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इतिहास के साथ खिलवाड़, एक सोची समझी साजिश!

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डॉ. प्रवीण तिवारी

कला ने हर विषय को समृद्ध किया है और ऐसे में कला के समाज को आगे बढ़ाने और उसे समृद्ध और सुंदर बनाने में दिए गए योगदान को सहजता से समझा जा सकता है। कला के साथ तब विवाद जुड़ता है, जब वो आस्था पर चोट करती है। आस्था पर हमला कई बार जानबूझकर सोची समझी रणनीति के तहत किया जाता है।




यह कोई पहला अवसर नहीं है जब ऐसा किया गया हो। भारतीय इतिहास इस तरह की गाथाओं से पटा पड़ा है, जब राजनैतिक स्वार्थों और जनमानस के मनोबल को गिराने के लिए आस्था से खिलवाड़ किया गया हो। आस्था का सीधा जुड़ाव हमारे इतिहास से होता है। इतिहास को भी राजनीति के कलाकारों ने अपने हिसाब से घुमा फिरा कर पेश किया। सीधे सादे और आनंद का जीवन जीने वाले भारतीयों को पुर्तगाली, फ्रांसीसी, मुस्लिम आक्रांता और अंग्रेज सभी बारी-बारी से लूटते रहे। इस देश की समृद्ध भारतीय धरोहर का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि इन तमाम जख्मों के बावजूद भारत की मूल धरोहर उसकी संस्कृति और सनातन सभ्यता आज भी अक्षुण्ण खड़े हैं।
 
भारतीय इतिहास के साथ जमकर छेड़छाड़ की गई है। इसकी वजह भी बहुत स्पष्ट है, जो भी आक्रांता आए उन्होंने भारतीय सभ्यता को पूरी तरह मिटा कर अपने महिमा मंडन को आगे रखा। उन्होंने अपनी भाषाओं में भारतीय ज्ञान और साहित्य का अनुवाद किया और मूल प्रतियों को और उन्हें जानने वालों को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा। इस घिनौने साजिश का ही असर है कि आज भी बड़ी तादाद में हमारे देश में ही वो लोग मौजूद हैं, जो हमारे इतिहास और समृद्ध धरोहर पर ही प्रश्न चिह्न खड़े कर देते हैं। हमारा इतिहास मुगल या अंग्रेज नहीं हैं, हमारा इतिहास इनसे कहीं पुराना है। हमें किसी वॉस्कोडिगामा ने नहीं खोजा था, बल्कि इन लोगों ने अपने स्वार्थों के लिए हमें लूटा और हमारी संस्कृति को चुरा कर अपने विकास में उपयोग लाए।
 
भारत को पिछड़ा दिखाने की कोशिश के भी मूल में यही साजिश थी। दरअसल जब विज्ञान, सभ्यता, दर्शन शास्त्र, संपन्नता और जीव विज्ञान या आयुर्विज्ञान के चरम पर ये सनातन संस्कृति बैठी थी, तो इसके ज्ञान को इतिहास में अपने नाम से प्रचारित करने के लिए विदेशी आक्रांताओं ने इतिहास को नए सिरे से गढ़ना शुरू किया। कहते हैं नकल में भी अकल चाहिए। अरब या अंग्रेज लिखना तो जानते थे, लेकिन ज्ञान नहीं था। उन्होंने इतिहास के साथ जो तोड़-मरोड़ की, वो ज्यादा समय तक छिपी नहीं। हालांकि भारतीय राजनीति में कुछ इस तरह के समीकरण बन गए कि हमारे राजनैतिक दलों ने भी धर्म की भेंट चढ़ चुकी राजनीति के हवन कुंड में हमारे इतिहास की भी आहुति देने से परहेज नहीं किया।
 
हम अपने इतिहास से होने वाली जोड़-तोड़ को इसीलिए सहन करते रहते हैं क्योंकि हम असली इतिहास से वाकिफ ही नहीं हैं। हमें यह कह दिया जाता है कि वैदिक सभ्यता तो कल्पना है। ये भी कह दिया जाता है कि विज्ञान को लेकर हमारे समृद्ध इतिहास की जो बाते हैं वो कपोल कल्पनाएं हैं। हम रामायण महाभारत के कालखंड पर भी बहस करते दिख जाते हैं। यही वो साजिश थी, जो नालंदा या अन्य विश्वविद्यालयों को पूरी तरह नष्ट करते वक्त रची गई थी। स्मृतियों के जरिए आगे बढ़ी हमारी परंपरा ने बहुत कुछ बचा लिया, तो काफी कुछ खो भी दिया। 
 
विमान शास्त्र हमारे यहां सदियों पहले था, लेकिन इतिहास में डंका बजा दिया गया राइट ब्रदर्स का। इसी तरह आर्यभट्ट और भास्कराचार्य के नाम खो गए और हम विदेशी वैज्ञानिकों के गुणगान में जुट गए। चाणक्य के देश को कोई राजनीति सिखा सकता है क्या? लेकिन हमारा दुर्भाग्य, हम राज करना तो दूर, अपने राज को ही खोते रहे हैं। इस विसंगति के पीछे इतिहास का अज्ञान और उसके प्रति सम्मान न होना है। हमें अपने इतिहास और धरोहर को सही तरीके से जानने की जरुरत है और इसके लिए जरूरी है कि इतिहास को सही तरीके से लिखा जाए। मुगलों पुर्तगालियों या अंग्रेजों के हमलों से बहुत पहले भी हम एक बेहतरीन सभ्यता थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।

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