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रिओ ओलंपिक में भारत के लिए काला अध्याय

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डॉ. प्रवीण तिवारी

नरसिंह यादव के डोप विवाद को रिओ ओलंपिक का सबसे दुखद अध्याय कहा जा सकता है। डोप टेस्ट के बाद नाडा की क्लीनचिट ने उनके लिए उम्मीद की एक किरण जगाई थी, लेकिन वाडा ने उन्हें उनके मैच से कुछ देर पहले ही वापसी का टिकट दे दिया।




पहले रिओ जाने को लेकर जबरदस्त खींचतान देखने को मिली थी। सुशील कुमार और नरसिंह यादव में से कौन रिओ जाएगा को लेकर जमकर सियासत हुई और जमकर बयान बाजियां हुईं। पिछले ओलंपिक में सिल्वर जीतने वाले सुशील जैसे स्टार रेसलर को इस लड़ाई में पछाड़ने के बाद वो आगे तो बढ़े लेकिन डोपिंग का डंक उन्हें ऐसा लगा कि उनके जीवन का एक बड़ा सपना चकनाचूर हो गया। कुछ लोगों को यह भी उम्मीद थी कि कठिन समय से गुजरने वाले नरसिंह इस विवाद से उबरकर असल जिंदगी के सुल्तान साबित होंगे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। साक्षी, सिंधू, दीपा, योगेश्वर जैसे खिलाड़ियों के माता-पिता की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे उत्साह से भरे हुए थे, तो नम आंखों वाले नरसिंह के माता-पिता की तस्वीरें भी हमारे सामने थी।

नरसिंह के रिओ में नहीं खेल पाने की वजह से सिर्फ भारत के पदक की उम्मीद ही नहीं टूटी, बल्कि हमारे खेलों में राजनीति हावी होने की भी बात साफ हो गई। नरसिंह रिओ जाने से पहले पीएम मोदी से भी मिले थे। पीएम को भी उम्मीद थी कि नरसिंह कोई चमत्कार जरूर करेंगे लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। भारत के पास पदक की उम्मीदें जगाने वाले खिलाड़ियों की तादाद बहुत कम है और नरसिंह के बारे में सभी का एक सुर में यह दावा था कि उनमें पदक जीतने वाली बात मौजूद है। नरसिंह को जिस तरीके से ओलंपिक से बाहर किया गया वो भारतीय खिलाड़ियों के लिए भी एक धब्बा है।
 
नरसिंह यादव को रिओ भेजे जाने के बाद एक सवाल यह भी गहराया कि सिस्टम के खिलाफ क्या जिद ठानना जरूरी था? सवाल इसलिए उठता है क्योंकि जब नरसिंह के खिलाफ डोपिंग का मामला आया था, तो उसकी जांच के लिए हमारे पास एजेंसियां पहले से मौजूद थीं। उन्हें साजिश की बिनाह पर क्लीन चिट दिया जाना एक जल्दबाजी और जिद में लिया गया फैसला लगता है।

यदि नरसिंह किसी भी वजह से मानदंडों से बाहर हुए थे तो ऐसी क्या गरज थी कि रिओ के एक मैडल को ही दांव पर लगा दिया गया। इसमें कोई दो राय नहीं, सुशील का अऩुभव और दो बार के ओलंपिक पदक विजेता की दावेदारी को खारिज कर देना एक गलत कदम दिखाई पड़ता है। नरसिंह के डोपिंग विवाद की जांच अपनी जगह है लेकिन इस बात की जांच कौन करेगा कि सुशील कुमार को भेजे जाने में क्या दिक्कत थी? 
 
