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गरिमा संजय दुबे

डॉ. गरिमा संजय दुबे        
जिस तरह तुम्हारे स्कर्ट की लंबाई तुम्हारा चरित्र निर्धारित नहीं करती, ठीक उसी तरह तुम्हारे स्कर्ट की लंबाई तुम्हें स्वतंत्र और आधुनिक घोषित नहीं कर सकती। 

 
इन दिनों मैं देख रहीं हूं कि स्त्री विमर्श और नारी स्वतंत्रता का बिगुल बज रहा है हर कहीं, स्त्रियों को उनकी दयनीय अवस्था से निकालने और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में निसंदेह इस आंदोलन ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, किंतु यह मामला आज कल कुछ एकतरफा सा हो गया है। हर जगह बेटी को अच्छा बताने और बेटे को खराब बताने की होड़ सी लगी हुई है। हद तो तब है कि बेटे की मां को हिकारत तक की नजर से देखा जाने लगा है।
 
बेटियां ही अच्छी होती है और सारे बेटे खराब? भारत में सामान्यकरण एक रोग है, कुछ बेटे-बहू खराब तो सारे खराब। बहू कौम खराब। एक मुस्लिम ने बलवा किया या हिन्दू ने, हम पूरी कौम को खराब कह देते हैं। यही मानसिकता आज नारी स्वतंत्रता जैसे आंदोलनों में भी दिखाई दे रही है। स्त्रियां सब अच्छी, पुरुष सब खराब... अच्छाई और बुराई कब से लिंग के आधार पर निर्धारित की जाने लगी ? दोनों ही मनुष्य है और अच्छाई और बुराई दोनों में ही समान रूप से मौजूद होती है, लेकिन इन दिनों हम ठीक उसी असंतुलन की तरफ बढ़ रहें है जिसका शिकार हम स्त्रियां खुद हुई थी। हमारे पूर्वजों ने लड़कों को निरंकुश बना स्त्रियों के लिए नरक का निर्माण किया था, आज स्त्रियां स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को भूल रही हैं और उन्हें हम ही प्रेरित कर रहें है। 
 
सावधान इंडिया और क्राइम पेट्रोल जैसे प्रोग्राम द्वारा और समाचार पत्रों में अपराध की नई इबारत लिखती स्त्रियां, क्या पुरुषों को हर क्षेत्र में पीछे छोड़ने की धुन में उन्हें उनके पाशविकता में भी पीछे छोड़ने का मन बना चुकी है ? मेरा यह शिद्दत से मानना है कि इस दुनिया कि हर समस्या को अच्छी, कोमल भावनाओं से युक्त दयावान स्त्री के मन से देखा जाए तो यह दुनिया अधिक खूबसूरत होगी, क्योंकि यकीनन स्त्री और उसका मां स्वरूप इस संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना है। किंतु मैं यह देखकर अत्यंत व्यथित हूं कि स्त्री भी अपने अधिकारों का वैसा ही दुरूपयोग कर रही है जैसा की पुरुष करते आ रहे हैं। क्या शक्ति और स्वतंत्रता हर मनुष्य को निरंकुश बना देते है? सहनशीलता की कमी, छोटी-छोटी सी बातों पर टूटते घर, बलात्कार का झूठा आरोप, दहेज का कई जगह झूठा आरोप, पुरुष की दुर्बलता का लाभ, स्त्री होने का लाभ उठाने की प्रवृत्ति क्या हमें यह सोचने पर मजबूर नहीं कर रही कि हमने यह तो नहीं चाहा था, सहअस्तित्व चाहा था स्वअस्तित्व नहीं।
 
पुरुष मात्र का विरोध करना ही तो स्वतंत्रता नहीं, अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने का नाम तो फेमिनिज्म नहीं। जिस तरह दलितों और अल्पसंखयकों के बारे में कुछ भी बोलना या लिखना अपराध हो गया है, ठीक उसी तरह स्त्री के विरोध में कही गई किसी बात को कोई स्थान नहीं मिलता, उनकी गलती को गलती नहीं कहा जा सकता। मेरे बेटे ने मुझसे एक दिन पूछा था कि मां क्या लड़के सारे खराब होते हैं? मैंने पूछा - "क्यों" तो उसने जवाब दिया कि क्लास में टीचर लड़कियों को बहुत सॉफ्ट पनिशमेंट देती हैं, मारती कभी नहीं, वहीं हम लड़कों को मार भी खानी पड़ती है और हर बार हार्ड पनिशमेंट और लड़कियां हर बार लड़की होने के कारण छूट जाती हैं"। हम लड़कों को बचपन से ही कठोरता से पालते हैं और बड़े होने पर उनसे भावनाओं की अपेक्षा करते है। वहीं लड़कियों को हर जगह अति संवेदनशीलता से बड़ा करते है और बड़े होने पर उनसे अति आत्मविश्वास और मजबूत होने की अपेक्षा। क्या अच्छा नहीं हो, कि हम लड़के में भावनाएं , संवेदनशीलता और लड़कियों में आत्मविश्वास रोपित कर उन्हें एक संतुलित व्यक्तित्व के रूप में गढ़ सकें, जो बिना स्त्री पुरुष का भेद करे सहीं को सहीं और गलत को गलत कह सकें। 
 
इक्कीसवीं सदी में नई उड़ान भरती, आत्मविश्वास से लबरेज, दुनिया जीतने का हौसला रखने वाली, अपनी खोज में आतुर स्त्री को देख मन बहुत खुश हुआ था कि अब समाज में असंतुलन खत्म हो जाएगा, पढ़ी लिखी स्त्री से मुझे मुझे उम्मीद थी कि वह संतुलित रवैये से आगे बढ़ेगी। होना तो यह चाहिए था लड़कों को भी गलत करने से रोका जाता, यहां तो हम भी उनके साथ हो लिए। शराब, बदन दिखाऊ कपड़े, लेट नाईट पार्टीज तो सबके लिए गलत है ना। क्या ऐसा करने से ही हम आधुनिक माने जाएंगे। जब स्त्री को पुरुष (बुरे पुरुष) की बराबरी करने की धुन में अच्छे बुरे का विचार किए बिना " हर वो काम जो लड़के करते हैं, हम भी करेंगे " की राह पर ही चलते देखा तो मुझे यह ऐसा लगा मानो सोने पर, हीरे पर जंग लग रही है।

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