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सभ्यता से बर्बरता की तरफ बढ़ने के आंसू

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ललि‍त गर्ग

हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में चैंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं, जो नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों के घोर पतन को बयां करते हैं। इस रिपोर्ट में यह कहा जाना, कि दिल्ली में दुष्कर्म के 90 फीसदी से अधिक मामलों में आरोपी पीड़ित के परिचित या पारिवारिकजन ही होते हैं, नए बनते समाज की बुनावट पर सवालिया निशान है।




चारित्रिक धुंधलकों ने ही मनुष्य के विवेक पर पर्दा डाल दिया है। इसी का परिणाम है कि आज चरित्र हनन एवं दुष्कर्म की घटनाएं चैंकाती नहीं है। धूप और छांव की तरह चरित्र की रौशनी भी कभी तेज और कभी मंद होती रही है, लेकिन लगातार मनुष्य की हवस का बढ़ना और उसका हिंसक होना-समाज का सभ्यता से बर्बरता की तरफ बढ़ने को ही दर्शाता है, जो गहन चिंतनीय विषय है।
 
एनसीआरबी की रिपोर्ट में यह कहा जाना कि दिल्ली में दुष्कर्म के 90 फीसद से अधिक मामलों में आरोपी पीड़ित के परिचित या पारिवारिकजन ही होते हैं। इससे यह साबित होता है कि यहां अपने ही इज्जत तार-तार करने में लगे रहते हैं। यह इस बात का सबूत है कि दिल्ली वालों में नैतिकता का घोर पतन हो चुका है। यही वजह है, कि गोविंदपुरी में तीन साल की बच्ची को उसका फूफा और भारत नगर में एक 10 साल की बच्ची को भी उसका रिश्तेदार ही हवस का शिकार बनाता है। समयपुर बादली में एक कमरे में अपनी दो मासूम बेटियों को बंद करने और दूधमुंहे बेटे को जिंदा मूनक नहर में फेंकने वाले पिता बंटी की क्रूर एवं बर्बर सोच तो सभी मानवीय सीमाएं लांघ गई है।

यह और ऐसी अनेक भयानक एवं त्रासद घटनाओं का हर दिन सुर्खियां बनने का सिलसिला-सा सामने आना समाज की व्यवस्था और उसकी बुनावट के बारे में सोचने को विवश करता है। व्यक्ति अगर बीमार होता है तो उसका इलाज करने के लिए चिकित्सा सुविधाएं, दवाइयां हैं, डॉक्टर उपलब्ध हैं, मगर परिवार और समाज ही बीमार हो जाए तो उसके इलाज के क्या उपाय हैं? समस्या जब बहुत गंभीर और चिंतनीय बन जाती हैं, तो उसे मोड़ देना और उसका समाधान तलाशना बहुत जरूरी हो जाता है। 
 
दिल्ली देश की राजधानी है और न केवल पूरे राष्ट्र को, बल्कि दुनिया को यहीं से देश की बुनावट का संदेश जाता है। जो तथ्य एनसीआरबी ने प्रस्तुत किए हैं, वे एक चेतावनी है। उसे राजधानी दिल्ली के लिए तो कतई भी अच्छा नहीं कहा जा सकता। सोचने वाली बात यह है कि जब खुद के रिश्तेदार ही इस तरह की वारदात कर बच्चों की पूरी जिंदगी को जख्म दे रहे हैं, उसे लील रहे हैं, और अपराध की जमीं को हराभरा कर रहे हों तो औरों से क्या उम्मीद की जा सकती है। जिन लोगों को बच्चों का सहारा बनकर अच्छी शिक्षा और संस्कार देना चाहिए वे इस तरह की घिनौनी हरकत कर इंसानियत को भी कलंकित कर रहे हैं और समाज व्यवस्था को भी जख्मी बना रहे हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए ताकि फिर कोई ऐसी हिम्मत न जुटा सके।
 
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अपहरण, चोरी, लूट से लेकर धोखाधड़ी में राजधानी में अन्य मेट्रो सिटी की अपेक्षा सबसे ज्यादा मुकदमे दर्ज किए गए हैं। यह स्थिति यहां की बिगड़ती कानून व्यवस्था का परिचायक है। यह दिल्ली पुलिस की साख पर भी बट्टा लगाती है। यह सच भी है कि राजधानी में हर छोटी-मोटी बात पर हत्या की घटनाएं रोजाना ही होती रहती हैं। पुलिस के कामकाज का आलम यह है कि थाने से महज 500 मीटर पर भी वारदात होती है तो उसे पहुंचने में कभी-कभी एक घंटे तक का समय लग जाता है। यह हाल तब है जब दिल्ली पुलिस को हर तरह की हाईटेक सुविधा उपलब्ध है।

