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'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का साक्षात् प्रेरणापुंज है मकर संक्रांति

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देवेंद्रराज सुथार

हमारी भारतीय संस्कृति में त्योहारों, मेलों, उत्सवों व पर्वों का महत्वपूर्ण स्थान हैं। भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां हर दिन कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। यह कहे तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी यहां दिन कम और त्योहार अधिक है अर्थात् यहां हर दिन होली और हर रात दिवाली है। दरअसल, ये त्योहार और मेले ही हैं जो हमारे जीवन में नवीन ऊर्जा का संचार करने के साथ ही परस्पर प्रेम और भाईचारे को बढ़ाते हैं। मकर संक्रांति ऐसा ही 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का साक्षात् प्रेरणापुंज, अंधकार से उजास की ओर बढ़ने व अनेकता में एकता का संदेश देने वाला पर्व है। हर साल 14 जनवरी को धनु से मकर राशि व दक्षिणायन से उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश के साथ यह पर्व भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। 
 
पंजाब व जम्मू-कश्मीर में 'लोहड़ी' के नाम से प्रचलित यह पर्व भगवान बाल कृष्ण के द्वारा 'लोहिता' नामक राक्षसी के वध की खुशी में मनाया जाता है। इस दिन पंजाबी भाई जगह-जगह अलाव जलाकर उसके चहुंओर भांगड़ा नृत्य कर अपनी खुशी जाहिर करते हैं व पांच वस्तुएं तिल, गुड़, मक्का, मूंगफली व गजक से बने प्रसाद की अग्नि में आहुति प्रदान करते हैं। वहीं देश के दक्षिणी इलाकों में इस पर्व को 'पोंगल' के रूप में मनाने की परंपरा है। फसल कटाई की खुशी में तमिल हिन्दुओं के बीच हर्षोल्लास के साथ चार दिवस तक मनाए जाने वाले 'पोंगल' का अर्थ विप्लव या उफान है। इस दिन तमिल परिवारों में चावल और दूध के मिश्रण से जो खीर बनाई जाती है, उसे 'पोंगल' कहा जाता है।
 
इसी तरह गुजरात में मकर संक्रांति का ये पर्व 'उतरान' के नाम से मनाया जाता है, तो महाराष्ट्र में इस दिन लोग एक-दूसरे के घर जाकर तिल और गुड़ से बने लड्डू खिलाकर मराठी में 'तीळ गुळ घ्या आणि गोड गोड बोला' कहते हैं। जिसका हिन्दी में अर्थ होता है तिल और गुड़ के लड्डू खाइए और मीठा-मीठा बोलिए। वहीं असम प्रदेश में इस पर्व को 'माघ बिहू' के नाम से जाना जाता है। इसी तरह इलाहबाद में माघ मेले व गंगा सागर मेले के रूप में मनाए जाने वाले इस पर्व पर 'खिचड़ी' नामक स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खाने की परंपरा है। जनश्रुति है कि शीत के दिनों में खिचड़ी खाने से शरीर को नई ऊर्जा मिलती है। 
 
मकर संक्रांति को मनाने के पीछे अनेक धार्मिक कारण भी हैं। इसी दिन गंगा भागीरथ के पीछे चलकर कपिल मनु के आश्रम से होते हुए सागर में जा मिली थीं। इस दिन भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण की दिशा में गमन के साथ ही स्वेच्छा से अपना देह त्यागा था। यह दिन श्रद्धा, भक्ति, जप, तप, अर्पण व दान-पुण्य का दिन माना जाता है।
 
हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए मकर संक्रांति का महत्व वैसा ही जैसा कि वृक्षों में पीपल, हाथियों में ऐरावत और पहाड़ों में हिमालय का है। भले मकर संक्रांति का पर्व देश के विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता हों पर इसके पीछे समस्त लोगों की भावना एक ही है। तिल और गुड़ के व्यंजन हमें एक होने का संदेश देते हैं। वहीं नीले आकाश में शीतल वायु के संग उड़ती पतंग मानवीय यथार्थ से रू-ब-रू करवाती है। इंसान को शिखर पर पहुंच कर भी अभिमान नहीं करना चाहिए, यह पतंग भलीभांति समझाती है।
 
जिस प्रकार पतंग भले कितनी ही क्यों न ऊंचे आकाश में उड़े पर उसे खींचने वाली डोर इंसान के हाथ में ही रहती है। वैसे ही इंसान भी भले कितना ही अकूत धन-दौलत के अभिमान की हवा के बूते विलासिता व ऐश्वर्य के आसमान में उड़े, लेकिन उसके सांसों की डोर भी परमपिता परमेश्वर अविनाशी के हाथों में ही रहती है। पतंग हो या इंसान, दोनों का माटी में विलीन होना तय है। इसलिए इंसान को भूलकर भी अपने जड़ों और संस्कारों से दूर होकर कोई भी अमानवीय कृत्य नहीं करना चाहिए।
 
