महामारी का संकट अपने चरम पर है। स्थिति इतनी वीभत्स और भयावह होती चली जा रही है। केन्द्र सरकार एवं समस्त प्रदेशों सरकारों चाहे वे किसी भी दल की हों उनका और उनके नेताओं का एक हास्यास्पद तर्क आता है कि जितनों की मौत नहीं हो रही है, उतने से अधिक ठीक हो रहे हैं।
सवाल इस पर उठता है कि क्या ठीक होने वालों को ध्यान में रखकर, उपचार के अभाव में कालकवलित होने वालों की लाशों के अंबार को भूल जाएं? क्या उनकी जीवन रक्षा का कर्त्तव्य सरकारों का नहीं है? या मरने और ठीक होने वाले सरकारों के लिए केवल और केवल आंकड़े हैं? यदि आंकड़े हैं तो फिर सत्ताधीशों के अन्दर मानवता ही नहीं बची है। सरकारों ने यह मान लिया है कि इतनी मौतें तो होंगी ही? अगर ऐसी स्थिति है, तब तो राजनेताओं को सत्ता में रहने का संवैधानिक मूल्यों और मानवीय दृष्टिकोण से कोई अधिकार ही नहीं बनता है।
संक्रमितों का जीवन बचाने के लिए उनके परिजन हर कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। लेकिन प्रायवेट अस्पताल और डॉक्टर उन्हें उपचार देने के लिए तैयार नहीं है। उन्हें सबसे पहले चाहिए लाखों रुपये की राशि जिसके बिना रोगी मर जाए तो मर जाए, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके सामने मनुष्य और मनुष्यता की कोई कीमत नहीं है, बाकी यह सब तो किताबी बातें और प्रतिष्ठा के उपाय हैं। नीतिशास्त्र में इसी को नैतिकता विहीन जीवन कहा गया है, जहां मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं के स्थान पर निजी हित सर्वोपरि होते हैं।
सरकारी चिकित्सालयों में मरीज को भर्ती न करने के बहाने ढूंढ़ने वाले भी बहुतायत में दिखने को मिल रहे हैं। यह ऐसा वक्त है जब हर व्यक्ति चीख-पुकार कर रहा है, लेकिन उसकी सुनने वाला कौन है? मनुष्यता को जीवन्त रखने वाले चिकित्सक और अस्पतालों की संख्या न्यून है। सरकारी में जगह की मारामारी है और प्रायवेट हॉस्पिटल हाथ खड़े कर दे रहे हैं। स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए हेल्पलाइन और डॉक्टरों के नम्बर जारी किए गए हैं, लेकिन न तो कोई फोन रिसीव कर रहा। और न ही अस्पतालों में मरीजों की सुनवाई हो रही।
स्वास्थ्य माफियाओं ने आपदा को अवसर में बदल लिया है। दवाओं एवं अन्य स्वास्थ्य सुविधाओं की कालाबाजारी जारी है। अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) इतना महंगा है कि एक टैबलेट के मूल्य वाली दवाओं का पत्ता उसके सैकड़ों गुना दाम में बिक रहा है। उनके रेटों की सूची में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी आ चुकी है, जनता कराह रही है। और सरकार से गुहार लगा रही है, लेकिन कौन सुनने वाला है? जब जनसामान्य के लिए इन मूल्यों पर नियन्त्रण और इस विपदा में दवा कम्पनियों, प्रायवेट हॉस्पिटल, नर्सिंग होम, मेडिकल संचालकों को अपनी ओर से न्यूनतम मूल्य निर्धारित कर सभी के जीवन बचाने के प्रयास में सहभागी होकर संवेदनशीलता और मानवीय मूल्यों का परिचय देना चाहिए। उस समय ये सभी लूटने-खसोटने पर लगे हुए हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि इनका वश चले तो ये पीड़ितों की सारी जमीन और संपत्ति हड़प लें। लेकिन बोलें भी तो कौन सुनने वाला है? कौन इस पर कठोरता से कार्रवाई करने वाला है? फिर भी इस समय यदि इनके विरुद्ध कठोर निर्णय नहीं लिया जाता है तो जनता का जीवन माफियाओं की मुठ्ठी में आ जाएगा।
स्वास्थ्य सुविधाएं बेपटरी हो चुकी हैं। चिकित्सालयों में बेड, नर्सिंग स्टाफ की कमी है और पर्याप्त नर्सिंग सुविधाओं की बदहाली भी देखने को मिल रही है। हालांकि प्रशासक,चिकित्सक भी यथासंभव सुविधाएं सुधारने के लिए दिख रहे हैं। फिर भी स्थिति ठीक नहीं कही जा सकती। भीषण गुहार के बाद यदि मरीजों को भर्ती भी कर लिया, तब भी त्वरित-समुचित उपचार देने में आनाकानी की कथाएं सुनने को मिल रही हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर, इंजेक्शन, दवाओं, वेंटीलेटर, भर्ती करने के लिए मरीजों के परिजन दर-दर भटक रहे हैं। कहीं भी किसी भी तरह की राहत नहीं है।
