प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता है। इसे आम बजट इसीलिए कहा जाता है, क्योंकि ये आम के सीजन के पहले आता है। बजट पेश करने के पीछे आय-व्यय का वार्षिक लेखा-जोखा रखना तो गौण कारण है, इसके पीछे (सुविधानुसार चाहे तो आगे भी मान सकते हैं) मुख्य कारण यह है कि बजट पेश करने से जनता में संदेश जाता है कि सरकारें केवल 'ऐश और केश' ही नहीं कर रही हैं बल्कि कुछ 'पेश' भी कर रही हैं।
हमारे देश में अभी तक केवल 'घाटे का बजट' ही पेश किया जाता रहा है, वो इसीलिए क्योंकि हम भारतीयों की तरह हमारी सरकारें भी अंधविश्वासी होती हैं। वे नहीं चाहतीं कि नफे या फायदे का बजट पेश करके देश के शत्रुओं/प्रतिद्वंद्वियों को हमारी अर्थव्यवस्था को नजर लगाने का मौका मिले।
देश के सत्तारूढ़ दलों का शुरू से मानना रहा है कि भले 5 साल पूरे होने के बाद सरकार किसी से नजर मिलाने के काबिल रहे या न रहे, लेकिन किसी को भी देश और इसकी इकोनॉमी पर नजर लगाने का मौका नहीं मिलना चाहिए।
एक पूर्व वित्तमंत्री ने तो नजर न लगे, इसके लिए आरबीआई की बिल्डिंग पर 'नजरबट्टू' के रूप में काली हांडी लटकाने का भी प्रस्ताव दिया था। लेकिन कहीं विपक्ष, सरकार पर देश के 'कालेकरण' का आरोप न लगा दे इसीलिए उनका ये प्रस्ताव प्रधानमंत्री ने ताव खाकर नामंजूर कर दिया था।
उल्लेखनीय है कि नजर लगने के मुद्दे पर ज्यादातर समय सत्ता में रहने वाले दल का मानना है कि इतने सालों में हमने देश की हालत ऐसी कर दी है कि अब देश को नजर लगने का खतरा नहीं है बल्कि अब तो दूसरे देश चाहे तो नजर से बचने के लिए हमारे देश के नक्शे का प्रयोग 'नजरबट्टू' के रूप में कर सकते हैं।
हर साल संसद के बाहर मीडियाकर्मियों को 'ब्रीफ' करने के बाद वित्तमंत्रीजी 'ब्रीफकेस' की चारदीवारी से बजट को संसद की 'चारदीवारी' में लाते हैं और फिर बजट की हर योजना को 'ब्रीफ' में समझाते हैं।
बजट पर सत्तापक्ष और विपक्ष की प्रतिक्रियाएं भी बजट की तरह बजट पेश करने से पूर्व तैयार कर ली जाती हैं ताकि बजट भाषण समाप्त होने के तुरंत बाद 'थोक के भाव' में 'खुदरा मूल्य' वाली प्रतिक्रियाएं दी जा सकें और बजट पेश करने के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों आराम से सो सकें और वित्तमंत्री को बजट पेश करने में कोई व्यवधान न आए।
अक्सर ये देखा गया है कि बजट भाषण पढ़ते हुए वित्तमंत्रीजी घबराहट में इतना पानी पी जाते हैं जितना कि वे अपने बजट में प्रस्तावित 'पानी बचाओ योजना' से बचाने वाले थे। कुछ वित्तमंत्री तो अपने भाषण को सरकार की तरह बोझिल होने से बचाने के लिए कविता और शेरो-शायरी का सहारा लेते हैं।
कई लोगों को तो बजट भाषण में केवल कविता/शेरो-शायरी ही समझ में आती है और वो इसके लिए मन ही मन वित्तमंत्री को धन्यवाद भी देते हैं, क्योंकि कविता/शेरो-शायरी के कारण ही वे पूरा भाषण समझ न आने की शर्मिंदगी से बच सके हैं।
बजट भाषण समाप्त होने के बाद आम आदमी को ये चिंता रहती है कि उसे आयकर में कितनी छूट मिली और उत्पाद शुल्क/सेवाकर में बदलाव के कारण कौन सी वस्तुएं महंगी या सस्ती हुई हैं जबकि बजट भाषण सुनकर बाहर निकले सांसदों को ये चिंता सताती है कि उनकी 'रटी-रटाई' प्रतिक्रिया सुनने के बाद मीडिया वाले कहीं उनसे बजट भाषण के 'कंटेंट' पर कोई सवाल न पूछ ले।
बजट आने के कुछ दिन पहले से ही न्यूज चैनल्स अपने स्टूडियो में आर्थिक विशेषज्ञों को बुलाकर उनसे तरह-तरह के सवाल पूछकर और डिबेट करवाकर बजट के लिए माहौल बनाना शुरू कर देते हैं। कुछ विशेषज्ञों को सुनकर और देखकर तो ऐसा लगता है कि उनके विशेषज्ञ होने की वैलिडिटी प्रोग्राम पर आने वाले कॉमर्शियल ब्रेक तक ही होती है और कॉमर्शियल ब्रेक के दौरान उन्हें छोटा रिचार्ज करके अगले कॉमर्शियल ब्रेक तक फिर विशेषज्ञ बनाया जाता है। ऐसे विशेषज्ञ 'ऑफ द रिकॉर्ड' बातचीत में कहते हैं कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि उनको आर्थिक मामलों की उतनी ही जानकारी होती है जितनी कि उनसे सवाल पूछने वाले न्यूज एंकर्स को पत्रकारिता की। इसलिए हिसाब 'फिट्टूश' हो जाता है, मतलब बराबर हो जाता है।
बजट पर आम जनमानस की प्रतिक्रियाएं भी देखने लायक होती हैं (सुनने लायक नहीं)। जिन लोगों को मोहल्ले का बनिया 100 ग्राम शकर भी उधार नहीं देता वो भी सरकार को वर्ल्ड बैंक से उधार लेकर अधूरी परियोजनाएं पूरी करने की सलाह देते हैं। सब्जी के साथ मुफ्त का धनिया और कढ़ीपत्ता लेने के लिए सब्जी वाले से झगड़ने वाले लोग बजट में नए प्रोजेक्ट्स के लिए सब्सिडी दिए जाने पर सरकार की यह कहकर आलोचना करते हैं कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ पड़ेगा। जिन लोगों का कहना घर पर उनके बीवी-बच्चे भी नहीं मानते हैं, वो लोग भी बजट में अपनी मांगें पूरी न होने पर सरकार को अगले चुनाव में 'देख लेने' की धमकी देते हैं।
जो व्यस्त लोग सड़क और चौराहों पर, सड़कछाप मीडिया को बजट पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाते, वे अपनी एसी कार में 'आईफोन सिक्स-एस' से ट्वीट और पोस्ट करके बताते हैं कि बजट गरीब और किसान विरोधी है और इससे आम आदमी पर महंगाई की मार पड़ेगी।