वित्तमंत्री अरुण जेटली का दावा है कि विमुद्रीकरण (नोटबंदी) से देश की अर्थव्यवस्था को और खासकर खेती को कोई नुकसान नहीं हुआ है। उनका कहना है कि नए नोट जारी करने का काम काफी आगे बढ़ चुका है और कहीं से किसी तरह के असंतोष की खबर नहीं है। उन्होंने आंकड़ों के जरिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के संग्रहण में वृद्धि का दावा करते हुए नोटबंदी से किसानों को फायदा होने की बात भी कही है। नोटबंदी का सबसे बुरा प्रभाव खेती-किसानी पर पड़ने की शिकायतों को सिरे से खारिज करते हुए वित्तमंत्री ने कहा है कि खेती को कोई नुकसान नहीं हुआ है। उन्होंने दावा किया है कि रबी की बुआई पिछले साल की तुलना में इस वर्ष 6.3 फीसदी अधिक हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो इससे भी आगे बढ़कर रबी की बुआई आठ फीसदी तक अधिक होने की बात अपनी विभिन्न रैलियों में कही है।
प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खेती की स्थिति के बारे में अपने प्रशासनिक तंत्र द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के सहारे चाहे जो दावे करे लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि देश की खेती-किसानी पर नोटबंदी का सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव पड़ा है। कालेधन के खात्मे के नाम की गई नोटबंदी से सबसे ज्यादा किसान परेशान हैं। हालात देखकर ऐसा लगता है मानो सबसे ज्यादा कालाधन इन गरीब किसानों के पास ही है। गौरतलब है कि भारत की 65 फीसदी आबादी की जीविका आज भी खेतीबाड़ी पर ही निर्भर है। कहा जा सकता है कि देश की अर्थव्यव्स्था का आधार खेतीबाड़ी ही है। इसके बावजूद हमारी खेती और किसान सबसे लंबे समय से संकट में फंसे हुए हैं। उनको इस संकट से उबारने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा समय-समय पर शुरू की गई योजनाएं भ्रष्टाचार की शिकार हो गईं। अहम बात यह है कि प्राकृतिक आपदाओं का शिकार भी किसान और खेतिहर मजदूर ही होते हैं सरकारी योजनाओं का असर भी खेती पर तुरंत पड़ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नोटबंदी का कुप्रभाव भी सबसे पहले खेती-किसानी पर ही पड़ा है।
दरअसल, तमाम सरकारी योजनाएं वातानुकूलित कक्षों में बैठकर शहरी नौकरशाह बनाते हैं और आमतौर पर इस काम में संबंधित क्षेत्र के जानकारों की कोई भागीदारी नहीं होती। खेती-किसानी के बारे में तो यह बात सौ फीसदी लागू होती है। खेती-किसानी या गांवों से संबंधित योजनाएं बनाते समय सरकारें कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के जानकारों से राय-मशविरा नहीं करती हैं। बड़े नोटों को बंद करते समय भी यह गलती दोहराई गई और यह अंदाजा नहीं लगाया गया कि इसका खेत, किसान और ग्रामीण जनजीवन पर क्या असर होगा? यह तथ्य भुला दिया गया कि भारत की कृषि प्रणाली में ज्यादातर लेनदेन नकदी आधारित होता है।
किसानों पर नोटबंदी का ऐसा असर हुआ कि उनकी धान और कपास की फसल औने-पौने दामों में बिक रही है और रबी की फसल के लिए उनको महंगी कीमत में खाद, बीज और कीटनाशक खरीदने पड़ रहे हैं। जो किसान थोड़े-बहुत सक्षम हैं उन्होंने तो किसी तरह ऊंचे दामों पर खाद, बीज और कीटनाशक खरीदकर बुआई कर ली है लेकिन मध्यम और निम्न आर्थिक स्थिति वाले किसानों के खेत सूने पड़े हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र और बिहार तक के किसान इस मुसीबत में फंसे नजर आ रहे हैं।
