बचपन से लेकर आज तक पूरे साल इस दिन का मुझे बेसब्री से इंतजार रहता है। पितृ पक्ष की अष्टमी को आने वाला गजलक्ष्मी व्रत कहें, महालक्ष्मी पूजा या फिर हाथी पूजा...हां यह नाम मेरा पसंदीदा है, क्योंकि दीपों की रोशनी से रौशन हाथी ही इस पूजा में आकर्षण का केन्द्र होता है। पितृपक्ष की हर अष्टमी पर सुबह से ही कितनी तैयारियां करती थीं मां, दादी, बुआ...सुबह के सारे काम निबटाकर दोपहर से लेकर शाम अंधेरा होने तक महालक्ष्मी का प्रसाद बनाने में कैसे समय निकल जाता, पता ही नहीं चलता। यह काम इतना रोमांचक होता है कि मन लगा ही रहता है।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस पूजा में महालक्ष्मी जी के गहने भी प्रसाद के रूप में बनाए जाते हैं बेसन, मैदा, आटा या फिर अन्य चीजों से। शकर पारे, गुझिया और मुठिया की तरह ही इन्हें भी चूड़ी, पायल, बिंदी, झुमके और अन्य आभूषणों के आकार में बनाकर स्नैक्स की तरह ही गर्म तेल में तलकर बनाया जाता है और महालक्ष्मी कसे अर्पित करने के बाद प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है। मुझे हमेशा ही मां लक्ष्मी के यह गहने बनाना पसंद रहा...अलग-अलग डिजाइन में में बनाना, सजाना ऐसा लगता जैसे हम खुद के लिए खुद की पसंद के गहने बना रहे हों। शाम तक इतने प्रकार के स्नैक्स तैयार हो जाते कि प्रसाद देने के लिए बड़े-बड़े दोने या फिर थैलियां मंगवानी पड़ती। कुछ स्नैक्स, कुछ फल, कुछ चरणामृत और विभिन्न चढ़ावे को मिलाकर हर कोई ढेर सारा प्रसाद अपने घर लेकर जाता।
पूजा के लिए रखा जाने वाला हाथी भी आकर्षण का केंद्र होता है। हाथी के चारों पैरों में दीयों को रखने के लिए चार-चार स्टैंड मिट्टी से ही बनाए जाते हैं जिनपर दीये रखे जाते हैं। यानि कुल मिलाकर 16 स्टैंड, 1 दीया ऊपर और बाकी के हाथी के आसपास रखे जाते हैं, जिसके बाद आसपास का माहौल सच में दीपों की रौशनी से ऐसा जगमगा जाता, जैसे दीवाली हो। इस खूबसूरत हाथी को मेरे घर कभी खरीदा नहीं गया, बल्कि हर साल दादी खुद अपने हाथों से इसे बनाती हैं, और बनाते वक्त हाथी के ऊपर बैठाए गए चरित्रों का परिचय भी देती जाती हैं।
मुझे तो पूजा के वक्त हाथी के आसपास बैठने का बड़ा शौक रहा। सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि मेरे साथ बचपन के संगी-साथी और आस-पड़ोस के बच्चे भी बड़े शौक से हाथी के पास बैठने के लिए जगह संभाल कर रखते, जैसे उसके हम ही रखवाले हों, और वहां न बैठे तो हाथी कहीं भाग ही जाएगा। यहां बैठने में जो आनंद था, वह पीछे बैठने में कहां। पूजा को पूरा देखने का मजा, दीपों से रौशन हाथी और आसपास का दिवाली सा उजास जैसे मन में आनंद, उत्साह और सकारात्मकता का भाव जगाता था।
यहां एक काम और रोमांचक था, जो बच्चा हाथी के सबसे करीब बैठा होता, उसे हाथी के पास जलने वाले दीपों पर पूरा ध्यान रखना होता था कि एक भी दिया बुझने न पाए। दीयों में तेल डालने रहना उसकी ड्यूटी हुआ करती। और इस ड्यूटी को निभाने के लिए हर बच्चा इतना उत्सुक होता था, कि बारी-बारी मिलकर यह काम किया जाता। सुबह से लेकर रात पूजा खत्म होने तक घर का माहौल खुशहाल, पवित्र और समृद्ध सा नजर आता। हो भी क्यों न, महालक्ष्मी जो घर आती हैं इस रात!