प्रशासन ने जिन निजी हॉस्पिटलों को मरीजों के उपचार के लिए चिन्हित किया। वे प्रशासनिक नियमों को धता बताने पर जुटे हैं। वे मरीजों की जेब और स्थिति का आंकलन कर उन्हें बेरंग लौटा रहे हैं। भरसक प्रयत्न करने पर भर्ती भी किए तो खून चूसने लगते हैं। दर-दर भटकने वाले मरीजों के परिजनों के- सरकार ने रेमेडिसीवर इंजेक्शन की खेप उपलब्ध करवाई। लेकिन ये प्रायवेट चिकित्सालय बुखार का नाम सुनते ही हाथ खड़े कर मरीजों को दुत्कार रहे हैं। जिन मरीजों को भर्ती भी किया,उनसे अपने पास रेमेडिसीवर की कमी बतलाकर कहीं और से खरीदने का दबाव बनाते हैं।
शासन द्वारा प्रदत्त इंजेक्शन को धनराशि प्राप्त करने के लिए धन्नासेठों के लिए रिजर्व कर ले रहे हैं। आंकड़ों में सब बढ़िया है, लेकिन सच्चाई से कब तक मुंह छुपाएंगे? हर दिन उपचार के अभाव में अस्पतालों से निकलने वाली लाशें गवाह हैं कि सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो चुकी हैं। सरकारें अपनी पीठ थपथपा रही हैं। और नेता तरक्की के आंकड़े पेश कर रहे हैं,लेकिन चारो ओर फैले मातम से उठ रहा धुआं उनके दम्भ और भुजबल प्रदर्शन पर लानत; मलानत भेज रहा है।
यह भी देखने को मिल रहा है कि रेमेडिसीवर की किल्लत न होने के लिए सरकारी मशीनरी ने अघोषित फरमान जारी कर दिया है और डॉक्टर आवश्यकता समझते हुए भी दवा-पर्चे में रेमेडिसीवर नहीं लिख रहे। ताकि रेमेडिसीवर के लिए मारामारी भी न हो, और आंकड़ों में उनके पास पर्याप्त स्टॉक भी दिखाया जाता रहे। मेडिकल संचालक इस समय भी ब्लैक-मॉर्केटिंग पर उतारू हैं। मनमाने दामों पर अति आवश्यक दवाओं की बिक्री जारी है। और सब चुप्पी साधे बैठे हुए हैं? मेडिकल संचालकों को किसी भी कार्रवाई का डर ही नहीं रह गया है,क्योंकि उन्होंने हर डर को नोटों के बण्डल से जीत लिया है। धड़ल्ले से जनता के घरों में डकैती डालने वाले माफिया रुपी नरपिशाच! केवल जनता के साथ आर्थिक लूटपाट ही नहीं कर रहे,बल्कि उनके जीवन के साथ भी खिलवाड़ कर रहे हैं।
अब वह समय आ गया है जब 'मेडिकल इमरजेन्सी' लगाकर महामारी के पूर्ण नियन्त्रण में होने तक सभी प्रायवेट हॉस्पिटलों,नर्सिंग होम का राष्ट्रीयकरण किए जाने का निर्णय लेने में देरी नहीं करनी चाहिए। आवश्यक दवाओं,स्वास्थ्य सुविधाओं की मानक दरें तय की जानी चाहिए। इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है जिससे इस महामारी के संकट से लड़ा जा सकता है। सरकारी चिकित्सालयों की कमानें भारतीय सेना के उच्चाधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में सौपना होगा।
इस दिशा में आरोप-प्रत्यारोप की घ्रणित राजनीति त्यागकर देश की जनता के जीवन को बचाने के लिए सबको आगे आना होगा। केन्द्र सरकार -राज्य सरकारों के साथ समन्वय बनाकर जनता के प्राणों को बचाने का दृढ़निश्चय दिखाना होगा जो 'मतदाता' और मां भारती की सन्तानें मानी जाती हैं।
मेडिकल इमरजेन्सी की घण्टी बजाकर -स्वास्थ्य माफियाओं की कमर तोड़िए,जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए जुट जाइए। राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर फिर आएगा। लेकिन इस वक्त आप जनता की अदालत में खड़े हैं। अब भी समय है, बचा लीजिए जनता को। आप सभी में व्यक्तिगत इतना सामर्थ्य है कि सब व्यवस्थाएं सुधार सकते हैं और जनता को अभय दे सकते हैं, लेकिन उसके लिए साहस चाहिए। कुर्सी फिर से मिल जाएगी लेकिन गया हुआ जीवन फिर दोबारा नहीं लौटेगा।
इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।