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बुरा काम आलोचना का शिकार, तो अच्छा काम ईर्ष्या का

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डॉ. प्रवीण तिवारी

हम बुरा काम करेंगे तो आलोचना का शिकार होंगे और अच्छा काम करेंगे तो ईर्ष्या का शिकार होंगे। कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी एक कविता का जिक्र करते हुए यह बात कही थी। यह वाकई एक ऐसा सच है, जिसे हम आए दिन अपने जीवन में देखते रहते हैं। हां, समझ के फेर की वजह से हम कई बार सकारात्मक आलोचना को भी ईर्ष्या की श्रेणी में रख देते हैं। हालांकि सकारात्मक आलोचना के बजाए वर्तमान समय में ईर्ष्यालू प्रवृत्ति बहुत सामान्य तौर पर दिखाई देने लगी है।

 
ईर्ष्या के मूल और उसके दुष्प्रभावों को समझना बहुत जरूरी है क्योंकि यह सिर्फ एक आदत नहीं बल्कि एक मनोरोग की तरह है। हम किसी से ईर्ष्या क्यों करते हैं? दरअसल इस एक प्रश्न में ही हमारे व्यवसायिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन का ताना बाना-बुना रहता है।

हम किसी प्रयास में असफल होते हैं तो फौरन ही बहुत से लोग निंदा और आलोचना करने के लिए खड़े होते हैं। अपने जीवन में मिलने वाली असफलताओं के डर से भागने वाले तमाम लोग दूसरों को असफल होते देख एक सुखानुभूति में चले जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब लोग किसी अन्य की सफलता से भी भय खाने लगते हैं। वो जो खुद नहीं कर पाए यदि कोई और करता दिखता है, तो उन्हें भयानक कष्ट का अनुभव होता है।
 
 कई लोग अपनी सफलता से ज्यादा दूसरों की असफलता की प्रार्थना में व्यस्त हो जाते हैं। इन बातों को यहां लिखने की और समझने की जरूरत इसीलिए है क्योंकि दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, कैसे सोच रहे हैं, क्या करते हैं से ज्यादा जरूरी है खुद पर नजर रखना।

जब दूसरों के मन में पैदा होने वाली ईर्ष्या की बात होती है, तो हो सकता है आप समर्थन करने में एक पल न लगाएं, लेकिन जब आपके भीतर ईर्ष्या के बीज की बात होती है, तो आप इसे जाहिर करना तो बहुत दूर की बात है, स्वीकार तक नहीं करेंगे। यह बताने या स्वीकार करने का विषय है भी नहीं। हां, अगर आप स्वयं इस बात को लेकर सतर्क हो जाते हैं, तो अपने जीवन में कई सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।
 
अच्छा काम आपको ईर्ष्या का शिकार बनाता है। लेकिन ऐसा तभी होता है, जब आपने अपने इर्द गिर्द ईर्ष्यालू लोगों का जमावड़ा लगा लिया हो। ईर्ष्या नजदीक के लोग ही करते हैं। आप कभी भी अच्छे कामों को लेकर अनजान लोगों की ईर्ष्या का शिकार नहीं होते हैं। हां, कई बार आपकी शोहरत, संपन्नता जैसी विभूतियां ऐसी चीजों को ना पाने वालों के भीतर ईर्ष्या पैदा करती हैं। यह उदाहरण इसीलिए रखना जरूरी है, क्योंकि ईर्ष्या के मूल में अन्य लोगों की तरह किसी वस्तु या परिस्थिति को पाने की अक्षमता होती है। आपके भीतर यदि ईर्ष्या का बीज है, तो वह  आपको अक्षम ही बनाए रखेगा। 
 
एक सामान्य मनोविज्ञान है, कि आप अपने सामर्थ्य से थोड़ा आगे ही सोचते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर ईर्ष्या के बीज अपने ही घर में या दफ्तर में देखने को मिलते हैं। औरों की ईर्ष्या का इलाज आपके पास नहीं है, क्योंकि यह उनकी अपनी मनोस्थ‍िति या परेशानी है। हां, आप अपने भीतर से इस ईर्ष्या को निकालकर फेंक सकते हैं। इसे निकालकर फेंकने की जरूरत इसीलिए है, क्योंकि यह एक ऐसा अवगुण है, जो हमारी क्षमता और सोचने के तरीके को दूषित करता है। 
 
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औरों की ईर्ष्या से प्रभावित होकर यदि आप उस पर प्रतिक्रिया देते हैं, तो आप उन्हें और ईर्ष्या का ईंधन दे रहे हैं। यही बात आपकी ईर्ष्या पर भी लागू होती है। किसी और की आपके लिए की गई ईर्ष्या के प्रत्युत्तर में आपके द्वारा भी उसे यदि ईर्ष्या ही दी जाती है, तो आप भी उसी रोग के शिकार हो जाते हैं।

