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गीतों को अमरता

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संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

गीतों का चलन तो आज भी है, जिसके बिना फिल्में अधूरी सी लगती हैं। टीवी, रेडियो, सीडी, मोबाइल, आइपॉड आदि अधूरे ही हैं। पहले गावं की चौपाल पर कंधे पर रेडियो टांगे लोग घूमते थे। कुछ घरों में टेबल पर या घर के आलि‍ए में कपड़ा बिछाकर उस पर रेडियो, फिर रेडियो के ऊपर भी कपड़ा ढंकते थे, जिस पर कशीदाकारी भी रहती थी। बिनाका-सिबाका गीत माला के श्रोता लोग दीवाने थे। रेडियो पर फरमाइश गीतों की दीवानगी होती, जिससे कई प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्रेम के  तार आपस में जुड़ जाते थे। वो गीतों में इतने भावुक हो जाते थे कि वे अपने आप को हीरो-हीरोइन समझने लगते।

 
दूर कहीं रेडियो पर सुनसान माहौल में बजता गीत, वाकई कानों में मधुर रस आज भी घोल जाता है। रेडियो का चलन बीच में कम हुआ था किंतु रेडियो ने अपने अनेक दोस्त बना लिए- जैसे रेडियो मिर्ची आदि। क्रिकेट मैच को टीवी पर देखते समय लाइट चले जाने पर कमेंट्री सुनने का एक मात्र सस्ता साधन रेडियो है। सहित्य, गायन कृषि, वार्ता आदि के लिए कलाकारों को आमंत्रित किया जाता रहा है। रेडियो पर बजने वाले गीत अब मोबाईल के संग जेबों में जा घुसे, गीतों में प्रतिस्पर्धा होने लगी। हर चैनल पर गायकों की प्रतियोगिता में अंक मिलने लगे। निर्णायकों की डांट और समझाईश की टि‍प प्राप्त होने लगी। जिससे प्रतिभागियों के चेहरे पर उतार चढ़ाव झलकने लगा। 
 
पृथ्वी पर देखा जाए तो गीतों को अमरता प्राप्त है। पृथ्वी पर कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहां गीतों का चलन न हो। वैज्ञानिकों ने गीतों को ब्रम्हांड में भी प्रेषित किया है, ताकि बाहरी दुनिया के लोग इस संकेत को पकड़ सके। शादी-ब्याह में वाद्य यंत्रों के साथ गीत गाने का चलन बढ़ने लगा है। गीतों की पसंदगी व हिस्सेदारी में पड़ोसी देश भी आगे आए है। पहले के जमाने में बच्चे-बूढ़े सभी अंतराक्षरी खेल कर अपने गायन कला का परिचय करवाने के साथ ही जीतने व ज्यादा गानों को याद रखने की कला को बखूबी जानते थे। 
 
वर्तमान में बढ़ती महंगाई, हिंसा, बलात्कार, भ्रष्टाचार दहेज प्रथा, समस्याओं आदि से दुखी लोग समस्यों के समाधान हेतु अपना राग अलाप ही रहे हैं, मगर समस्याओं के गीतों को सुने जाने के प्रति ध्यान कम ही है। गीतों में भी मधुरता जब ही प्राप्त होगी जब उनकी समस्याओं का त्वरित हल होगा। दिमाग में टेंशन और होने से गीत के बोल कर्ण प्रिय होने के बावजूद कर्ण प्रिय नहीं लगते। रेडियो, टीवी पर 'मन की बात" ही ऊर्जा भर सकती है। तभी रेडियो में बजता गीत- "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.." से मानो ऐसा लगता है की रेडियो की बहारें फिर से और ज्यादा खिलने लगी। हर इंसान गुनगुनाने लगा। आकाशवाणि‍यां होने लगीं। मानो समाधान होने वाला है।

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