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महाकवि कालिदास समारोह : अतीत के झरोखों से

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-श्रीमती किरण बाला जोशी  
 
कहां गई शिप्रा नदी के नीर में अपने सौंदर्य को निहारती-संवारती वह सलोनी उज्जयिनी? कहां है अवंतीपुरी साविध्यां तटिनी? कहां है महाकवि कालिदास? पास जाकर खुले वातायन में देखें तो सहज ही अहसास होगा कि हम अनुक्षीण राशि रेखा से पूर्व गगन के मूल में अस्तप्राय: हैं। मैं चौंकती हूं वह मुक्त हंसी भस्मआरती के मंत्रोच्चार-सी संस्कृत पुट वाणी हृदय को नदी के हिलौरे-सी देती मंद सुगंधमय वाणी मुखर चंदन-सी भीनी सुगंध का मंगलाचरण कहां है? 
 
गगन छूती महाकालेश्वर के ध्वज को अभिनंदन करने वालों की मिश्री-सी मधुर हंसी कहां विलुप्त हो गई। 
 
आज आंखें सजल हो गईं और बीते स्वप्नों को लगी खोजने। अवंती नगरी के अस्तित्व को लेकर बहुधा विचलित हो जाती हूं। यह आकुलता तब और बढ़ जाती है, जब कालिदास समारोह की भव्य तैयारी में लगे पिताजी (पंडित सूर्यनारायणजी व्यास) को बीते दिनों में देखती हूं। पिताजी अपनी बालकनी में हंसी-ठहाका, गंभीर वातावरण समारोह की तैयारी और योजना बनाने में प्रात:काल से ही चिंतन-मनन में डूब जाते थे। 
 
तत्पश्चात शीर्षस्थ विचारकों का सम्मिलन। चारों ओर हंसी-ठहाकों की गूंज। इन ठहाकों में कितना गांभीर्य होता था। पिताजी अपने आप में बेखबर घर में रहते हुए भी घर से बेवास्ता रहते थे। हमें उन दिनों यही गहनतम अहसास होता था कि हमारा आयोजन है। यह हमारी संवेदनशील नगरी की प्रतिष्ठा है या सच मानो तो हमें अनूठे गर्व की अनुभूति होती थी। निरंतर गाड़ियों का आना-जाना, शोरगुल इन सबके मध्य भी एक विशाल आयोजन की सुव्यवस्‍थित रूप-रेखा बना लेना यकीनन एक महत् कार्य होता था। मानो ऋषि-मुनियों का अश्वमेध यज्ञ चल रहा हो और हमारा घर यज्ञशाला हो। 
 
रातभर संस्कृत नाटक के पात्र से होकर निमंत्रण पत्रिका, सजावट, आमंत्रित विद्वजनों के रहने-ठहरने की व्यवस्था, सब कुछ घर पर ही बैठकर योजनाबद्ध होता था। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह भगवतशरण उपाध्याय, शिवमंगलसिंह सुमन, श्रीनिवास रथ। पूरी अवंती नगरी कालिदासमय हो जाती थी। सारे नगर में तोरणद्वारों का सजना, माधव कॉलेज के प्रांगण से लगाकर शिप्रा का कोना-कोना अनंत उत्सवमय हो जाता था। 
 
प्रात:काल भस्म आरती के बाद प्रथम मंगलाचरण वेद विद्वान पंडित गौरीनाथ शास्त्री की अमृत वाणी से मुखरित हो जाता था। वहां संध्याकालीन समारोह की यज्ञशाला में विद्वान ऋषि-मुनियों की सभा में रथ साहब की चंदन मिश्रित भीनी-भीनी सुगंधों से सस्वर वाणी से यज्ञशाला के हवन-कुंडों में अग्नि प्रज्वलित करना सब याद हो आता है, उत्सव के दिनों में ध्वज की पताका पूर्ण वायु में जैसे गगन चूमती थी। मिट्टी की जो दीपमाला रची जाती है, उसे कोई दूसरे दिन के लिए नहीं रखता, किंतु वह दीप किस धातु का था, जो पहला प्रज्वलित दीप रख गया कालिदास का के नाम का....  
 