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यह शुरू एक आदत से होती है, लेकिन खत्म एक बीमारी पर होती है। बीमारी भी ऐसी की आप अपने जीवन को छोड़कर औरों के जीवन में ही तांकझांक करते रहते हैं। किसी और को आगे बढ़ते देख आपको घबराहट का अनुभव होने लगता है। लगभग हर नाकाम व्यक्ति की यही अवस्था देखने को मिलेगी। यह उसकी नाकामी को तो दिखाता ही साथ ही भविष्य में उसकी सफल होने की संभावनाओं के भी जड़मूल नष्ट होने की निशानी है।
 
ईर्ष्यालू प्रवृत्ति एक गलत अभ्यास से पनपनती है और यदि सही अभ्यास किया जाए तो इसे खत्म भी किया जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि आखिर वो सही तरीका क्या है? यदि आप ईर्ष्या का शिकार हो रहे हैं, तो समझ लीजिए आप अच्छा काम कर रहे हैं। क्यूंकि इसके अलावा ईर्ष्या के मूल में और कुछ हो ही नहीं सकता। अब बस अपने काम को जारी रखते हुए आपको अन्य लोगों की ईर्ष्या को नजरअंदाज करना होगा। अपने जीवन को उनके साथ सामान्य रखना होगा। क्योंकि सामान्यतः हम ईर्ष्या करने वालों से खुद भी ईर्ष्या करने लगते हैं। इसी तरह यदि किसी के भीतर ईर्ष्या पैदा करने के लिए आप किसी काम को कर रहे हैं, तो आप अपने भीतर भी रोग ही उत्पन्न कर रहे हैं।

यदि आप स्वभाविक रूप से अपने काम में आगे बढ़ते हुए इस ईर्ष्या को अपने इर्द गिर्द पाते हैं, तो ईर्ष्यालू लोगों के लिए भी आपको करुणा का भाव रखना होगा। यदि आप उनसे बात करना बंद करते हैं या ईर्ष्यावश उठाए उनके कदमों पर आप प्रतिक्रिया देना शुरू करते हैं तो आप इस प्रवृत्ति को और हवा दे देते हैं।
 
 दूसरी स्थिति यह है कि आप स्वयं ईर्ष्यालू प्रवृत्ति के हैं। यदि आपके भीतर ईर्ष्या घर कर रही है तब आपको अपनी क्षमताओं के विषय में चिंतन करना चाहिए। यदि आप किसी सामान्य सामर्थ्य वाले या आपके समकक्ष सामार्थ्य वाले से ईर्ष्या कर रहे हैं तो तय है कि आप में सफलता की भूख इतनी घर कर चुकी है कि किसी अन्य को मिलने वाली एक छोटी सी सफलता भी आपको चुभने लगती है। यह भी भयंकर मनोरोग ही है। इससे बचना इसीलिए जरूरी है, क्योंकि ईर्ष्यालू प्रवृत्ति आपकी क्षमता को लगातार कम करती है। आपके विचारों की गति ही आपके जीवन में मिलने वाली सफलता या असफलता को तय करती है। यदि आप ईर्ष्यालू मन के साथ विचार कर रहे हैं, तो आप कभी स्वस्थ चिंतन नहीं कर पाएंगे। 
 
आप को गंभीरता से इस ईर्ष्या के मूल पर विचार करना होगा। आप अपने भाई से, दोस्त से या दफ्तर के किसी सहयोगी से ईर्ष्या करते हैं लेकिन किसी बड़े फिल्म स्टार या किसी अन्य बहुत बड़े व्यक्ति से शायद नहीं करेंगे। इसकी वजह यह है कि आप अपने आपको एक सीमित दायरे में बांध लेते हैं। उसी दायरे में खुद को उत्कृष्ट बनाने की एक अंधी दौड़ शुरू हो जाती है। हमेशा याद रखिए उत्कृष्टता किसी दायरे के लिए नहीं होती है। यदि आप स्वयं के व्यक्तित्व को सचमुच बड़ा और प्रभावशाली बनाना चाहते हैं, तो आपको क्षुद्र दायरों से निकलकर स्वयं के उत्थान और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक गुणों पर सतत चिंतन करना चाहिए।

अभ्यास और समय का बेजोड़ मेल आपको जीवन में आदर्श का पात्र बनाता है न कि ईर्ष्या का। जो आज आदर्श हैं वो भी कभी ईर्ष्या के शिकार हुए होंगे, लेकिन सतत अपने लक्ष्य के प्रति सतर्कता, अन्य लोगों से ईर्ष्या न करना और स्वयं अन्य लोगों के द्वारा की जा रही ईर्ष्या के प्रति उदासीन रहना उनके आदर्श बनने का मूल मंत्र बना।

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