेते हैं।

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न तो उन्हें धर्म और अध्यात्म के बीच का अंतर पता होता है और न ही धर्म के पीछे की मान्यताओं के वे कारण, जो वर्तमान में वैज्ञानिक आधार पर भी सटीक साबित हो रहे हैं। इन सभी का मुख्य कारण धार्मिक शि‍क्षा का न होना ही है। विज्ञान को हमने पढ़ा है इसीलिए उस पर विश्वास करते हैं, लेकिन जब तक धर्म को नहीं पढ़ेंगे, कैसे उस पर विश्वास किया जाएगा? इसके लि‍ए जरूरी है कि धार्मिक शिक्षा को वैकल्पिक नहीं अपितु सर्वमान्य किया जाए।

यहां बात अंधविश्वास और ढकोसलों की नहीं, बल्कि धर्म की हो रही है जिस पर अंधविश्वास न सही परंतु विश्वास किया जाना आवश्यक है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के जीवन का मूल आधार उसका धर्म ही है जिसके अनुसार वह बाल्यकाल से अपने जीवन को दिशा देते आ रहा है। 
 

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