वो हमारे जाफरियों वाले बरामदे और कवेलू की छतों वाले हरे-भरे, बड़े-बड़े खुले मैदानों वाले स्कूल। सपनों में आते हैं। यादें तो आपको भी सताती होंगी। मीठे से दर्द के साथ।
मैडम आपसे कोई मिलने आए हैं। जब कॉलेज में सहायक दीदी ने मुझे आकर कहा तो मुझे लगा कि कोई मेरा शोध विद्यार्थी होगा। पर दो सज्जन से व्यक्ति बड़े अदब से आकर बोले- आपको शारदा स्कूल में शीला दीदी ने याद किया है। बतौर अतिथि। आप आएंगी ना?
आज की भाषा में हम 'शारदीयंस' के लिए ये 'दिल ढूंढता है, फिर वही फुर्सत के रात-दिन', 'आया है मुझे फिर याद वो जालिम, गुजरा जमाना बचपन का', 'हाय रे अकेले छोड़ के जाना और न आना बचपन का', 'कोई लौटा दे मेरा बीते हुए दिन, बीते हुए दिन वो मेरे प्यारे पल छीन...' जैसे कई सुमधुर गीतों की धुन पर मन-मयूर झूम उठा।
मेरा ये आलेख/यादें उन सभी को समर्पित, जो उन विद्यालयों में पढ़ते हैं, पढ़ाते थे, आगामी समय में पढ़ेंगे। विगत लगभग 47 वर्षों की मासूम यादों को समेटने की एक छोटी-सी, पर कोशिश की है। जानते हुए भी कि आसमान को मुट्ठी में कभी नहीं समेटा जा सकता। मेरी सभी बहनें इसके साथ अपने अनुभव, अपनी मधुर यादें इसमें जोड़ सकती हैं। मुझे बेहद ख़ुशी होगी।
पिछले कुछ वर्षों से हम (मैं और डॉ. मिश्र सा.) समयाभाव के कारण समारोहों में जाना सीमित कर चुके हैं। पर जैसे ही मामला शारदा स्कूल का सामने आया, जैसे अंधे को आंखें मिल गईं हों। बरसों से तन-मन में जो एक कर्ज छुपाकर रखा है, उसकी एक नन्ही-सी किस्त चुकाने का स्वर्णिम मौका आया खुली आंखों में सुनहरे स्वप्न की तरह।
उस पर मालिक की मेहरबानी यूं हुई कि बुलाने वालीं प्राचार्या महोदया और कोई नहीं मेरी अपनी बड़ी बहन ही थीं। आदरणीय शीला शर्मा दी। सुखद आश्चर्य और संयोग से मैं गदगद्। निहाल। इंकार तो हो ही नहीं सकता था। एक तो अपना स्कूल, दूसरे मां स्वरूप बड़ी बहन का प्यार। दोनों का मेरी निजता पर संपूर्ण अधिकार।
31 दिसंबर 2018 सुमधुर यादों की सौगातों से मेरी झोली भर गई। 2019 के लिए मालामाल कर गया। ईश्वर की इच्छापूर्ति देवी की तरह ही वो उस समय मुझे लग रहीं थीं जिनको मेरे किसी पुण्य के बदले भेजा गया। हम दोनों ही मधुर यादों में खोए बैठे। हम दोनों की ही पीढ़ियां उसी स्कूल से संस्कारित होकर के निकलीं। उसी स्कूल ने देश, प्रदेश व शहर को कई नायब हीरे-मोती दिए।
औपचारिकताएं पूरी हुईं। उस समय समझ नहीं आ रहा था कि खुद पर गर्व करूं, कि हंसूं, कि रोऊं? सिर्फ एक ही चीज थी वहां तब से लेकर आज तक। वो थी जमीन-आसमान, दूसरी शीला दी जिसे मैं वहां पहचानती थी बाकी सभी तो बदल गया था वहां, सभी कुछ।