वह पैतृक प्रदीप आज भी हमारे घर में है। उज्जयिनी स्थित आवास में पितामह के प्रासाद शिखरों पर प्रज्वलित हुआ था। हम अति सौभाग्यशाली हैं। उस बालकनी में महापुरुषों की नगरी-सी विराजमान होती रहती थी। दाल-बाफले, मालवी भोजन, दिनभर चाय की प्यालियां, पान की गिलौरियां, बनारसी, मद्रासी, कथूरी, मालवी पान। 
 
बार बार विद्वानों का एक ही वाक्य कानों में पड़ता था.... वाह, पंडितजी, मजा आ गया। अब हम उज्जैन दर्शन करेंगे। प्रथम गणपतिजी आप हैं। 
 
सुमनजी कभी-कभी विमुक्त हंसी के फव्वारे वाली श्रीमती कमलारत्नमजी को मॉस्को की शकुंतला बोलते थे। पिताजी के विद्वता का कोई सानी नहीं था। राजा-महाराजाओं से लेकर सारे मंत्रीगण समारोह के गणपति का ध्वजवंदन करते रहते थे। अश्वमेध स्थल की ध्वजा वही संभाले थे। मेरी याद में सिंहपुरी मोहल्ले में नाट्यमंच की शुरुआत के बाद महाराजवाड़ा स्कूल फिर माधव कॉलेज सन् 1955, 56, 57 तक बड़ा रूप लेकर माधव कॉलेज प्रांगण तक फैला। धीरे-धीरे देश-विदेश तक उन्हीं के अथक प्रयासों से बढ़ता चला गया। 
 
प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पिताजी के निमंत्रण पर अवंती नगरी पधारे। पिताजी के प्रति प्रेम से भाव-विभोर होकर उसी भव्य झरोखे में परिवार से मिलने आए। यहां कालिदास के दिव्य ध्वज को स्वर्णिम आभा मिली। कालिदास की प्रिय भूमि अवंती नगरी उनके प्रति अगाध स्नेह देखकर सब धन्य-धन्य हो जाते। पिताजी की यज्ञशाला में वेद, वेदांत, विद्वान, संस्कृत काव्यपाठ द्वारा आहुति देना आरंभ हो जाता। सन् 1956 से कालिदास पवित्र स्मृति राष्ट्रीय समारोह के साथ मनाई जाने लगी।
 
पं. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी आदि समारोह के अतिथिगण बनने लगे तथा प्रगतिशील लेखक संघ एवं विदेशों के साथ सांस्कृतिक संबंध स्थापित करने वाले विभाग द्वारा हाउस ऑफ कॉमंस में विशेष समारोह किया गया। 
 
टेलीविजन पर 45 मिनट तक कार्यक्रम किया गया। भाषण, गायन, अभिनय हुआ। चित्रमय प्रदर्शन, ग्रंथों का प्रदर्शन, संस्कृत में काव्यपाठ, रूसी अनुवाद, प्रख्यात रूसी अभिनेत्री अलोसा द्वारा शकुंतला की आलोचना प्रस्तुत की गई। इसी समय रूस से अनेक पात्रों में व्यापक रूप से कालिदास की चर्चा हुई और शासन ने महाकवि की स्मृति में डाक टिकट प्रकाशित किया। इस संबंध में रूस के सांस्कृतिक मंत्रालय के प्रमुख मिखाइलेव ने पत्र लिखा था, जो इस प्रकार है-
 
मॉस्को, 12 जून 56 
 
श्रीमान सूर्यनारायणजी व्यास
 
मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं श्रीमती कमलारत्नम् द्वारा आपके कालिदास के संबंध में भेजे गए पत्र के लिए आभार प्रकट करने में मुझे आपको यह सूचित करते हुए प्रसन्नता होती है कि विश्व शांति परिषद की ओर से 1956 में कालिदास जयंती संबंधी प्रस्ताव के महत्व के संबंध में हम आपसे सहमत हैं। आशा है कि यह महान जयंती मनाने से हमारे दोनों देशों की जनता की मैत्री बढ़ेगी।
 
