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काश! कश्मीरी पंडितों का भी वोट बैंक होता...

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डॉ. शिबन कृष्ण रैणा

कश्मीर का मामला इन दिनों तूल पकड़ रहा है, खासतौर पर जबसे कुख्यात आतंकी बुरहान वानी को सुरक्षाबलों द्वारा मार गिराया गया। एक महीने से भी ज्यादा हो गया है और कश्मीर अभी भी अशांत बना हुआ है। केंद्र और राज्य सरकारें दोनों स्थिति को सामान्य बनाने हेतु भरसक यत्न कर रही हैं। कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता द्वारा कोई समाधान निकाला जाए। 
जैसा कि होता है ऐसे उलझे हुए मामलों में प्राय: सत्तारुढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गई है। समय रहते अगर पुरानी सरकार ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते। 
 
कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आई हैं। सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं। 
 
इसी तरह का एक आरोप 1990 में कश्मीर के हुक्मरानों द्वारा गवर्नर जगमोहन पर लगाया गया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में जगमोहन की विशेष भूमिका रही है। हालांकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था।
 
कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए, अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाए रहने के लिए आरोप गढ़ना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया। जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक 'माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर' पढ़ी हो, वे बता सकते हैं कि पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे? 
 
जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशासन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगड़ती चली गई थी। जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना। 
 
लगभग 26 साल हो गए हैं पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग ही बैठा, न कोई स्टिंग ऑपरेशन ही हुआ और न ही संसद में या संसद के बाहर इनकी त्रासद स्थिति पर कोई बहसबाजी ही हुई। 
 
इसके विपरीत 'आजादी चाहने' वाले अलगाववादियों और जिहादियों/ जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से ही देखा। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। 
 
काश! अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी ही होती!

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