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ईमानदारी का पर्व और वो...

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आरिफा एविस

एक रात जब देश सोने की तैयारी कर रहा था, उस वक्त देश के आला अधिकारी ने बड़े नोटों को बंद करने का ऐलान कर दिया, जिसे देशहित में बताया गया। अगले दिन सुबह बैंक बंद, दो दिन एटीएम बंद। रातों-रात मेहनत से कमाया पैसा कागज के टुकड़े हो गए। कबीर ने सोचा चलो दो दिन की बात है, बदल लेंगे एक नहीं पूरे पचास दिन है, धीरे-धीरे बदल लेंगे, तब तक घर में रखी गुल्लक से काम चला लेते हैं। लेकिन ये क्या... एक नहीं पूरे दस दिन हो गए, पर अभी तक नोट की शक्ल तक नहीं देखी और चिल्लर भी खत्म।

कबीर रोजाना बैंक की लाइन में जाता और अपनी बारी के आने से पहले ही बैंक में नकदी खत्म हो जाने पर निराश वापस आ जाता। घर में बीमार मां है, जिसका अभी कुछ दिन पहले ऑपरेशन हुआ है, दवा के लिए पैसे जरूरी है। स्कूल की फीस नहीं गई, स्कूल के तकादे। अभी तक किराया भी तो नहीं दिया। इस बैंक जाने के चक्कर में काम पर भी नहीं गया था कबीर। गांव से आए यूं तो पांच साल हो चुके थे, लेकिन खाता न खुल सका था। बैंक वालों ने खाता खुलवाने के दौरान न जाने कैसे-कैसे नियम बताकर खाता नहीं खोला था। बीवी ने समझाया कि तुम काम पर जाओ मैं जाकर लाइन में लग जाऊंगी। बच्ची छोटी है तो क्या हुआ? घर में मरीज है तो क्या हुआ ? किसी न किसी को तो बैंक जाना होगा, अगर घर का खर्च चलाना है। ईमानदारी का पर्व है, पूरा देश मना रहा है, तो हम क्यों न मनाएं? कुछ दिन से बच्ची भी बीमार थी। यूं तो घर में किसी न किसी को कोई न कोई मर्ज था ही, पर इन मर्जों की गिनती नहीं मानी जाती जब तक कि वो गंभीर बीमारी न बन जाए।
 
अगले दिन भोर में ही विमला अपनी बच्ची को गोद में ले, बैंक की कतार में लग गई। उधर कबीर अपने काम पर चला गया, पर काम ही कहां था मार्केट में! जब तक ठेकेदार के पास नए नोट न हों, वो कैसे काम कराता या फिर पुराने नोट के बदले काम कराने को कहता? मजबूरी में नए नोट न सही तो पुराने ही सही, पैसे तो चाहिए ही। इधर विमला बैंक की कतार में थी, सुबह से कुछ खाया भी न था। बच्ची भी भूखी थी, लेकिन देने के लिए पास कुछ नहीं था। घर में भी तो राशन नहीं था कि सबको बना के खिलाती। भीड़ इतनी, जितनी भगवान के दर्शन के लिए भी न हो। मानो सभी इस पर्व में शरीक हों।
 
भूख से मां बच्ची दोनों तड़प रही थी, एक आस थी कि अब न सही तो कुछ घंटों बाद ही सही यह पैसे तो बदल ही जाएंगे। कुछ दिन तो उधार भी चला लिया, पर रोज-रोज तो कोई नहीं दे सकता। तभी खबर मिली कि बैंक में राशि खत्म हो गई है। राशि न होने से भीड़ में आक्रोश पैदा हो गया, भगदड़ मच गई। इस भगदड़ में विमला के हाथ से बच्ची छूट गई, छूटते ही बच्ची भीड़ से कुचल गई और बच्ची हमेशा के लिए खामोश हो गई। अब उसे भूख नहीं लग रही थी।
 
विमला कभी मुट्ठी में थमे पैसे देखती कभी बच्ची को। उसकी आंखों में आंसू तो जैसे सूख चुके थे। पीछे कहीं दूर टीवी की आवाज आ रही थी,' दो चार दिन की परेशानी है बॉर्डर पर भी तो सेना जान गंवा देती है देश के लिए, तो देशभक्ति के लिए जनता कुछ नहीं कर सकती? '

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