मकर संक्रांति के दौरान लोगों में पतंगबाजी का उल्लास चरम पर होता है। देश में प्रति वर्ष मकर संक्रांति के त्योहार के एक महीने पहले ही पतंगबाजी का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। शीतलहर के साथ पतंगबाजी का लुत्फ़ उठाने को लेकर बच्चों के साथ बड़े भी अपने को रोक नहीं पाते हैं। इस दौरान बाजार भी पतंगों से गुलज़ार होने लग जाते हैं। लेकिन, हर साल पतंगबाजी के दरमियान जो चिंताजनक पहलू निकल कर सामने आता है वो है चाइनीज मांझे के कारण बेजुबान पक्षियों की होने वाली मौतें। हालांकि, पिछले साल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने देशभर में पतंग उड़ाने के लिए इस्तेमाल होने वाले नायलॉन और चाइनीज मांझे की खरीद फरोख्त, स्टोरेज और इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। एनजीटी ने यह रोक ग्लास कोटिंग वाले कॉटन मांझे पर भी लगाई थी और अपने आदेश में सिर्फ सूती धागे से ही पतंग उड़ाने की इजाजत दी थी। लेकिन, इसके बावजूद बाजारों में अवैध तरीके से चाइनीज मांझे की धड़ल्ले से बिक्री देखी जा सकती है। 
 
दरअसल, चाइनीज मांझे को बनाने में कुल पांच प्रकार के केमिकल और अन्य धातुओं का प्रयोग किया जाता है। इनमें सीसा, वजरम नामक औद्योगिक गोंद, मैदा फ्लौर, एल्युमीनियम ऑक्साइड और जिरकोनिया ऑक्साइड का प्रयोग होता है। इन सभी चीजों को मिक्स करके कांच के महीन टुकड़ों से रगड़कर तेज धार वाला चाइनीज मांझा तैयार किया जाता है। जिसके संपर्क में आते ही पतंगे कट जाती हैं। जहां एक ओर चाइनीज मांझा आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने वाले पक्षियों की राह में रोड़ा बनकर उनके प्राण छीनता है, तो दूसरी ओर इसके कारण वाहन हादसे भी अंजाम लेते हैं। वहीं पतंगबाजी करने वाले लोगों के हाथों की अंगुलियां व चेहरा भी चाइनीज मांझा के कारण जख्मी हो जाता है।  
 
हमें सोचना चाहिए कि पक्षियों की हमारी तरह दुनिया, बच्चे व परिवार होता है। वे सुबह दाने की तलाश में अपनी उड़ान भरते हैं और शाम को अपने घोंसले में वापस लौटकर आते हैं। बच्चे उनकी प्रतीक्षा में होते हैं। लेकिन, किसी रोज हमारे द्वारा चाइनीज मांझे से की जा रही पतंगबाजी के कारण उनका अपने बच्चों के पास लौटना तो दूर तलक उनके मरने की कोई खबर भी उन तक नहीं पहुंच पाती है। वहीं कई पक्षी चाइनीज मांझे की चपेट में आकर धरती पर घंटों-घंटों तक तड़पते रहते हैं, उनकी इस स्थिति में सुध लेने वाला भी कोई नहीं होता है। जहां हमारी भारतीय संस्कृति में पशु-पक्षियों के संरक्षण की परंपरा रही है। इस कारण हम अलसुबह उठकर चबूतरे पर पक्षियों के लिए दाना और पानी देने को अपना पुण्य समझते हैं। वहीं हमें सोचना चाहिए कि हम चाइनीज मांझे की डोर से पतंगबाजी करके कई पक्षियों की जान लेकर अपने पुण्य पर पानी तो नहीं फेर रहे हैं? 
 
आवश्यकता है कि प्रशासन चाइनीज मांझे की हो रही गैर-कानूनी बिक्री को लेकर अपनी कार्रवाही तेज करें। ऐसे दुकानदारों पर तुरंत शिकंजा कसें, जो नियमों की सीमा लांघकर अवैध रूप से चाइनीज मांझे का व्यापार करते हैं। जरूरत है कि पतंगबाजी सामूहिक रूप से किसी खुले मैदान में एक निश्चित समय सीमा में हो, ताकि पक्षियों की हंसती खिलखिलाती दुनिया सलामत रह सकें और मनुष्य पुण्य के पर्व के दिनों में पाप का भागीदारी होने से बच सके। हमें मकर संक्रांति को पतंगबाजी व तिल और गुड़ के स्वादिष्ट व्यंजनों तक ही सीमित न रखकर इस पावन पर्व पर आपसी रंजिश और बैर मिटाकर प्रेम, स्नेह, भाईचारे व अपनत्व के साथ रहते हुए हिंदू-मुस्लिम का भेद भुलाकर अनेकता में एकता की मिसाल संपूर्ण जगत में दीप्तिमान् करनी होगी। तभी जाकर हम सच्चें मायनों में मकर संक्रांति के पर्व की महत्ता सिद्ध कर पाएंगे।

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