शराब, शायरी और महफिलें। इन्हीं के ईर्द-गिर्द थी जनाब मिर्जा गालिब की जिंदगी। हद दर्जे की नवाबी भी रखते थे और हद दर्जे की फकीरी भी। तमाम जहां की शोहरत भी मिली उन्हें और जगभर की बदनामी भी।
लेकिन इतने दशकों बाद जब आज भी अगर गालिब याद किए जाते हैं तो अपने उसी शायरी वाले हुनर के लिए ही याद किए जाते हैं जो तमाम नौजवान, बूढ़े और शायरीपसंद के मुंह पर आज भी बरबस ही चली आती है। गालिब की शेर और शायरी आज कुछ हद तक प्रासंगिक है और कुछ हद तक नहीं भी है, क्योंकि जमाना बदल गया है, वक्त बदल गया है, इंसान बदल गया है।
हालांकि मुहब्बत की बात हो या हो जिंदगी का संघर्ष और तर्जुबा। उनकी शायरी में वो तमाम तत्व मौजूद हैं, जिनका लुत्फ आज भी २०२१ में नौजवान उठाते हैं।
हैरत होना चाहिए कि यह बात है उस वक्त के शायर की जिस वक्त में जब पेन का अविष्कार भी नहीं हुआ था, उस दौर में दवात में कलम डूबोकर लिखना होता था, तो क्या हमें ताजुब्ब नहीं होना चाहिए कि उस दौर ए जहां का शायर आज भी, इस वक्त में सोशल मीडिया पर उतना ही पॉपुलर है, जितना अपने जीते जी भी नहीं हुआ होगा।
उनकी पंक्तियों को एक टूटा हुआ प्रेमी अपनी टूटी हुई मुहब्बत के लिए भी इस्तेमाल करता है और जिंदगी की तकलीफों के लिए भी इस्तेमाल करता है।
आज अगर गालिब होते तो सोशल मीडिया पर अपनी शोहरत देखकर अचंभित होते। उनकी शायरी की पंक्तियां इजहार भी कर रही हैं, और जुदाई के बाद ताउम्र जिंदा रहने का हुनर भी सीखा रही है। वो हर मसले का समाधान नहीं है पर कम से कम उस मसले में राहत तो देती ही हैं।
जब वो कहते हैं कि—
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक।
तो आज के दौर में इसका मतलब शायद यही होगा कि जो करना है आज ही कर लो, इस वक्त कर लो। कौन जिएगा सारी उम्र यहां। अगर नहीं कर रहे हो मुहब्बत तो हम पीछे आने वाली दूसरी बस पकड़ लेंगे।
जब गालिब कहते हैं कि – हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
तो यही जेहन में आता है कि क्या क्या करें, इतनी ख्वाहिशें हैं कि चारों तरफ ख्वाहिशें ही ख्वाहिशें हैं, किसे पूरी करें किसे छोड़ दें। जितने अरमान पूरे करो कम ही लगते हैं, कार भी चाहिए, पैसा भी नाम भी और शोहरत भी और तमाम जहां की परियां भी।
मुहब्बत के लिए कहा गया उनका शेर मुझे आज के दौर में मुफीद प्रासंगिक नहीं लगता, जब गालिब चचा कहते हैं कि— मुहब्बत में नहीं है फर्क और जीने और मरने का, उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले।क्योंकि इस जमाने में किसी एक पर दम नहीं निकलता, दम निकलने के लिए बहुत से काफिर चाहिए।
देखिए पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फैज… गालिब का यह शेर भी कम ही मुफीद है इस जालिम जमाने में, क्योंकि किसी के पास इतना धैर्य नहीं कि वो बुतों को देखता रहे उसके हासिल तक। जिंदगी बहुत रफ्तार से भाग रही है। कौन देखेगा देर तक खड़ा रहकर कि देखते हैं बुतों से क्या मिलता।
हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि हम मिर्जा गालिब के बाद के दौर में पैदा हुए, कि हम यह बात कर सकते हैं कि उनका कौनसा शेर इस जहां में फिट बैठता है और कौनसा नहीं।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी राय है, वेबदुनिया से इसका संबंध नहीं है)