यह दुर्योग ही है कि दिल्ली के आकाश पर जब प्रदूषण, धूल और धुएं के कणों के चलते कोहरा छाया हुआ है, ठीक उसी वक्त सोशल मीडिया और टेलीविजन खबरों की दुनिया में भी विचारों का कोहरा छाया हुआ है। एनडीटीवी पर उसके प्रसारण के लिए 1 दिन के रोक की सिफारिश को लेकर कथित बौद्धिक और चेतनशील समाज में जिस तरह की बौद्धिक जुगाली चल रही है, उससे वैचारिक कुहासा और गहरा ही हुआ है।
बौद्धिकता वैसे भी गणित या विज्ञान जैसे नियमों से नहीं चलती, लिहाजा यहां हर बार दो जमा दो बराबर चार नहीं होता इसलिए बौद्धिक समाज से स्पष्टता की उम्मीद कम से कम लोकतांत्रिक समाज में की जाती है। चूंकि इसी बौद्धिकता की पैरोकारी के साथ ही उसे पेश करने का व्यापक मंच मीडिया मुहैया कराता है इसलिए उससे भी स्पष्टता की उम्मीद की ही जाती है। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज में अभिव्यक्ति की आजादी के मंच मीडिया पर अंकुश और रोक को स्वीकार नहीं किया जाता। इसीलिए लोकतांत्रिक समाज में अखबार, खबरिया टीवी चैनल आदि को पवित्रता की चारदीवारी में बांध दिया जाता है। पवित्र तो मंदिर, पुजारी, चर्च, पादरी, मस्जिद, मौलवी, गुरुद्वारा और ग्रंथी भी होते हैं लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि वे संविधानेत्तर और कानून से ऊपर हो जाते हैं। फिर मीडिया अपने को ऐसा क्यों समझने लगता है। पठानकोट पर आतंकी हमले की कवरेज को लेकर एनडीटीवी के प्रसारण पर 1 दिन की रोक के सरकारी आदेश को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए।
मीडिया पर नियमन की 2 अवधारणाएं रही हैं। आत्मनियमन यानी मीडिया की अपनी ही जमात के लोग नियमन करें या फिर संवैधानिक नियमन। भारत में प्रेस कौंसिल तो संवैधानिक नियमन के लिए है, लेकिन वह सिर्फ चेतावनी ही देती है और उसकी बात कोई सुनता भी नहीं।
नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी यानी एनबीएसए खबरिया चैनलों पर कंटेंट कोड को लेकर शिकायतें सुनने वाली स्वनियमन वाली संस्था है। इस संस्था ने एनडीटीवी समेत कई चैनलों को प्रसारण के लिए खेद जताने का आदेश दिया था लेकिन एनडीटीवी ने इसे मानने से मना कर दिया। इसकी बाकायदा खबर 18 जुलाई को मिंट अखबार में छपी भी है। इससे तो यह भी साबित होता है कि एनडीटीवी को आत्मनियमन की परवाह नहीं है।
इस संदर्भ में एनडीटीवी ने जो प्रतिक्रिया दी है, वह उम्मीदों के अनुरूप ही है। लेकिन सोशल मीडिया और कथित बौद्धिक समाज में जिस तरह तर्कों के तीर चलाए जा रहे हैं या उन तर्कों के खिलाफ जो तर्क दिए जा रहे हैं, दोनों ही अतिवादी हैं। जिस तरह समाज में पवित्र और ऊंचा दर्जा हासिल करने के बावजूद मंदिर, मस्जिद जैसे धार्मिक केंद्रों और उनके आका कानून से ऊपर नहीं होते तो फिर कोई अखबार या टीवी चैनल कैसे ऊपर हो सकता है? जिन समाजों के लोकतंत्र की दुहाई देकर हमने उनकी ही तर्ज पर लोकतांत्रिक समाज बनाया है, उन समाजों में ऐसे सवालों को वितंडा की श्रेणी में नहीं रखा जाता।
बीबीसी के चैनल फोर पर कुछ साल पहले प्रसारित 'बिग ब्रदर्स' नामक कार्यक्रम में भारतीय अदाकारा शिल्पा शेट्टी पर उसी रियलिटी शो में शामिल ब्रिटिश अभिनेत्री जेड गुडी ने नस्ली टिप्पणी की थी। उस पर ब्रिटेन में मीडिया की सर्वोच्च नियामक संस्था कंटेंट एंड कंप्लेंट कमीशन ने खुद संज्ञान लिया था और बीबीसी के चैनल फोर को माफी मांगनी पड़ी थी। लेकिन उसकी तुलना में अपने यहां के समाज को देखिए। यहां अगर मीडिया से ऐसे सवाल पूछे जाते हैं तो मीडिया इसे अपनी स्वतंत्रता पर सबसे बड़े हमले के तौर पर लेता है।