नोटबंदी के चलते पैदा हुए नकदी के संकट की वजह से किसान पूरी तरह से फसल की बुआई नहीं कर पाए। किसानों के पास न तो बीज खरीदने के पैसे थे और न ही खाद खरीदने के लिए। रबी की फसल में गेहूं की बुआई के समय यूरिया खाद की कमी हो गई। खाद विक्रेता बताते हैं कि जहां पहले रोजाना 10 बोरी यूरिया बिकती थी, अब एक-दो बोरियां ही बिक रही हैं। बैंकों ने किसानों को नोट बदलकर 2000 के नोट दिए, जिस के फुटकर पैसे दुकानदार के पास नहीं थे। ऐसे में नोट होते हुए भी किसानों को बीज और खाद नहीं मिल सकी। रबी की फसल में गेहूं के साथ तरबूज, पालक, सरसों और सब्जी की खेती होती है जो इस बार बुरी तरह प्रभावित हुई है।
छोटे नोटों की कमी ने किसानों के लिए बहुत दुश्वारियां पैदा की हैं। उनकी शिकायत है कि एक तो बैंक से आवश्यकता के मुताबिक नोट नहीं मिले। बहुत मेहनत के बाद जब नए नोट मिले तो वे 2000 के थे। 2000 के नोट का फुटकर मिलना मुश्किल हो गया। छोटे या फुटकर नोट की किल्लत के चलते बाजार में बिक्री घट गई। इसके अलावा बैंकों में लाइन में लगने में किसानों का समय खराब हुआ सो अलग। गांवों में बैंक दूर-दूर है। हर गांव में एटीएम नहीं हैं। बैंक मित्रों की जानकारी किसानों के पास नहीं है। इन सारी दुश्वारियों के चलते दिसंबर के दूसरे सप्ताह तक पश्चिम उत्तर प्रदेश में केवल 70 फीसदी आलू किसान और 40 फीसदी गेहूं किसान ही बुआई कर पाए।
गांवों में ज्यादातर किसानों के पास खेतों की जुताई के लिए अपने ट्रैक्टर नहीं हैं। हल और बैल से खेतों की जुताई तो बहुत कम हो चुकी है। ऐसे में किराए के ट्रैक्टर से खेतों की जुताई करानी पड़ती है। ट्रैक्टर के मालिकों ने किसानों से पुराने नोट नहीं लिए। जो किसान दूसरों के पंप सेट से सिंचाई करते हैं वे भी ऐसे ही परेशान हुए। खाद-बीज की निजी दुकानों में भी पुराने नोट नहीं लिए गए। इन सारी दुश्वारियों के चलते कई किसान या तो बुआई ही नहीं कर पाए या आधी-अधूरी बुआई ही कर सके।
नोटबंदी से उपजा संकट केवल किसानों को ही परेशान नहीं कर रहा है, बल्कि खेतीबाड़ी के काम में लगे मजदूर तक इससे परेशान हैं। मंडियों में अनाज बेचने का काम करने वाले आढ़तिए और मजदूरी करने वाले पल्लेदार भी परेशान हाल हैं। सबसे ज्यादा परेशानी में धान और गुड़ की मंडियां हैं। मंडियों से आई सूचनाओं के अनुसार, नोटबंदी के बाद सबसे ज्यादा असर मंडियों पर पड़ा है। मंडियों में धान और गुड़ को बेचने-खरीदने का काम बंद हो गया है। मंडी में सुबह भीड़ जुटती है, पर दोपहर तक खत्म हो जाती है। किसान, आढ़तिए और और पल्लेदार नोटबंदी को गलत नहीं मानते, लेकिन उनका कहना है कि नोटबंदी के लिए पूरी तैयारी नहीं की गई। अगर मुद्रा बाजार में छोटे नोट पहले से ही चलन में लाए गए होते, तो यह परेशानी नहीं होती।
नोटबंदी के चलते इस समय किसानों के पास नकदी का संकट है। वे उधार में बीज, खाद और कीटनाशक लेकर अपना काम चला रहे हैं। मंडी में नकदी का संकट होने से भी किसान परेशान हैं। वे मंडी में अपनी फसल बेचने से बच रहे हैं। पुराने नोट बदलवाने की मियाद खत्म होने के पहले तक आढ़तिए किसानों को पुराने नोट देने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन किसान पुराने नोट लेने से कतरा रहे थे। अब नोट बदलने की मियाद खत्म हो चुकी है और सरकार का दावा है कि बैंकों में पर्याप्त नकदी पहुंचा दी गई है, लेकिन हकीकत यह है कि बैंकों में अभी भी लंबी कतारें लग रही है और जहां एटीएम हैं उनमें पैसा नहीं है। किसान चैक से पैसा लेने में भी हिचकिचा रहे हैं। उनका बैंकों पर से भरोसा डगमगा गया है। उन्हें लगता है कि चैक बैंक में जमा तो हो जाएगा लेकिन पैसा पता नहीं कब और कितना मिलेगा?
