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नोटबंदी में अन्तर्निहित दूरगामी आर्थिक रणनीति

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शरद सिंगी

नोटबंदी पर देश और विदेश के नामी अर्थशास्त्री अपने अपने तर्क दे रहे हैं। विभिन्न युक्तियों से कभी अपने तो कभी अपनी पार्टी का पक्ष रख रहे हैं। तो चलिए हम भी नोटबंदी के अर्थशास्त्र पर थोड़ी माथापच्ची कर लेते हैं। जब हम अर्थशास्त्र की बात कर रहे हैं तो हम किसी प्रधानमंत्री, दल या टैक्स न देने वाले किसी व्यक्ति की बात नहीं करेंगे। 
अर्थशास्त्र में नकद रुपया धन होता है काला या सफ़ेद नहीं क्योंकि यदि हमारे देश में टैक्स नहीं होता तो हम काले या सफ़ेद की चर्चा भी नहीं कर रहे होते। उदाहरणार्थ आपको बता दें कि दुबई में कोई आयकर नहीं है अतः यहां काले या सफ़ेद धन की बात नहीं होती।  पहले हम यह जान लें कि देश की अर्थव्यवस्था में नकद कितना उपयोगी है? नकद हो या बैंक के माध्यम से कोई सौदा, देश की अर्थव्यवस्था में वे समान प्रभाव डालते हैं। सामान्य धारणा यह है कि जितना तेजी से धन का प्रवाह होगा उतना ही तेजी से राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का विकास होगा। 
 
अर्थव्यवस्था में विकास का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बेरोज़गारी को कम करना होता है। यदि बेरोज़गारी समाप्त नहीं होती और अर्थव्यवस्था की रफ़्तार बढ़ रही है तो समझिए अर्थशास्त्री कहीं न कहीं धोखा खा रहे हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ओकून ने एक सिद्धांत दिया था कि यदि राष्ट्र की बेरोज़गारी को एक प्रतिशत से कम करना है तो उसे सामान्य से दो प्रतिशत अधिक जीडीपी यानी आर्थिक प्रगति की दर रखनी होगी। अब प्रश्न उठता है कि हम लगभग पिछले 15 वर्षों से लगातार आर्थिक दरों के प्रभावशाली आंकड़े दुनिया को दिखा रहे हैं, किंतु हम अपने बेरोज़गारी के आंकड़े क्यों छुपा रहे हैं? 
 
भारत की बेरोज़गारी बढ़ने की दर सन् 2015-16 में सर्वाधिक रही। तो फिर यह कैसी विडम्बना है कि हमारी आर्थिक प्रगति की दर तो बढ़ रही है और हम विश्व में पहले नंबर पर अपना स्थान देख रहे हैं, किंतु साथ ही बेरोज़गारी भी बढ़ रही है और इस तरह हमने ओकून के सिद्धांत को ही नकार दिया है। इसलिए इस विडम्बना की जड़ में जाना जरूरी है।   
 
नकद रुपया जब तक चलता है तब तक तो अर्थव्यवस्था पर प्रभाव डालता है किंतु जैसे ही वह अचल हो जाता है वैसे ही रोज़गार की दर पर विपरीत प्रभाव डालने लगता है। नकद रुपए के अचल होने का मतलब है कि या तो वह तिजोरी में बंद हो गया है या फिर उसे अचल संपत्तियों जैसे रियल एस्टेट या गोल्ड में निवेश कर दिया गया है। ध्यान रहे बैंक में जमा धन अचल नहीं होता क्योंकि बैंक उस धन का ऋण देने में उपयोग करती है। 
 
नोटबंदी का प्रमुख लक्ष्य यह होता है कि सारा पैसा बैंकों में आकर रिज़र्व बैंक के हिसाब में आ जाना चाहिए। कुछ अचल नहीं होना चाहिए। नोटबंदी के बाद हो सकता है कि पूरा रुपया बैंकों में आ जाए या हो सकता है कि कुछ धन बाहर रह जाए। जो बाहर रह गया वह सरकार को कुछ क्षणिक लाभ दे सकता है किंतु जैसा हमने देखा नोटबंदी का प्रमुख उद्देश्य वह नहीं है।  
 
कैशलेस अर्थव्यवस्था की बात तो इसलिए हो रही है कि नकद धन पुनः अचल नहीं होना चाहिए। गोल्ड में लगा पैसा अर्थव्यवस्था की गति में अवरोध पैदा करता है। रियल एस्टेट में लगा पैसा निर्माण वाले साल में तो जीडीपी बढ़ने में अपना सहयोग देता है किंतुबाद में वह भी अचल हो जाता है,  इसलिए जो लोग अपने या बेनामी नामों से जमीन खरीदते हैं और उसका उपयोग नहीं करते वे केवल जमीनों की कीमतों को ही बढ़ाते हैं। जमीन और मकानों के बढ़ते दामों से जीडीपी में असर दिखता है, किंतु वह केवल आर्थिक प्रगति का भ्रम पैदा करता है। 
 
भारत पिछले कुछ वर्षों से इसी भ्रम के दौर से गुजरा है और इसका सीधा कारण है नकद पूंजी का अधिक प्रचलन। जिस धन को उद्योगों की ओर रुख करना चाहिए वह अचल हो गया। भारतीय सरकार का 'मेक इन इंडिया' का सपना पूरा तब तक नहीं हो सकता जब तक निवेश का रुख उद्योगों की ओर न हो। उद्योगों से रोज़गार पैदा होता है और तभी बेरोज़गारी कम होती है।  इसलिए नोटबंदी का प्रमुख उद्देश्य सारी नकद पूंजी को हिसाब में लाना है और कैशलेस का उद्देश्य इस हिसाब को बनाए रखना है। जब  पूंजी अपना सही मार्ग खोजेगी, बेरोज़गारी कम होगी तब ही जीडीपी की दर बढ़ने का सही प्रतिसाद मिलेगा।
 
आर्थिक प्रगति तब होती है जब उत्पादन बढ़ता है। रोज़गार बढ़ता है। रहन-सहन का स्तर बढ़ता है। उम्मीद तो यही है कि नोटबंदी के पश्चात जैसे ही पूंजी बैंकों के माध्यम से सही क्षेत्रों में प्रवाहित होगी, ब्याज की दरें कम होंगी, नए रोज़गार के अवसर खुलेंगे तब ही विकास की दर के यथार्थ आंकड़े सामने होंगे। यह सभी पक्षों को समझ लेना चाहिए कि नोटबंदी त्रासदी नहीं अपितु एक अनिवार्य इलाज था जो समय रहते कर लिया गया अन्यथा भारतीय अर्थव्यवस्था लाइलाज हो जाती। 
 
उक्त विश्लेषण के सम्बन्ध में यदि विरोधियों की चिल्लपों को देखा जाए तो वह प्रगति की सही धारा में रोड़े अटकाने जैसा है और एक दृष्टि में राष्ट्र द्रोह से कम नहीं है। सच तो यह है कि सही दिशा में किए जा रहे साहसी आर्थिक सुधारों का सभी पक्षों द्वारा तहे दिल से स्वागत किया जाना चाहिए।

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