आपातकाल के बाद यह पहला मौका है, जब किसी खबरिया चैनल पर उसके प्रसारण के कंटेंट को सरकारी तौर पर पाबंदी लगाई गई है इसलिए लोकतंत्र की पैरोकारी का दावा करने वाली शक्तियों की तरफ से विरोध के सुर उठना स्वाभाविक है, लेकिन इस विरोध ने कुछ सवाल खड़े किए हैं। विरोध करने वाले लोगों की तरफ से इसे आपातकाल की पुनरावृत्ति बताया जा रहा है। सवाल यह है कि क्या सचमुच ही यह आपातकाल की पुनरावृत्ति है? अगर है तो फिर तो एनडीटीवी को विरोध में आवाज उठाने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए था। लेकिन एनडीटीवी ही नहीं, उस पर विरोध में उठी जमातें तक खुलकर सरकार को कोस रही हैं और अभी तक किसी की न तो गिरफ्तारी हुई और न ही किसी की आवाज बंद की गई।
आपातकाल में तो सरकारी फैसले को चुनौती देने का भी अधिकार होता है लेकिन एनडीटीवी अभी तक सिर्फ अपने प्रसारण मंच का ही इस फैसले के विरोध के लिए इस्तेमाल कर रहा है। उसकी तरफ से संकेत नहीं है कि वह इस फैसले को अदालत में चुनौती देगा। फिर कैसे माना जाए कि आपातकाल ही लगा है।
पत्रकारिता की जड़ों की खोज को लेकर जब हम अतीत में झांकते हैं तो हमें 2 उदाहरण दिखते हैं, एक नारद का और दूसरा संजय का। नारद को लेकर आम समझ यही है कि उनका सूचनाओं का प्रस्तुत करने का अंदाज साफ और सपाट नहीं, बल्कि उसका परिप्रेक्ष्य बदलने वाला था जबकि संजय का रूप दूसरा है। हिन्दी के पूजनीय पत्रकार राजेन्द्र माथुर की नजर में पत्रकारिता का काम घटनाओं को उसी रूप में पाठकों के सामने रख भर देना है, जिस रूप में वे घट रही हैं। महाभारत युद्ध की जानकारी धृतराष्ट्र को देते वक्त वह चाहता तो घटनाओं को अपने आका धृतराष्ट्र के नजरिए से पुष्ट करते हुए देता लेकिन संजय ने निरपेक्ष ढंग से अपने राजा के सामने बिलकुल साफ और सपाट ढंग से वही रिपोर्ट किया, जो कुरुक्षेत्र के मैदान में घट रहा था।
इन मानकों पर अगर देखें तो एनडीटीवी भी सवालों के घेरे में है और सवालों का घेरा ही है कि उस पर पाबंदी की पैरोकारी में भी बड़ा समूह उठ खड़ा हुआ है। कई बार तो श्रेष्ठता-बोध से भरे इस चैनल की पत्रकारिता भी पक्षपाती नजर आती रही है। एनडीटीवी के संदर्भ में अगर सरकार के फैसले को समर्थन मिल रहा है तो इसकी बड़ी वजह यह भी है। इसे भक्तों का अंध-समर्थन कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।
बहरहाल, एनडीटीवी पर एकदिनी रोक को लेकर आए सरकारी आदेश ने भारतीय मीडिया के कई अंधेरे पक्षों मसलन अंदरुनी राजनीति और सत्ता की राजनीति को अपने तईं प्रभावित करने की प्रवृत्ति की तरफ भी ध्यान दिलाया है लेकिन दुर्भाग्यवश न तो रोक के विरोधी और न ही रोक के पैरोकार गहराई से इन मुद्दों पर विचार कर रहे हैं। इसमें सारी चीजें गड्ड-मड्ड होती नजर आ रही हैं।
चूंकि टेलीविजन मीडिया अपनी साख खोता जा रहा है इसलिए उसका तो खास नुकसान नहीं होना है। नुकसान सिर्फ और सिर्फ उस जनता का हो रहा है, जो कई बुनियादी समस्याओं से जूझ रही है जिसकी तरफ ध्यान दिलाना ही मीडिया का पुनीत कार्य है।