इससे साफ पता चलता है कि पुलिसकर्मियों की लापरवाही के कारण ही अपराध बढ़ रहे हैं। बात केवल पुलिस की ही नहीं है, जिंदगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि नैतिकता एवं चरित्र जितना ऊंचा उठना चाहिए, उतना क्यों नहीं चारित्रिक विकास होता? दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों के साथ-साथ समाज को दिशा देने वाले लोगों को भी इस रिपोर्ट का विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि सामाजिक संबंध, परस्पर संवाद और मानवीय संवेदना की समाप्ति की ये घटनाएं समाज के मृत होते जाने की चिंतनीय स्थिति को दर्शाते है। घरों एवं परिवारों में अपने की बच्चों को हवश का शिकार बनाना, उन पर अत्याचार करना, उनकी जीवन लीला को ही समाप्त कर देना-जैसी बर्बर एवं क्रूर चुनौतियों का क्या अंत होगा? बहुत कठिन है उफनती नदी में नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना। 
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तेजी से बढ़ता नैतिक एवं चारित्रिक अवमूल्यन का दौर किसी एक प्रांत का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी बनाया है। अब इसे रोकने के लिए प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। शायद हम प्रौद्योगिकी और संसाधनों की दृष्टि से तो विकसित हुए हैं, लेकिन मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की दृष्टि से हमने पशु जगत को भी पीछे छोड़ दिया है। नैतिकता एवं चरित्र के सवाल भी आज हाशिये पर हैं। आए दिन होने वाली इन घटनाओं में बढ़ोतरी ने राज्य, समाज और व्यवस्था की भूमिका को और यहां तक कि सामूहिकता की अवधारणा को भी संदेहास्पद बना दिया है। विकास के नाम पर सूचनाओं के संप्रेषण की अत्याधुनिक तकनीक तो हमने विकसित कर ली, लेकिन पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों में संवादहीनता और संवेदनहीनता की स्थिति को कैसे मोड़ दिया जाए? इसके लिए ठंडा खून और ठंडा विचार नहीं, क्रांतिकारी बदलाव के आग की तपन चाहिए। 
 
आज देश की समृद्धि से भी ज्यादा देश की चारित्रिक उज्ज्वलता जरूरी है। विश्व के मानचित्र में भारत गरीब होते हुए भी अपनी साख सुरक्षित रख पाया है तो सिर्फ इसलिए कि उसके पास विरासत से प्राप्त ऊंचा चरित्र है, ठोस उद्देश्य हैं, सृजनशील निर्माण के नए सपने हैं और कभी न थकने वाले क्रियाशील आदर्श हैं। लेकिन जब कोई मंत्री, राजनेता या धर्मगुरु, यहां तक कि एक पिता भी चरित्र हनन का आरोपी बनता है तो इस तरह साख होने पर सीख कितनी ही दी जाए, संस्कृति नहीं बचती।
 
आज हमारे कंधे भी इसलिए झुक गए कि बुराइयों का बोझ सहना हमारी आदत तो थी नहीं, पर लक्ष्य चयन में हम भूल कर बैठे। नशीले अहसास में रास्ते गलत पकड़ लिए और इसलिए बुराइयों की भीड़ में हमारे साथ गलत साथी, संस्कार, सलाह, सहयोग जुड़ते गए।

जब सभी कुछ गलत हो तो भला उसकी जोड़, बाकी, गुणा या भाग का फल सही कैसे आएगा? नतीजतन, संबंधों में अविश्वास, धोखा, स्वार्थपरता, भावनाओं के व्यावसायिक और अमानवीय स्वरूप, प्रसिद्धि के जरिए खुद को स्थापित करने की कोशिश जैसे पक्ष महत्त्वपूर्ण और प्राथमिक हुए हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, आधुनिकीकरण या फिर बाजारवाद? नेताओं का नैतिक हनन या छोटे पर्दे की विभीषिका, नशे का बढ़ता प्रचलन या अशिक्षा, सामाजिक एवं आर्थिक असंतुलन-आज का समाज सूचनाओं का जंगल तो बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन क्या संवादहीनता और विचारशून्यता के दंश समूची समाज एवं परिवार व्यवस्था को ही ध्वस्त नहीं कर रहे हैं?

पूरे भारत में नशे की खुलेआम बिक्री क्या अपराध करने को मजबूर नहीं करती? क्या अश्लील एवं पोर्न फिल्में यौन अपराधों की ओर नहीं धकेल रही है? क्या आर्थिक एवं सामाजिक असमानता अपराध के बीजवपन का कारण नहीं है? अगर नहीं तो बिना देर किए इन पक्षों पर सोचने की जरूरत है, अन्यथा ‘व्यक्ति का अंत’  कब ‘समाज का अंत’ कर दे, कहा नहीं जा सकता।
 
देश आखिर ऊंचाइयां छुए भी कैसे? जब चारों ओर नैतिक एवं चारित्रिक गिरावट के परिदृश्य व्याप्त हों। इन स्थितियों में हमारे भीतर नीति और निष्ठा के साथ गहरी जागृति की जरूरत है। नीतियां सिर्फ शब्दों में हो और निष्ठा पर संदेह की पर्तें पड़ने लगें, तो भला उपलब्धियों का आंकड़ा वजनदार कैसे होगा? बिना जागती आंखों के सुरक्षा की साक्षी भी कैसी! एक वफादार चौकीदार अच्छा सपना देखने पर भी इसलिए मालिक द्वारा तत्काल हटा दिया जाता है, कि पहरेदारी में सपनों का खयाल चोर को खुला आमंत्रण है।
 
कोई भी ऐसी समस्या नहीं है कि जिसका समाधान न खोजा जा सके। हर आफत इसलिए बंधन बन जाती है कि हमें न तो उसे सहना आता है और न उन्हें खोलना आता है। बचाव के लिए हर बार उसे आगे खिसकाते रहते हैं। यह टालने की मनोवृत्ति पलायन है। निर्णय के लिए अदालत में आगे-से-आगे सरकती तारीखें क्या कभी निर्दोष को सही फैसला दे सकी हैं? आज की समस्या का कल नहीं, आज और अभी समाधान ढूंढना है, तभी भविष्य सुरक्षित रह पाएगा और इसके लिए जन-जागृति जरूरी है।

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