कृष्ण की कहानी तो आप सदियों से सुनते आ रहे है, पर कन्हैया की कहानी अभी-अभी शुरू हुई है। सुविधा हेतु मैं कृष्ण को दक्षिणपंथियों का भगवान बता रहा हूं, क्योंकि वामपंथी तो ईश्वर में यकीन रखते नहीं हैं। पर इस कृष्ण और कन्हैया में अजीब-सी समानता है और दक्षिणपंथी तथा वामपंथी के बीच की दूरी हटाने का सामर्थ्य भी।
वैसे हिन्दुस्तान में वामपंथियों को अपनी राजनीतिक जमीन को फिर से पाने के लिए ईश्वर की शरण की अत्यंत जरूरत है क्योंकि ईश्वर की राह के अलावा सारे रास्ते तो उनके बंद हो चुके हैं, ऐसे में कन्हैया का आना वामपंथियों के लिए वैसा है जैसा द्रौपदी के लिए कृष्ण का आना महाभारत में। इस पूरी कवायद में वामपंथी को ऑफिशियली भगवान की शरण में जाने की जरूरत भी नहीं पड़ी और उन्हें भगवानस्वरूप कन्हैया भी मिल गया उनकी नैया पार लगाने के लिए।
मुझे ये तो नहीं मालूम की वर्तमान परिस्थितियों में अर्जुन कौन है- राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, अरविन्द केजरीवाल, नीतीश कुमार या कोई और। नरेन्द्र मोदी तो बिल्कुल नहीं क्योंकि वो खुद बीजेपी के लिए कृष्ण है। पर कन्हैया तो एक ही है और कुछ समय के लिए तो राजनीतिक पटल पर छाया ही रहेगा। वैसे इस बात का हमसे क्या मतलब, ये जानना ज्यादा अहमियत रखता है कि ये देश दक्षिणपंथी कृष्ण को समझे और वामपंथी कन्हैया की बातों को भी।
कृष्ण हिन्दुस्तान के लिए एक बड़े भगवान हैं तो कन्हैया बीजेपी विरोधी दलों के लिए एक भगवान की तरह। आप कन्हैया को जिस भी तरह से देखना चाहे, आप स्वतंत्र हैं, मैं तो सिर्फ उसकी कहीं हुईं बातों को प्रतिकात्मक तरीके से समझने की कोशिश में हूं।
इसमें तो किसी को आपत्ति नहीं होगी कि देश को सामंतवादी से आजादी चाहिए नहीं तो देश और खोखला होता जाएगा। ये विचार वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं है, और न ही कन्हैया का पैदा किया हुआ। ये तो एक सच है जिसको पंथ निरपेक्ष के चश्मे से देखना चाहिए।
गरीबी, जुल्म और अन्याय आज भी छोटे-छोटे गांव की हकीकत है और अन्याय के खिलाफ जंग तो भगवान कृष्ण के महाभारत ज्ञान का अहम पहलू है। क्या हमें इसको जड़ से समाप्त करने की जरूरत नहीं है ?
जिस देश में आज भी लोग भूखमरी, गरीबी और घर के अभाव में खुली छत के नीचे मरते है वहां आजादी तो चाहिए ही, कोई कन्हैया कहे या न कहे। असली 1947 तो अभी होना बाकी है हिन्दुस्तान में।
अपनी राजनीतिक भक्ति और राजनीतिक सोच से ऊपर उठकर बौद्धिक स्तर पर इस आजादी की जरूरत को समझने की दरकार है, आप कन्हैया को नहीं पर उसके उठाए हुए सवाल पर ध्यान दें जो स्टैब्लिशमेंट के खिलाफ ना होकर, व्यवस्था पर प्रश्न है। हालांकि उसके सवाल राजनीतिक पेंच में फंस के कहीं राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ हथियार न बन जाए ऐसी मेरी कृष्ण भगवान से कामना है।