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गोरक्षकों पर मोदी एवं भागवत की मतभिन्नता क्यों?

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राजीव रंजन तिवारी

गोरक्षकों की कार्यशैली पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत के बयान एक-दूसरे से मेल नहीं खा रहे हैं। इससे दो सवाल पैदा हो रहे हैं- पहला ये कि दोनों लोग अपने अलग-अलग बयानों से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं और दूसरा ये कि इनमें से किसकी बात को जायज ठहराया जाए?
दरअसल, गोरक्षा के नाम पर देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उपद्रव और उसे लेकर केंद्र सरकार की किरकिरी के बाद आए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान के देश के राजनीतिक व सामाजिक हलकों में निहितार्थ तलाशे जा रहे हैं। 
 
बीते माह गुजरात के उना में गोरक्षा के नाम पर जब कुछ दलित युवकों को बेरहमी से पीटा गया, तब यहां भारी तादाद में दलित समुदाय के लोग विरोध में सड़कों पर उतरे तब पीएम नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि गोरक्षा के नाम पर उपद्रव मचाने वाले 80 फीसदी लोग आपराधिक प्रवृत्ति के हैं। पीएम ने राज्य सरकारों से ऐसे लोगों की पहचान कर उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने की अपील की थी, मगर इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लग सका। अब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि गोरक्षकों को उपद्रवियों की श्रेणी में रखकर नहीं देखा जा सकता। समाज के बहुत सारे लोग लंबे समय से कानून के दायरे में शांतिपूर्वक गोरक्षा कर रहे हैं। 
 
आपको बता दें कि जब से केंद्र में भाजपा की सरकार आई है, कुछ लोगों द्वारा गोरक्षा, धर्मांतरण आदि के नाम पर दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किया जा रहा है। गोरक्षा के बहाने मवेशियों का कारोबार करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के बहुत सारे लोगों को सरेआम मारा-पीटा गया। उनमें से कई की मौत हो गई। इसी तरह मरे हुए पशुओं का चमड़ा उतारने वाले दलित समुदाय के लोगों को प्रताड़ित किया गया। ऐसी घटनाओं से भाजपा के प्रति रोष बढ़ा है।
 
गोरक्षकों और केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें तो पता चलेगा कि विजयादशमी को सन् 1925 में जब आरएसएस का काम शुरू हुआ, तब से अब तक इस संस्था ने प्रगति ही की है। आरएसएस पर लगातार सांप्रदायिक होने के आरोप लगे, पर यह संगठन अपनी ताकत बढ़ाता रहा। 
 
समाज का एक वर्ग संघ की विचारधारा के करीब होता गया जबकि एक दूसरी विचारधारा थी जिसने संघ को ‘रहस्यमय’ संस्था घोषित कर उसे एक अतिवादी हिन्दू संगठन करार दे दिया, हालांकि संघ ने इस दूसरी विचारधारा की कभी परवाह नहीं की और इसके द्वारा किए जा रहे प्रचार के खिलाफ कभी बढ़-चढ़कर खंडन भी नहीं किया। संघ अपने कामों में लीन रहा और अपने तमाम प्रकल्पों के सहारे भारत में अपनी राजनीतिक सत्ता कायम करने के साथ-साथ एक बड़ा संगठन खड़ा कर लिया। 
 
आरएसएस के लिए यहां तक पहुंचना कतई आसान नहीं रहा। महात्मा गांधी की हत्या के तत्काल बाद 4 फरवरी 1948 को सरकार ने इस संगठन पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया कि बापू के हत्यारे संघ से जुड़े थे, हालांकि सरकार को 1 साल बाद ही अप्रैल 1949 में यह प्रतिबंध हटाना पड़ा। इसके बाद आपातकाल के दौरान एक बार फिर इसे प्रतिबंधित किया गया, लेकिन सत्ता परिवर्तन (जनता पार्टी शासन) के साथ प्रतिबंध हटा दिया गया। पहले प्रतिबंध से संघ को गहरा झटका लगा था, क्योंकि तब जनमत भी पूरी तरह उसके खिलाफ हो गया था। इसके बावजूद उसने खुद को फिर खड़ा किया। 
 
आपातकाल के समय प्रतिबंध में स्वयंसेवक भूमिगत रहकर सरकार के खिलाफ काम कर रहे थे। आपातकाल हटने के बाद उससे जुड़े नेताओं अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी को पहली बार सत्ता का स्वाद चखने को मिला। इससे संघ की ताकत बढ़ गई। इसी के बूते संघ अपने राजनीतिक चेहरे भाजपा को 2 दशकों में सत्ता के केंद्र में लाने में कामयाब रहा।
 
जानकार बताते हैं कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार होने के कारण भाजपा की स्थिति मजबूत है और पिछली सरकार (1998) के मुकाबले संघ सरकार के प्रति नरमी बरत रहा है। संघ प्रमुख ऐसी कोई बयानबाजी नहीं कर रहे जिससे सरकार मुसीबत में आए। संघ का अड़ियल रवैया भी बदला है और यदि कोई काम उसकी इच्छा के विपरीत हो भी रहा है तो वह उग्र होने के बजाय उसे शांतिपूर्ण ढंग से करने को प्राथमिकता दे रहा है। इसकी एक वजह नरेन्द्र मोदी खुद हैं।
 
