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शहडोल उपचुनाव : क्यों नहीं कह रहा मतदाता अपने ‘मन की बात’?

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ऋतुपर्ण दवे

शहडोल लोकसभा उपचुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है, चुनाव 19 नवंबर को है। लेकिन न कोई लहर, न उत्साह और न ही कोई उमंग है। खामोशी कुछ ऐसी और इतनी, कि मतदाता कुछ भी बोलने को तैयार नहीं। मतदाता भी वही, जिसने 2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव में पहले ही तस्वीर साफ कर दी थी। बावजूद इन सबके, शहडोल लोकसभा का उपचुनाव कई दृष्टिकोणों से बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक तो पूरे देश में कुल 4 लोकसभा क्षेत्रों में होने जा रहे उपचुनाव में तीन गैर हिन्दी भाषी हैं। 

 
असम में लखीमपुर तथा पश्चिम बंगाल में कूचबिहार और तमलुक के बाद अकेला शहडोल बचता है, जो न केवल हिन्दी भाषी प्रांत मध्यप्रदेश में है बल्कि कई उद्योगों, दर्जनों कोयला खदानों, कल कारखानों, 3 बड़े बिजली घरों, पहले जनजातीय विश्वविद्यालय के चलते एक तरह से लघु भारत का स्वरूप लिए हुए है। इनमें देश भर से लोग सेवारत हैं। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम यानी हर प्रांत, हर क्षेत्र के लोग रहते हैं, जिनमें कई मतदाता भी बन गए हैं। जाहिर है शहडोल संसदीय क्षेत्र ‘अनुसूचित जनजाति’ के लिए सुरक्षित होने के बावजूद बेहद महत्वपूर्ण है तथा कम से कम इस उपचुनाव में तो और भी ज्यादा। शायद यही कारण है कि शहडोल उपचुनाव को नए रुझानों की नब्ज कहें या हवा का ताजा रुख, के तौर पर भी देखा जा रहा है।
 
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की प्रतिष्ठा जरूर इससे जुड़ी है, क्योंकि ठीक साल भर पहले रतलाम-झाबुआ में भाजपा के सांसद दिलीप सिंह भूरिया के निधन के बाद हुए उपचुनाव में यह सीट कांग्रेस की झोली में चली गई। इसके अलावा इसी साल जुलाई में हुए 3 स्थानीय निकाय चुनाव में भी भाजपा तीनों मैहर, मण्डीदीप, ईसागढ़ में कांग्रेस के हाथों हार गई। इस कारण भी 13 वर्षों से प्रदेश सत्ता में काबिज भाजपा के लिए शहडोल उपचुनाव चुनौतीपूर्ण और विशेषकर 29 नवंबर 2005 से लगातार मुख्यमंत्री रहने वाले शिवराज सिंह के लिए राजनैतिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। यूं तो यहां 17 उम्मीदवार अपना भाग्य आजमा रहे हैं लेकिन सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में है जो बेहद कांटे का है।
 
1951 से लेकर अब तक 16 बार हुए चुनावों में सबसे ज्यादा, 6 बार कांग्रेस ने यहां जीत हासिल की है जबकि 5 बार भारतीय जनता पार्टी जीती। 1977 में जनता पार्टी और 1989 में भारतीय लोकदल दल की जीत हुई। 1951 और 1962 में सोशलिस्ट पार्टी तथा 1971 में निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। सबसे ज्यादा चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार दिवंगत सांसद दलपत सिंह परस्ते रहे, जो 5 बार 1977, 1989, 1999, 2004 और 2014 में सांसद बने। उनके असामयिक निधन से इस उपचुनाव में काफी कशमकश के बाद, भाजपा ने शहडोल से दो बार सांसद रहे वर्तमान बांधवगढ़ विधायक और प्रदेश के आदिमजाति कल्याण मंत्री ज्ञान सिंह को अपना प्रत्याशी बनाकर, बड़ा दांव खेला है। वहीं कांग्रेस ने, यहीं से 3 बार सांसद रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. दलबीर सिंह और एक बार सांसद रहीं उनकी पत्नी स्व. राजेश नंदिनी की बेटी कु. हिमाद्री सिंह को मैदान में उतारकर बड़ी चुनौती दी है।  
 
