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मेरा ब्लॉग : कुर्यात सदा मंगलम्...

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स्वरांगी साने

* अन्न का एक दाना भी न हो जाया
 

 
विवाह की पत्रिका द्वार पर थी। सौभाग्यकांक्षिणी अपूर्वा देवधर राजवाडे खानदान में ब्याही जानी थी। उससे पहले व्हाट्सएप पर भी पत्रिका आ चुकी थी। व्हाट्सएप पर पत्रिका का आना अब नई बात नहीं है, पर पत्रिका की एक बात ध्यान खींच रही थी।
 
अमूमन लड़के वालों के यहां की पत्रिका हो तो केवल वर पक्ष के लोगों का नाम स्नेहाभिलाषी में होता है और वधू पक्ष की पत्रिका में वधू पक्ष का। इस पत्रिका में स्वागतातुर में दोनों परिवारों के नाम थे- देवधर और राजवाडे। इसे लेकर वधू के पिता सुनील केशव देवधर की भूमिका भी बहुत साफ थी कि जब दोनों परिवार जुड़ने जा रहे हैं तो आने वाले मेहमान भी दोनों परिवारों के हुए। उन्होंने वर के पिता से इस बारे में बात भी की कि अबसे आपके और हमारे जान-पहचान वाले, नाते-रिश्तेदार एक ही होने वाले हैं तो स्वागतातुर में केवल मैं अपने ही परिवार का नाम क्यों दूं? राजवाडे परिवार ने भी हामी भर दी।
 
जाहिरन शादी में जाना ही था। शादी मतलब धूम-धड़ाका, शोर-गुल और उफ्फ् यह गर्मी। शादियों में सुनाई देने वाली डीजे की आवाज पहले ही दिल की धड़कन बढ़ा रही थी। नियत तिथि और मुहूर्त पर लग्न था। पहुंच गए। लेकिन यह क्या। सब इतना सौम्य, शांत और सुमधुर, विवाह की बेला में केवल शहनाई और कुछ नहीं। लाउड म्यूजिक हो तो लोग उससे भी लाउड आवाज में बातें करने लगते हैं लेकिन संगीत नहीं था तो आपसी बातचीत आत्मीय हो रही थी और वही वर-वधू को शुभाशीष बरसा रही थी।
 
मराठी परिवारों में शादी के मुहूर्त का खासा महत्व होता है, उतना ही मंगलाष्टक का और उतना ही अक्षता का। उत्तर भारत में पीले चावल देकर शादी में आने का न्योता दिया जाता है और महाराष्ट्र में कुमकुम लगे चावल दूल्हा-दुल्हन पर डाले जाते हैं, अक्षता कहते हैं उन्हें। जो अक्षत रहे, जिनका क्षय न हो वे अक्षता। 
 
लेकिन मंगलाष्टक के बाद ये दूल्हा-दुल्हन पर न गिरकर कई बार उनके ठीक पीछे खड़े लोगों पर ही बरसते हैं, उनकी पिछली पंक्ति में खड़े लोगों की फेंक वर-वधू तक जा ही नहीं पाती। उसके बाद जिन्हें इतना पवित्र माना जाता है, वे जमीन पर बिखरी पड़ी मिलती हैं। अन्न को पैर भी लगाना पाप माना जाता हो, वहां अमंगल होता है और लोगों के जाने-अनजाने अन्न पैरों तले कुचलता चला जाता है। इस शादी में नई बात यह थी कि अक्षता केवल पहली दो पंक्तियों के लोगों में ही बांटी गई थी ताकि वह वर-वधू के शीश-माथे चढ़े और उनके मंगलमय जीवन की कामना के रूप में उन पर बरसे। 

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आकाशवाणी, पुणे के कार्यक्रम अधिकारी और लड़की के पिता सुनील देवधर ने कहा कि महाराष्ट्र में सूखे का कहर छा रहा है, लोग एक-एक दाने को तरस रहे हैं तब मैं भला अन्न का अपव्यय करने का अधिकारी कैसे हो सकता हूं? मंच से माइक पर यह उद्घोषणा की गई कि पहली दो पंक्तियों में ही अक्षता दी जाएगी। 
 
खचाखच भरे हॉल में उपस्थित हर एक के मन ने इस बात पर सहमति की मुहर लगा दी। वर-वधू पर प्रत्यक्ष तौर पर उपस्थितों के आशीष बरसे और अप्रत्यक्ष तौर पर उन तमाम किसानों के जिनके खेत सूख रहे थे। उसके बाद भोजन भी सादा जीवन, उच्च विचार की बानगी दे रहा था। ऐसा नहीं था कि पकवान नहीं थे, ऐसा नहीं था कि मिष्ठान्न नहीं थे लेकिन दिखावे के लिए स्टॉलों की भरमार नहीं थी। 
 
पत्नी के गुजर जाने के बाद 11 साल अकेले दोनों बेटियों को बड़ा किया था। जिसकी शादी हो रही थी वह लंदन से लौटी थी लेकिन विदेश से लौटने का गुरुर उसमें नहीं था। होता भी कैसे? पिता के संस्कार जो उसमें रचे-बसे हैं। 
 
देवधर कहते हैं, सुपारी को अपने साथ रख मैंने विधि-विधान किए, सुपारी को पत्नी के स्थान पर रखा, पत्नी की तस्वीर रखी। पत्नी गुजर जाने के बाद अकेला पति अपनी बेटी का विवाह कर सकता है, मैंने किया। उसे बिदा करने का अधिकार मैं किसी और को भला कैसे देता? मैं मानता हूं कि पुरुषों के लिए समाज में सारी स्थितियां बहुत आसान होती हैं लेकिन दो लड़कियों को अकेले बड़ा करना उतना भी आसान नहीं होता। 
 
उन्होंने आगे कहा कि मैं यह नहीं कहता कि मैंने कोई क्रांति की, लेकिन सन् 1980 में जब मेरी दीदी की शादी होना थी और मेरे पिता नहीं थे तब हम छतरपुर में रहते थे। छतरपुर, जो पुणे के बनिस्बत आज भी छोटा है और वह दौर भी 80 का था लेकिन तब भी शादी की पत्रिका में मैंने अपनी मां का नाम ही लिखवाया था। जिसका जो हक है वह तो उसे मिलना ही चाहिए। जैसे मेरी मां का हक, मेरा हक और... उस किसान का हक जो पसीने से अन्न उपजाता है, उसके हिस्से की बर्बादी रोकने की मेरी कोशिश छोटी हो सकती है, पर मेरा विश्वास है कि हर कोई अपने स्तर पर ऐसी छोटी-छोटी कोशिश करे, तो बड़ा बदलाव जरूर हो सकता है। 


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