पटना और मुंबई के बीच 1700 किलो मीटर की जितनी दूरी है लगभग उतनी ही शिमला और मुंबई के बीच भी है। दोनों ही राज्यों में इस समय एक ही पार्टी के दबदबे वाली हुकूमतें भी हैं। बिहार और हिमाचल दोनों का मौसम और मिज़ाज अलग-अलग क़िस्म का है पर राजनीतिक ज़रूरतों ने दोनों की आत्माओं को एक कर दिया है।
एक राज्य की सरकार को चुनाव जीतने के लिए अपने सितारा बेटे की मौत का इंसाफ़ चाहिए और दूसरे ने अपनी सितारा बेटी के सम्मान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी उठा ली है। उधर मुंबई में भी एक सितारा बेटी की ज़िंदगी दांव पर लगी हुई है और एक राजनीतिक मराठा बेटे ने महाराष्ट्र के गौरव की रक्षा करने का दायित्व अपनी तलवार की धार पर धारण कर लिया है। चूंकि दोनों ही सितारा बेटियां बॉलीवुड से जुड़ी हुई हैं, फ़िल्मी हस्तियों की जिंदगियों से जुड़े तमाम अंतर्वस्त्रों को फ़िल्मी नगरी की सड़कों पर पताकाओं की तरह लहराया जा रहा है।
दूसरी ओर, अपनी टीआरपी को हर क़ीमत पर बढ़ाने में जुटा मीडिया इन दृश्यों को बिना किसी अतिरिक्त चार्ज के नशे की गोलियों की तरह बेच रहा है। इस काम में भी कुछ ख्याति प्राप्त ‘बेटियां’ भी सितारा वस्त्रों को मार्केट की ज़रूरत के मुताबिक़ ठीक से धोकर टीवी स्क्रीन के रंगीन पर्दों पर सुखाने में मदद कर रही हैं। चैनलों पर चल रही ‘मीडिया ट्रायल’ के नशे में खोए हुए देश की कोई एक चौथाई आबादी ने तलाश करना बंद कर दिया है कि कोरोना के ‘वैक्सीन की ट्रायल’ की ताज़ा स्थिति क्या है! मुंबई में महामारी के दस लाख के आंकड़े और तीस हज़ार को छूने जा रही मौतों के बीच रंगीन खबरों के जो 24@7 रक्तहीन विस्फोट हो रहे हैं उन्हें देश में प्रशिक्षित दस्ते ही अंजाम दे रहे हैं और उनके असली हैंडलर्स कौन हैं किसी को भी आधिकारिक जानकारी नहीं है।
देश के नागरिक कथित तौर पर चीन के द्वारा निर्यात की गई कोरोना की महामारी का मुक़ाबला करने में तो आत्मनिर्भर हो सकते हैं और ‘भगवान’ के कोप के कारण अवतरित हुए आर्थिक संकट के ख़िलाफ़ भी भूखे पेट पर पवित्र शिलाएं बांध सकते हैं, पर उस मानव-निर्मित त्रासदी का मुक़ाबला नहीं कर सकते जिससे कि वे इस समय मुख़ातिब हैं। एक ऐसी त्रासदी जिसे प्रांतवाद के नाम पर ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ के मार्फ़त अंजाम दिया जा रहा है। इसमें ख़रीदने का कोई काम ही नहीं है, सबकुछ बेचा ही जाना है।
अब तक कहा जाता रहा है कि प्यार में सबकुछ जायज़ है, पर इस समय जो नाजायज़ है सिर्फ़ उसे ही ढूंढा जा रहा है। ताज़ा घटनाक्रम की किरदार सभी हस्तियों के मामले में यही हो रहा है। कहना मुश्किल है कि आज अगर सुशांत सिंह जीवित होते तो चुनावी पोस्टरों के लिए किसके चेहरे को ढूंढा जाता और अगर बाला साहब ‘मातोश्री’ की अपनी शानदार कुर्सी पर बिराजे हुए होते तो क्या शिवसेना में ‘आ कंगना मुझे मार’ जैसा कुछ भी सम्भव हो पाता?