शहडोल उपचुनाव की नजाकत इसी बात से समझी जा सकती है कि दलपत सिंह के 1 जून को निधन के बाद से ही मुख्यमंत्री का पूरा ध्यान शहडोल पर रहा। दर्जनों कार्यक्रम हुए, सैकड़ों करोड़ रुपयों की सौगातों के साथ तमाम घोषणाएं हुईं। आचार संहिता लागू होने के पहले ही मुख्यमंत्री ने ताबड़तोड़ सभाएं, रोड शो और जनदर्शन कार्यक्रम किए। 1 अगस्त से लेकर 17 अक्टूबर तक औसतन हर रोज यहां, प्रदेश का कोई न कोई मंत्री या स्वयं मुख्यमंत्री किसी न किसी सरकारी कार्यक्रम में उपस्थित रहे। इधर कांग्रेस ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, विवेक तन्खा, मोहन प्रकाश, अरुण यादव सहित तमाम दिग्गज पूरी सक्रियता के साथ जुटे हुए हैं लेकिन स्थानीय कार्यकर्ताओं में तालमेल की कमीं हर कहीं दिखी। इसके बावजूद कांग्रेस की युवा प्रत्याशी हिमाद्री सिंह जबरदस्त जनआकर्षण का केन्द्र बनीं हैं जो कांग्रेसियों के लिए संजीवनी है। जगह-जगह कांग्रेस की गुटबाजी स्पष्ट दिखी तो भाजपा भी इससे अछूती नहीं है। 
 
एक बात जरूर है कि अब भाजपाई आपसी मतभेदों को भुला एकजुट हो रहे हैं। संभाग की दो घटनाओं की पूरे क्षेत्र में विशेष चर्चा रही। एक, उपचुनाव की घोषणा के ऐन पहले 16 अक्टूबर को ‘संयुक्त अध्यापक संघर्ष समिति’ का प्रांतीय सम्मेलन जिसमें प्रदेश से सैकड़ों अध्यापकों ने न केवल शिरकत की बल्कि विशाल रैली निकालकर शिक्षा नीति और वेतन विसंगतियों पर अपनी सरकार को खुलकर कोसा। दूसरा, सामान्य-पिछड़ा वर्ग एवं अधिकारी-कर्मचारी संघ (सपाक्स) की हुंकार और रैली।
 
8 विधानसभा क्षेत्रों बडवारा, बांधवगढ, मानपुर, जयसिंह नगर, जैतपुर, कोतमा, पुष्पराजगढ़, अनूपपुर में बंटा शहडोल लोकसभा क्षेत्र जहां बड़वारा, बांधवगढ़ महाकौशल से जुड़ा है वहीं जयसिंहनगर, मानपुर में विन्ध्य, कोतमा में छत्तीसगढ़ का प्रभाव तो पुष्पराजगढ़ स्वयं पाठ का अंचल है। इसके अलावा लघुभारत की विविधताओं को समेटे शहडोल लोकसभा सीट का मतदाता खामोश हो लेकिन इनता तय है कि इस चुनाव को 2018 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों की रणनीति के लिए भी राजनैतिक दलों का बैरोमीटर कहा जा रहा है। कुछ भी हो, अचानक हुई नोटबंदी से दो-तीन दिन प्रचार अभियान में जबरदस्त सन्नाटे के बाद नए और फुटकर नोटों की जुगाड़ में परेशान मतदाता नमक संकट की अफवाह से भी ऐसा हलाकान हुआ कि लाख कोशिशों के बाद भी निर्विकार है, खामोश है। देखना है कि 22 नवंबर को आने वाले नतीजे में शहडोल के मतदाओं की ‘मन की बात’ किसके पक्ष में बनेगी ‘जन की बात’!


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