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मोक्षदायिनी मां क्षिप्रा

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दीपाली राहुल शर्मा

भारत वर्ष में नदियों को देवी मां की संज्ञा दी जाती है। यह कहना अतिशयोक्ति भी नहीं है, क्योंकि नदियां उदारता की दात्री है। नदियां करोड़ों लोगों की जीवनदायिनी होती है। धर्म, अध्यात्म, आस्था और विश्वास का महापर्व सिंहस्थ कुंभ 2016 राजा महाकाल की नगरी उज्जैन में तृतीय शाही स्नान के साथ सम्पन्न हुआ। उज्जैन की पवित्र धरा पर यह प्रसंग बारह वर्ष पश्चात आया, जिसमें देश-दुनिया से आए करोड़ों श्रद्धालुओं ने पवित्र क्षिप्रा में आस्था की डुबकी लगाई। इस अभूतपूर्व आयोजन में समाज के प्रत्येक वर्ग द्वारा दिन-रात व्यवस्थाएं जुटाने में कोई कसर नहीं रखी गई।
'कुंभ की परंपरा, सिर्फ स्नान नहीं' इन पंक्तियों के साथ अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ का आयोजन निनौरा उज्जैन में रखा गया। इस आयोजन में जनसामान्य के हित के लिए शाश्वत विषयों पर विचार मंथन किया गया। इस आयोजन में जल समस्या और समाप्त होती नदियों के अस्तित्व पर देश-विदेश से आए विद्वानों ने गहन चिंता की और इन समस्याओं से निपटने के सुझाव दिए।
 
सिंहस्थ के संपन्न होते ही एक बार फिर से लचर व्यवस्था का उदाहरण देखने को मिला और मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदी में फिर से नालों का पानी और सिंहस्थ मेला क्षेत्र में निर्मित अस्थाई शौचालयों का पानी छोड़ दिया गया। जिस क्षिप्रा नदी को मां की उपमा देकर करोड़ों लोगों ने आस्था की डुबकी लगाई, जिस क्षिप्रा नदी को पूरे एक महीने दुल्हन की तरह सजाकर रखा गया, उसी क्षिप्रा नदी को सिंहस्थ समाप्त होने के 24 घंटे के अंदर ही नाले में परिवर्तित करने का कार्य जिम्मेदारों द्वारा किया गया। ये एक विडंबना ही कही जा सकेगी।
 
केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार द्वारा करोड़ों रुपए के ट्रीटमेंट प्लांट लगाकर तथा नर्मदा नदी का जल मिलाकर क्षिप्रा को सिंहस्थ आयोजन के लिए तैयार किया गया था, क्योंकि नदी कही जाने वाली क्षिप्रा को अनियोजित शहरीकरण ने कई सालों से ड्रेनेज के रूप में ही इस्तेमाल किया है। देश में व्याप्त भीषण जल संकट से जनजीवन त्रस्त है। 
 
नदियों का संकट सिर्फ प्रदूषण तक सीमित नहीं बल्कि नदियों के अस्तित्व से जुड़ा है। नदियों का संरक्षण भारत की प्राचीन परम्परा का प्रमुख आधार रहा है। भारत में जब-जब नीर, नारी और नदी का सम्मान हुआ है, तब-तब भारत की पहचान विश्वगुरु के रूप में होती रही है। 
 
निश्चय ही जल संरक्षण आज के विश्व समाज की सर्वोपरि चिन्ता होनी चहिए, चूंकि उदार प्रकृति हमें निरंतर वायु, जल, प्रकाश आदि का उपहार देकर उपकृत करती है, लेकिन स्वार्थी आदमी सब कुछ भूलकर प्रकृति के नैसर्गिक सन्तुलन को बिगाड़ने में लगा हुआ है।
 
नदियों के पुनर्जीवन के लिए शीघ्र अतिशीघ्र सार्थक प्रयास किया जाना चाहिए ताकि कल भविष्य में हमें पानी की विकराल समस्या का सामना ना करना पड़े। यदि हमारे द्वारा हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं किया गया तो हमें आने वाली पीढ़ी को यह न कहना पढ़े- 'एक था राजा, एक थी रानी और एक था पानी।'

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