महामारी और बेरोज़गारी से जूझ रही देश की औद्योगिक और वित्तीय राजधानी को अपने संकट से उबरने के लिए शिवसेना किसी सोनू सूद से भी मदद की मांग नहीं कर सकती। उन्हें भी पहले ही हड़काया जा चुका है। 'महाराष्ट्र किसी के बाप का नहीं’ — कंगना के कहने के कारण नहीं बल्कि अब इसलिए लगने लगा है कि इतने बड़े राज्य का कोई ‘माई-बाप’ ही नहीं बचा लगता है। कोरोना संकट से अपने आपको सफलतापूर्वक बचा लेने वाले धारावी के भले रहवासी भी शायद ऐसा सोचते होंगे कि एक नई और बड़ी सम्भ्रांत झोपड़ पट्टी का निर्माण उनके इलाक़े के बाहर महानगर में हो रहा है।
क्या विडम्बना है कि संसद की बैठकों के ‘प्रश्न काल' को भी कोरोना का संक्रमण हो गया है और किसी को भी उसके इलाज की नहीं पड़ी है। सारे ‘प्रश्न’ केवल एक ही आदमी सड़कों पर उठा रहा है जिसे उस मीडिया ने राजनीतिक ताश की गड्डी का ‘पप्पू’ बना रखा है जो कंगना के दफ़्तर के बाहर खड़े होकर एक पोस्टमैन से सवाल पूछ रहा है कि बीएमसी के द्वारा ‘मणिकर्णिका’ के क़िले में तोड़फोड़ क्यों की गई? कभी कोई ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति हो जाए कि थोड़े लम्बे समय के लिए राष्ट्रीय पावर ग्रिड में ‘ब्रेक डाउन' हो जाए या फिर युद्ध की परिस्थितियों का अभ्यास करने के लिए ‘ब्लैक आउट’ लागू करना पड़ जाए तो पता नहीं कितनी बड़ी आबादी पागल होकर सड़कों पर थालियां कूटने लगेगी!
देश का पूरा ध्यान एक अभूतपूर्व संकट से सफलतापूर्वक भटका दिया गया है। चालीस सालों में पहली बार इतना बड़ा आर्थिक संकट, करोड़ों लोगों की बेरोज़गारी, महामारी से प्रतिदिन संक्रमित होने वालों के आंकड़ों में दुनिया में नम्बर वन बन जाना, चीन द्वारा सीमा पर चार महीनों से दादागीरी के साथ लगातार अतिक्रमण और जानकारी के नाम पर सरकार द्वारा देशवासियों को झूला झूलाते रहना — सब कुछ धैर्यपूर्वक बर्दाश्त किया जा रहा है। हमें बिलकुल भी डरने नहीं दिया जा रहा है कि हर महीने कोई सोलह हज़ार लोग कोरोना की भेंट चढ़ रहे हैं।
कथित तौर पर अवसाद और नशे की लत में पड़े एक सुदर्शन अभिनेता की मौत सरकारों को तो हिला देती है पर लॉकडाउन से उपजे अभावों और बेरोज़गारी से पैदा हुए अवसाद के कारण हुई सैकड़ों आत्महत्याओं की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता। मैंने दक्षिण भारत के चार राज्यों- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु - में अपने पत्रकार मित्रों से बात की तो पता चला कि सुशांत-रिया-कंगना को लेकर वहां खबरों का कोई नशा नहीं बिक रहा है। वहां सरकारें और लोग अपनी दूसरी समस्याओं को लेकर चिंतित हैं।
इसे हिंदी (मराठी भी) भाषी राज्यों का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि एक ऐसे समय जबकि अधिकतर इलाक़ों में महामारी के साथ-साथ वर्षा और बाढ़ के कारण उत्पन्न हुई कठिनाइयों के घने बादल छाए हुए हैं, हमारा राजनीतिक नेतृत्व मीडिया के एक वर्ग की मदद से पापड़-बड़ी बनाकर सड़कों पर सुखा रहा है। वह थोड़ी सी जनता जो इस तमाशे का हिस्सा नहीं है इसी कश्मकश में है कि जो कुछ चल रहा है उसके लिए खुद शर्मिंदगी महसूस करे या उन्हें शर्मिंदा करने के अहिंसक और शांतिपूर्ण उपाय तलाशे जो इस दुरावस्था के असली ज़िम्मेदार हैं! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)