कुल मिलाकर अभी भी हालात सुधरे नहीं हैं। जिस मंडी में धान के सीजन में प्रतिदिन औसतन 7000 क्विंटल धान बिकने आता था, वहां नोटबंदी के बाद 1500 क्विंटल धान ही प्रतिदिन बिकने आ रहा है। धान के साथ ही गुड़ और कपास मंडी में भी यही हाल हैं। किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर कई बार धान, कपास और गुड़ लेकर मंडी में आए किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर आढ़तिए कम दामों में उनकी फसल खरीदना चाहते हैं। मध्य प्रदेश में रतलाम जिले के किसान भेरुसिंह डामोर बताते हैं कि कपास का दाम 4500 रुपए क्विंटल है लेकिन आढ़तिए किसानों को कह रहे हैं कि पूरे दाम चाहिए तो भुगतान चैक से ले लो और नकद चाहिए तो 3800 रुपए के भाव से पैसे मिलेंगे। चूंकि किसान आमतौर पर नकद लेनदेन में यकीन करते हैं और मौजूदा माहौल में तो उन्हें चैक और बैंक पर भरोसा ही नहीं है, लिहाजा ज्यादातर किसान अपनी फसल कम दामों पर ही बेचने को मजबूर हो रहे हैं।
भारत की कृषि प्रणाली में ज्यादातर लेनदेन नकदी आधारित है। नोटबंदी के कारण किसानों पर दोतरफा मार पड़ी है। किसानों को अपने उत्पाद बेचने से जो रकम पांच सौ और एक हजार रुपये के नोट में मिली थी, वह नोटबंदी के चलते उनके लिए मुसीबत का सबब बन गई। नोटबंदी की घोषणा के बाद खाद्यान्न व्यापारी खरीदारी नहीं कर पाए, क्योंकि उनके पास पर्याप्त मात्रा में वैध नकदी नहीं है। यदि खाद्यान्न व्यापारी खरीदारी कर भी रहे हैं तो किसानों को चैक से भुगतान कर रहे हैं। जब किसान ये चैक अपने बैंक खाते में जमा कर रहे हैं तो बैंक अपना पुराना कर्ज उसमें से वसूल कर रहे हैं। इन हालात में किसानों के उत्पाद बिक नहीं रहे हैं, जबकि इस मौसम में किसानों को नकदी की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है।
खेती-किसानी पर आसन्न संकट को लेकर जब प्रतिरोध के स्वर मुखर होने लगे तो वित्तमंत्री ने घोषणा की कि किसान खाद-बीज आदि की खरीदारी पुराने नोट से कर सकते हैं। शायद वित्तमंत्री को इस बात का इल्म नहीं रहा कि किसान 85 फीसदी खाद्य और बीज निजी क्षेत्र से खरीदता है, जहां पर पुराने नोट स्वीकार नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए वित्तमंत्री की किसानों को राहत देने की घोषणा बेमतलब साबित हुई। कई ग्रामीण क्षेत्रों में तो अभी भी नए नोट पहुंचे ही नहीं हैं। वैसे भी सरकारों की प्राथमिकता सूची में गांव और किसान सबसे नीचे ही रहते हैं।