यह एक जिद ही दिखाई पड़ती है कि सुशील को किसी खास वजह से रिओ का टिकट नहीं मिला। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नरसिंह ने क्वालीफाय किया था और आगे जाना उनका हक था। मैंने खुद भी उनके समर्थन में लिखा था कि सुशील को भी इस जिद को छोड़ना चाहिए कि नरसिंह यादव के बजाय उन्हें भेजा जाए क्यूंकि वो ज्यादा अनुभवी हैं और पदक की दावेदारी भी वो ज्यादा बेहतर पेश कर सकते हैं। सुशील ने अपनी लड़ाई लड़ी और वो इसे हार भी गए। यह सवाल तब गंभीर हो गया जब नरसिंह डोपिंग के दोषी पाए गए। उन्होंने बिना किसी का नाम लिए सुशील और महाबली सतपाल को ही कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया। इस बात को इसलिए अहमियत देना जरूरी है क्योंकि अब कुश्ती पर राजनीति हावी दिखाई पड़ेगी। सभी जानते हैं कि महाबलि सतपाल की कांग्रेस से नजदीकियां रही हैं। ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बदले हुए राजनैतिक परिदृश्य में भी कुश्ती पर राजनीति हावी रही है।
 
एथेंस, बीजिंग के बाद लंदन ओलंपिक में भी सुशील ने हिस्सा लिया था। एथेंस में वो कोई कमाल नहीं कर पाए थे और अपनी वेट कैटेगरी में 16 वें नंबर पर रहे थे, लेकिन इसके बाद हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में जीते गए गोल्ड ने उन्हें नई पहचान दे दी। बीजिंग में उनसे उम्मीदें बढ़ गई थीं और उन्होंने इन उम्मीदों पर खरे उतरते हुए कांस्य पदक भी जीता था। इसके बाद लंदन में वो रजत पदक जीतने में कामयाब रहे। रिओ में भी उनसे उम्मीदें थीं लेकिन वो यहां जा ही नहीं पाए। सभी के जेहन में सवाल आया कि आखिर दो बार का ओलपिंक पदक विजेता क्वालीफाय करने में कैसे पिछड़ गया। दरअसल इसके पीछे की बड़ी वजह थी नरसिंह का इस वैट केटेगरी में पहले ही क्वालीफाय कर जाना। 2015 में वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए सुशील का नहीं जाना भी उनके क्वालीफाय नहीं कर पाने की वजह बना।
 
बड़ा स्टार होना भी कई बार दिक्कत दे देता है। इस मसले पर सुशील कुमार से भी बात हुई। उनका कहना था कि जो होना था वह हो चुका, अब इस पर क्या बात की जाए। नरसिंह ने पहले ही क्वालीफाय कर लिया था। यह सब तकनीकी पहलू था, इसमें किसी के बेहतर या कमजोर होने का कोई लेना देना नहीं था। दो खिलाड़ियों के बीच की योग्यता तौलने की अगर जरूरत होती है तो उन दोनों का मुकाबला करवाकर देख लेना चाहिए। सुशील ने नरसिंह से मुकाबले की बात कही भी थी, लेकिन उनकी इस मांग को खारिज कर दिया गया था। नाडा का नरसिंह को क्लीन चिट देना और वाडा के सामने उनके पास साजिश के कोई सबूत न होना उन पर भारी पड़ गया। इस एक उलझन ने दो खिलाड़ियों के करियर के साथ खिलवाड़ किया तो देश के लिए संभावित मैडल की उम्मीद को भी खत्म कर दिया।
 
नरसिंह अब इस लड़ाई को आगे ले जाने की बात कह रहे हैं। जाहिर तौर पर उनके बाहर होने से सुशील की जीत नहीं हुई, लेकिन यह मामला जितना लंबा खिंचेगा उतना ही इस खेल के लिए खराब होगा। देश के कई युवा खिलाड़ियों के लिए सुशील और नरसिंह जैसे खिलाड़ी एक उम्मीद की किरण हैं। ऐसे में यदि वे मैदान के बाहर की एक अलग कुश्ती उनके सामने पेश करेंगे, तो उनके द्वारा अभी तक पेश किए गए सकारात्मक आदर्श पर भी बुरा असर पड़ेगा।


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