मेरा दिल 13-14 वर्षों की किशोरवय बालिका का हो चला था। ढूंढ रहा था वहां बेचैन होकर मुख्य द्वार का बड़ा-सा लोहे का दरवाजा और उसके बाद शुरू होते बाग-बगीचे, साइकल स्टैंड, कई प्रकार फूलों से लदे-फदे पेड़-पौधे, लताएं, बगुनबेलिये, अमलताश, गुलमोहर, पीपल, नीम। इन सभी को अपनी बाहों में संभाले हुए हरी बड़ी-सी बागड़। आगे चलने पर दो चढ़ाव चढ़ने के बाद दीवार के साथ लगी-बनी फर्शी-पत्थर की बेंचें जिन पर बैठना सख्त मना था।
केवल स्कूल के चौकीदार भैया या माली बाबा ही बैठ सकते थे और हर आने-जाने वाले की खबर रखते।
उसके तुरंत बाद था ये हेsss बड़ा सा गेट, लकड़ी का दरवाजा। उसमें एक और 'बच्चा दरवाजा'। किसी 'खुल जा सिम-सिम' जैसा अहसास देता। दाखिल होने के बाद एक ओर बड़ी बहनजी का कमरा, दूसरी ओर कार्यालय। साथ ही लटकी हुआ करती थी 'जान की कभी दुश्मन, कभी दोस्त' पीतल की बड़ी-सी तवे की शक्ल की पीतल की घंटी और लकड़ी का बड़ा-सा हथौड़ा। जिसमें प्रार्थना से लेकर घर जाने की छुट्टी तक का राज छुपा रहता था।
प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर विद्यालयों में पढ़े हम लोगों में स्कूल शुरू होने के पहले होने वाली प्रार्थनाओं का अत्यंत महत्व होता। दूसरी ओर स्कूलों में होने वाली प्रार्थनाओं के प्रति घोर जिज्ञासा रहती। उन्हें भी सीखते। कभी धुली-बिना धुली, प्रेस-बिना प्रेस, दो चोटियों को जिनसे हम कभी संतुष्ट नहीं होते कि दोनों समान जगह पर हैं कि नहीं? अपनी रिबनों के साथ उनकी जगहों पर खसकाते।
पैरों में ऊंचे-नीचे होते मोज़े, धूल-मिट्टी से सने पर झटके हुए जूते, किसी खास दिनों में ही जिन पर पॉलिश का मुहूर्त निकला करता था और यदि सफेद कैनवास के जूते हैं तब खड़िया और पेम, ब्लैकबोर्ड चॉक वगैरह ही घिस लेते थे।
'बस्ता-पट्टी'- आज के बच्चों ने तो ये कानों में रस घोलता शब्द सुना ही नहीं होगा। हम कोई नई-नवेली थैली, हाथों से बना, कसीदा कढ़ा या बड़े किसी भाई-बहन का बस्ता, थोड़ा सुधार हो जाए तो पेटी, जो अमूमन एल्युमीनियम या पतरे-टीन की रंग-बिरंगी हुआ करती थी और इनमें ही बंद हुआ करता था हमारे बचपन के सपनों का जादुई संसार। जिसमें 'लकी' चीजों का खजाना छुपा होता था, जैसे पेन, पेंसिल, कंपास बॉक्स, स्टीकर्स, सितारे, रंगीन धागे, नोचे हुए ऊन के गुच्छे, सुंदर डिजाइन के बटन, लैस, फूल, खुशबूदार रबर। उफ्फ! जाने क्या-क्या, जो अपनी जान से भी प्यारा हुआ करता था।
पट्टी, रंगीन पेम, 'पानी-पोते की डिब्बी' कैसे भूल सकते हैं? वो भी हमारी संपत्ति होती थी। 'सूख-सूख पट्टी, चंदन घट्टी। आएगा राजा, देगा छुट्टी' हाथों में गीली पट्टी लेकर जब इस मंत्र के साथ जोर-जोर से हवा में सुखाते थे तो लगता था वरुण देवता का आव्हान कर रहे हैं। यही होता था फूल-से हल्के-फुल्के हमारे बस्ते और उछलते-कूदते मस्त-मौला हम।
यादें अभी और भी हैं... अगली कड़ी में... फिर मिलेंगे... सुनहरी यादों के साथ...!