अटल बिहारी वाजपेयी मोदी के मुकाबले ‘सबमिसिव’ प्रधानमंत्री थे। इस बार संघ से जुड़े लोगों को मोदी ने अच्छे पद देने में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। देश में भाजपा पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने पिछले चुनावों में वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह समान नागरिक संहिता कानून बनाएगी। भाजपा सरकार ने 2016 में विधि आयोग से कहा कि वह समान नागरिक संहिता लागू करने के मुद्दों पर कानूनी प्रारूप तैयार करे, वैसे यह मुद्दा 1985 से विवादों में है। 
 
खैर, 26 मई 2014 को तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणी से ऊपर जाकर गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी ने पीएम पद की शपथ ली तो अचानक आम जनता की दिलचस्पी भाजपा के साथ-साथ संघ में बढ़ गई। इंटरनेट सर्च इंजन पर संघ को खोजने की होड़ लग गई और लोगों को लगने लगा कि इस ऐतिहासिक घटना में संघ की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर संघ के सदस्यों की सत्ता में मौजूदगी की बात की जाए तो सबसे पहले गिनती नरेन्द्र मोदी से ही शुरू करनी होगी। मोदी खुद संघ के पूर्णकालिक प्रचारक रहे हैं।
 
दरअसल, हम चर्चा कर रहे हैं गोरक्षकों पर मोदी और भागवत के बयानों की जिसमें दोनों लोगों ने अलग-अलग बयान देकर एक नई बहस छेड़ दी है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान ऐसे समय आया है, जब उत्तरप्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनाव निकट हैं और वहां दलितों, मुसलमानों की नाराजगी बुरा असर डाल सकती है। ऐसे में कुछ लोगों का कहना हो सकता है कि भागवत का बयान इन चुनावों के मद्देनजर आया है, क्योंकि भागवत ने संघ के स्थापना दिवस पर न सिर्फ गोरक्षा के नाम पर उपद्रव करने वालों को आड़े हाथों लिया बल्कि आतंकवाद के खिलाफ हुई सैन्य कार्रवाई और मोदी प्रशासन की भी प्रशंसा की।
 
सवाल है कि क्या गोरक्षा के नाम पर उपद्रव मचाने वालों के खिलाफ महज नसीहतों से कोई सकारात्मक नतीजा निकलेगा? या फिर ऐसे लोगों पर नजर रखने की जिम्मेदारी सिर्फ राज्य सरकारों पर डालकर निश्चिंत हुआ जा सकता है? जहां भी गोरक्षा के नाम पर उपद्रव फैलाने की कोशिशें हुई हैं, वहां शरारती तत्वों ने किसी न किसी हिन्दुत्ववादी संगठन का बाना धारण कर अपनी योजनाओं को अंजाम दिया इसीलिए संघ और दूसरे हिन्दुत्ववादी संगठनों के अलावा भाजपा पर सीधी अंगुलियां उठती रही हैं। 
 
ऐसे में केवल बयान देने के बजाय अपने कार्यकर्ताओं में ऐसा अनुशासन बनाने की जरूरत है जिससे वे गोरक्षा के नाम पर कमजोर तबकों के लोगों को प्रताड़ित न करें। इसी क्रम में यह बताना भी जरूरी है कि विजयादशमी के दिन ही गुजरात में 200 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। यह अपने आप में एक बड़ा प्रतिरोध है। इस संबंध में भी संघ और भाजपा को विचार करना चाहिए कि अपने कार्यकर्ताओं पर वह कैसे अंकुश लगाए?
 
सनद रहे कि 11 जुलाई को गुजरात के उना गांव में दलितों की कथित गोरक्षकों द्वारा हुई पिटाई के बाद दलित आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है। गांधीनगर में 14 दलितों ने सामाजिक बहिष्कार के चलते आमरण अनशन शुरू किया। प्रतिरोध संस्था के दलित नेता राजू सोलंकी के मुताबिक पिछले कई महीनों से गुजरात के 77 गांवों के दलितों ने अपने गांव छोड़ दिए हैं, फिर भी राज्य सरकार इस बारे में कोई कार्रवाई करने को तैयार नहीं है, इसी कारण मजबूरन हमें आमरण अनशन शुरू करना पड़ा है। 
 
गांधीनगर की 'उपवास छावणी' नाम के स्थान पर पिछले 14 दिनों से प्रतिरोध संस्था द्वारा दलितों के 9 परिवारों ने उपवास शुरू किया है। उनकी मांग है कि उना कांड के बाद ऊंची जाति के लोग हमारा सामाजिक बहिष्कार कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें राज्य सरकार द्वारा अन्य स्थानों पर पुनर्स्थापित करना चाहिए। 
 
बहरहाल, यह कह सकते हैं कि केवल बयानबाजी करने से कुछ होने वाला नहीं है, चाहे वह पीएम मोदी का बयान हो अथवा संघ प्रमुख भागवत का। अब देखना है कि आगे-आगे क्या होता है?

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