फिर चीन में कवि कालिदास स्मृति पर्व मनाया गया और भारतीय दूतावास के सहयोग से शकुंतला नाटक का सफल अभिनय किया गया। बाद में फ्रेंच दूतावास का संदेश हरानियन, पाकिस्तान आदि देशों के संदेश सभी देशों में अश्वमेध ध्वज सभी ओर लहराता हुआ दिल्ली, बॉम्बे, लखनऊ, बनारस, काशी, कलकत्ता, मद्रास आदि के विद्वान संस्कृत, वेद, वेदांत के ऋषि-मुनि, ज्ञाता, मंत्री, संपूर्ण फिल्मी दुनिया सभी का उस ध्वज के नीचे इकट्ठा होना शुरू हुआ और होता चला गया। डॉ. ओंकारनाथ ठाकुर, डॉ. संपूर्णानंद, राहुल सांकृत्यायन, महाराज जीवाजीराव सिंधिया, श्री नारायणजी चतुर्वेदी, 'सरस्वती' के संपादक, बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान आदि के राज्यपाल एवं श्री शंकरदयालजी शर्मा वर्तमान राष्ट्रपति उस समय शिक्षामंत्री थे। कन्हैयालालजी खादीवाला, कन्हैयालाल माणिकलालजी मुंशी, बिड़लाजी, डालमिया, श्री पृथ्वीराज कपूर, अभिनेता श्री भरत व्यास, श्री मनमोहन देसाई, डॉ. कैलाशनाथजी काटजू, घनिष्ठ मित्रों में थे रविशंकरजी शुक्ल, डॉ. माताप्रसाद वाइस चांसलर विक्रम विश्वविद्यालय, श्रीमती कमलारत्नम् ने कालिदास स्मृति मंदिर की स्थापना की योजना बनाई। श्री पृथ्वीराज कपूर पिताजी के परम भक्तों में से एक थे।
 
प्रथम प्रयास के अंतर्गत उज्जैन में रीगल टॉकीज में स्मृति मंदिर के लिए धन एकत्र करने हेतु नाटक के मंच का आयोजन किया गया। नाटक के अभिनेता स्वयं पृथ्वीराज कपूर थे। देखते-देखते योजना के अनुसार अश्वमेध ध्वज के लिए धन का कलश छलकने लगा। गागर में सागर ग्वालियर नरेश ने 1 लाख 25 हजार दान में दिए। अन्य गणमान्य व प्रदेश शासन की ओर से प्राप्त हुए शिलान्यास हुआ बस। स्वर्गीय पिताजी के बाद कहां है। ध्वज कहां गया ? दिखाई देती है अनगिनत गागर लेकिन कहां गया वह सागर जो सबकुछ अपने में समेट कर भी कभी नहीं उफना। 
 
गंगा, जमुना की धाराएं बह रही हैं। शिप्रा चंचल और प्रवाहमान है, वहीं सूर्यनारायण अपने असीम प्रकाश से इस धरा को आलोकित करते रहे। कालिदास कहां है, नहीं पूछती, लेकिन उनका अस्तित्व-बोध कहां, कितने लोगों को है, क्या यह प्रश्न प्रासंगिक नहीं?
 
कालिदास के लिए अपनी प्रशस्त लेखनी और बेबाक विचारों के माध्यम से पिताजी संघर्षरत रहे, लेकिन आज उनकी जन्मस्थली जो कि उनके दैदीप्य आलोक से जगमगाती रही, सदैव और सतर्क रहने वाली कर्मस्थली आज इतनी निष्प्रभ, निर्लिप्त और सुसुप्तावस्था में क्यों प्रतीत हो रही है?
 
अमर कवि कालिदास की स्मृतियां तो आज भी रसास्वादन कराने में समर्थ हैं। क्या उज्जयिनी के नागरिक इसे स्वादुनुभूत करने में सक्षम हैं? 

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